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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः
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    आ नो॑ मित्रावरुणा घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम्। मध्वा॒ रजा॑सि सुक्रतू॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। घृ॒तैः। गव्यू॑तिम्। उ॒क्ष॒त॒म्। मध्वा॑। रजा॑ꣳसि। सु॒क्र॒तू॒ इति॑ सुऽक्रतू ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजाँसि सुक्रतू ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। मित्रावरुणा। घृतैः। गव्यूतिम्। उक्षतम्। मध्वा। रजाꣳसि। सुक्रतू इति सुऽक्रतू॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 8
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    भावार्थ -
    ( मित्रावरुणौ ) हे मित्र ! समस्त लोकों को स्नेह से देखने और मृत्यु से बचाने वाले न्यायाधीश ! और हे वरुण ! सबसे वरण करने योग्य, संकटों, दुष्ट चोरों के वारण करने हारे अधिकारिन् ! तुम दोनों ( गव्यूतिम् ) मार्ग को दो-दो कोस (घृतैः) जलों और तेजस्वी पुरुषों से (नः) हमारे हित के लिये ( आ उक्षतम् ) सेचित करो । अर्थात् जैसे मित्र और वरुण, वायु और मेघ जलों से सेचन करते हैं उसी प्रकार राजा दो महकमे प्रति दो कोसों पर जलस्थानों, जनरक्षक पुलिस के सैनिकों और विद्वान् पुरुषों से प्रजाजन को पुष्ट करें अर्थात् प्रति दो कोस में पुलिस चौकी जल के प्याऊ और पाठशाला हों । हे (सुक्रतू ) उत्तम कर्मों को करने एवं उत्तम प्रज्ञा वालो ! आप (मध्वा) मधुर ज्ञान, अन्न, बल, सुख ऐश्वर्य से ( रजांसि ) समस्त लोकों को ( सिञ्चतम् ). युक्त करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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