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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 48
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - सरस्वत्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वं ब॒र्हिः सर॑स्वती सुदे॒वमिन्द्रे॑ऽअ॒श्विना॑।तेजो॒ न चक्षु॑र॒क्ष्योर्ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं वसु॒॑वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। सर॑स्वती। सु॒दे॒वमिति॑ सुऽदे॒वम्। इन्द्रे॑। अ॒श्विना॑। तेजः॑। न। चक्षुः॑। अ॒क्ष्योः᳖। ब॒र्हिषा॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिः सरस्वती सुदेवमिन्द्रे अश्विना । तेजो न चक्षुरक्ष्योर्बर्हिषा दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। सरस्वती। सुदेवमिति सुऽदेवम्। इन्द्रे। अश्विना। तेजः। न। चक्षुः। अक्ष्योः। बर्हिषा। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 48
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    भावार्थ -
    (सरस्वती) उत्तम बल वीर्य और ज्ञानवती स्त्री जिस प्रकार ( देवम् ) अपने कामना योग्य पति को (बर्हिः) आसन, प्रदान करती है। उसी प्रकार (सरस्वती) विद्वत् सभा (सुदेवम् ) उत्तम राजा को (बर्हिः) बृहत् राष्ट्र, प्रजा पर शासन पद प्रदान करे । (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्र जिस प्रकार (अक्ष्योः चक्षुः न) दोनों आंखों को दर्शन शक्ति प्रदान करते हैं उसी प्रकार (अश्विनौ) उक्त मुख्य विद्वान् 'अश्वि' अधिकारी दोनों (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् राजा में (तेजः इन्द्रियं दधतुः) तेज और ऐश्वर्य प्रदान करें। और दो अश्वी और सरस्वती तीनों मिलकर (इन्द्रे) राजा और राष्ट्र में (बर्हिषा) इस प्रजामय राष्ट्र पद या प्रजागण द्वारा ही (वसुधेयस्य) - ऐश्वर्य धन समृद्धि के कोष के योग्य धन को (वसुवने ) धन समृद्धि प्राप्त करने वाले राजा के लिये स्वयं (व्यन्तु) प्राप्त करें । हे (होतः) अधिकार-: प्रदातः ! तू (यज) उनको वह अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सरस्वत्यादयो देवताः । त्रिष्टुप् धैवतः ॥

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