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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 18
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    दैव्या॒ होता॑रा भि॒षजेन्द्रे॑ण स॒युजा॑ यु॒जा।जग॑ती॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यम॑न॒ड्वान् गौर्वयो॑ दधुः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑। होता॑रा। भि॒षजा॑। इन्द्रे॑ण स॒युजेति॑ स॒ऽयुजा॑। यु॒जा। जग॑ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒न॒ड्वान्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा भिषजेन्द्रेण सयुजा युजा । जगती छन्दऽइन्द्रियमनड्वान्गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। भिषजा। इन्द्रेण सयुजेति सऽयुजा। युजा। जगती। छन्दः। इन्द्रियम्। अनड्वान्। गौः। वयः। दधुः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 18
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    भावार्थ -
    ( दैव्या) देवों, शरीरस्थ प्राणों में व्यापक (होतारौ ) सबकों अपने भीतर ग्रहण करने वाले, (भिषजा) वैद्यों के समान शरीर के समस्त रोग विकारों को दूर करने वाले, (इन्द्रेण सयुजौ ) इन्द्र आत्मा के साथ सदा संयुक्त और (युजा) सदा स्वयं साथ रहने वाले प्राण अपान और उन्हीं के समान (दैव्या होतारा) देवों, विद्वानों में हितकारी ( भिषजाः ) शरीर और मन एवं समाज शरीर के दोषों को भी सद्वैद्य के समान दूर करने वाले (इन्द्रेण) राजा के साथ (सयुजौ) सहयोग रखने वाले, (युजा ) सदा परस्पर संयुक्त और (जगती छन्दः) ४८ अक्षर के जगती छन्द के समान, ४८ वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालक विद्वान् पति और (अनड्- वान् गौः) शकट को उठाने वाले बैल के समान राष्ट्र के शकट को उठाने वाला वीर बलवान् पुरुष, ये सभी ( इन्द्रियम् ) बल, ऐश्वर्य और ( वयः ), दीर्घ आयु और ज्ञान को (दधुः) धारण करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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