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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अवत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युत॑ꣳ शु॒क्रं दु॑दुह्रे॒ऽअह्र॑यः। पयः॑ सहस्र॒सामृषि॑म्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य। प्र॒त्नाम्। अनु॑। द्युत॑म्। शु॒क्रम्। दु॒दु॒ह्रे॒। अह्र॑यः। पयः॑। स॒ह॒स्र॒सामिति॑ सहस्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म् ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य प्रत्नामनु द्युतँ शुक्रन्दुदुह्रेऽअह्रयः । पयः सहस्रसामृषिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। प्रत्नाम्। अनु। द्युतम्। शुक्रम्। दुदुह्रे। अह्रयः। पयः। सहस्रसामिति सहस्रऽसाम्। ऋषिम्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 16
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    भावार्थ -

    (अस्य) इस अग्निरूप परमेश्वर की ( प्रत्नाम् ) अति पुरातन, अनादि सिद्ध ( द्युतम् ) द्युति, कान्ति, तेज, शक्ति को ( अह्रयः ) आकाश में रश्मियों द्वारा फैलने वाले प्रकाशमान तेजोमय सूर्य आदि ( शुक्रम् ) शुक्र, कान्तिमय तेज के रूपमें ( दुदुह्रे ) दोहते हैं, प्राप्त करते हैं। वे मानो, सर्व कामदुघा परमेश्वर रूप गौ से ( सहस्रसाम् ) सहस्रों कार्यों को सम्पादन करने वाले ( ऋषिम् ) सब के प्रेरक, स्वयं गतिशील ( पयः ) पुष्टिकारक दुग्ध के समान बल और वीर्य को ( दुदुह्रे ) प्राप्त करते हैं ॥ 
    राजपक्ष में - ( अह्वयः अस्य प्रत्नाम्  द्युतम् शुक्रम् ऋषिम् सहस्रसाम् पयः दुदुह्रे ) दूर २ तक प्रज्ञा द्वारा पहुंचने वाले विद्वान् इस राजा के प्रत्न श्रेष्ठ कान्ति या वीर्य को ऋषि, व्यापक या निरीक्षक शक्ति को और ( सहसाम् ) हज़ारों को, अन्न वस्त्र शरण देने वाली शक्ति और पुष्टिकारक बल को गाय से दूध के समान प्राप्त करते हैं। हजारों कार्यों के साधक प्रदीप के समान पदार्थदर्शक अनादि सिद्ध कान्ति को अग्नि से विद्वान लोग प्राप्त करते हैं । शत० २ । ३ । ४ । १५ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अवत्सार ऋषिः । गौः पयो वा देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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