यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 23
ऋषिः - वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
1
राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्द्ध॑मान॒ꣳ स्वे दमे॑॥२३॥
स्वर सहित पद पाठराज॑न्तम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। गो॒पाम्। ऋ॒तस्य॑। दीदि॑विम्। वर्ध॑मानम्। स्वे। दमे॑ ॥२३॥
स्वर रहित मन्त्र
राजन्तमध्वराणाङ्गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानँ स्वे दमे ॥
स्वर रहित पद पाठ
राजन्तम्। अध्वराणाम्। गोपाम्। ऋतस्य। दीदिविम्। वर्धमानम्। स्वे। दमे॥२३॥
विषय - ईश्वर और राजा का स्वरूप ।
भावार्थ -
( राजन्तम् ) सर्वत्र यश और प्रताप से प्रकाशमान ( अध्वराणाम् ) शत्रुओं से न नाश होने योग्य दुर्ग और उत्तम रक्षा के उपायों के रक्षक, ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान के ( दीदिविम्) प्रकाशक, (स्वे दमे ) अपने दमन कार्य में (वर्धमानं)सबसे अधिक बढ़ने वाले तुम राजा को हम अन्न का उपहार करते हुए प्राप्त हों ।
ईश्वर पक्ष में -- यज्ञों के रक्षक ऋग्वेद के प्रकाशक, परम मोक्षपद में राजमान, परमेश्वर की हम उपासना करें ।
अग्नि के पक्ष में -- इसी प्रकार प्रकाश या अग्नि को हम अपने घर में हवि सेपुष्ट करें || शत० २ । ३ । ४ । २७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
वैश्वामित्रोमधुच्छन्दा ऋषिः ! अग्निर्देवता । गायत्री । षड्जः ॥
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