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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् आसुरी गायत्री,गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    स॒ꣳहि॒तासि॑ विश्वरू॒प्यूर्जा मावि॑श गौप॒त्येन॑। उप॑ त्वाग्ने दि॒वेदि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्धि॒या व॒यम्। नमो॒ भर॑न्त॒ऽएम॑सि॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ꣳहि॒तेति॑ सम्ऽहि॒ता। अ॒सि॒। वि॒श्व॒रू॒पीति॑ विश्वऽरू॒पी। ऊ॒र्जा। मा॒। आ। वि॒श॒। गौ॒प॒त्येन॑। उप॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। दि॒वेदि॑व॒ इति॑ दि॒वेदि॑वे। दो॑षावस्त॒रिति॒ दोषा॑ऽवस्तः। धि॒या। व॒यम्। नमः॑। भर॑न्तः। आ। इ॒म॒सि॒ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँहितासि विश्वरूप्यूर्जा माविश गौपत्येन । उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्तऽएमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सꣳहितेति सम्ऽहिता। असि। विश्वरूपीति विश्वऽरूपी। ऊर्जा। मा। आ। विश। गौपत्येन। उप। त्वा। अग्ने। दिवेदिव इति दिवेदिवे। दोषावस्तरिति दोषाऽवस्तः। धिया। वयम्। नमः। भरन्तः। आ। इमसि॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 22
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    भावार्थ -

    हे गौ ! तू ! संहिता असि ) भली प्रकार से घरों में बांधली जाती है । तू ही ( विश्वरूपी ) नाना प्रकार के पशुओं के रूप धारण करने वाली है, उनकी प्रतिनिधि है । तू ( ऊर्जा ) अन्न-सम्पत्ति और (गौपत्येन ) गौत्रों के पति या स्वामित्व के यश के साथ ( मा विश ) मुझे प्राप्त हो ॥ 
    प्रजा के प्रति राजा--हे प्रजे ! (विश्वरूपी ) तू नाना रूप की है, समस्त प्रकार के जनों-प्राणियों से युक्त है । तू ( संहिता असि ) भली प्रकार व्यवस्था में बद्ध है । ( ऊर्जा ) बल से और ( गौपत्येन ) पृथ्वी के स्वामित्व के साथ ( मा विश ) मुझे प्राप्त हो ॥ 
    हे ( अग्ने ) अग्ने राजन् ! परमेश्वर ! हे ( दोषावस्त: ) अपने तेज से रात्रि रूप अन्धकार को आच्छादन करने हारे ! हम ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन ( धिया ) अपनी बुद्धि और कर्म से ( नमः भरन्तः ) नमस्कार करते हुए या अन्नादि पदार्थ प्राप्त कराते हुए ( त्वा उप एमसि ) तुझे प्राप्त हों । 
    अथवा -- हे परमेश्वर प्रतिदिन हम धारणद्वारा तेरा ध्यान करते हुए तुझे प्राप्त हों ॥ शत० २ । ३ । ४ । २६ ।।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    विश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः । गौग्निश्च देवताः । ( १) भुरिगासुरी गायत्री ।
    ( २) गायत्री । षड्जः ॥

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