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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 50
    ऋषिः - और्णवाभ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भूरिक् अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    दे॒हि मे॒ ददा॑मि ते॒ नि मे॑ धेहि॒ नि ते॑ दधे। नि॒हारं॑ च॒ हरा॑सि मे नि॒हारं॒ निह॑राणि ते॒ स्वाहा॑॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒हि। मे॒। ददा॑मि। ते॒। नि। मे॒। धे॒हि॒। नि। ते॒। द॒धे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। च॒। हरा॑सि। मे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। नि। ह॒रा॒णि॒। ते॒। स्वाहा॑ ॥५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देहि मे ददामि ते नि मे धेहि नि ते दधे । निहारञ्च हरासि मे निहारन्निहराणि ते स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देहि। मे। ददामि। ते। नि। मे। धेहि। नि। ते। दधे। निहारमिति निऽहारम्। च। हरासि। मे। निहारमिति निऽहारम्। नि। हराणि। ते। स्वाहा॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 50
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    भावार्थ -

    व्यापार के लेन देन का नियम दर्शाते हैं । ( मे देहि ) तुम अपना पदार्थ मुझे दो तो मैं भी ( ते ददामि ) तुम्हें अपना पदार्थ दूं । ( मे निधेहि ) तुम मेरा पदार्थ धारो, गिरवी रक्खो तो ( ते निदधे ) मैं तुम्हारे पदार्थ को भी अपने पास रक्खूं ( निहारं च ) और तू यदि पूर्ण मूल्य का ये पदार्थ ( मे हरासि ) मेरे पास ले आवो तो ( ते ) तेरे द्रव्य का भी ( निहारं ) पूर्ण मूल्य ( निहराणि ) चुका दूं । ( स्वाहा ) इस प्रकार सत्य- वाणी, व्यवहार द्वारा व्यापार किया जाता है अथवा इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना पदार्थ प्राप्त करे। लोग सत्यवाणी पर विश्वास करके परस्पर लें दें, उधार करें और मूल्य चुकाया करें ॥ शत० २ । ५ । ३ । १९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    और्णवाभ ऋषिः । इन्द्रो देवता । भुरिग् अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः॥

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