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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 49
    ऋषिः - और्णवाभ ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पू॒र्णा द॑र्वि॒ परा॑ पत॒ सुपू॑र्णा॒ पुन॒राप॑त। व॒स्नेव॒ वि॒क्री॑णावहा॒ऽइ॒षमूर्ज॑ꣳ शतक्रतो॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्णा। द॒र्वि॒। परा॑। प॒त॒। सुपू॒र्णेति॒ सुऽपूर्णा। पुनः॑। आ। प॒त॒। वस्नेवेति॑ व॒स्नाऽइ॑व। वि। क्री॒णा॒व॒है॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ऽइति॑ शतऽक्रतो ॥४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरा पत । वस्नेव वि क्रीणावहा इषमूर्जँ शतक्रतो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्णा। दर्वि। परा। पत। सुपूर्णेति सुऽपूर्णा। पुनः। आ। पत। वस्नेवेति वस्नाऽइव। वि। क्रीणावहै। इषम्। ऊर्जम्। शतक्रतोऽइति शतऽक्रतो॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 49
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    भावार्थ -

    हे ( दर्वि ) देने योग्य पदार्थों को अपने भीतर लेने वाली पात्रिके ! ( पूर्णा) तू पूर्ण होकर, भरी भरी ( परा पत ) दूसरे के पास जा । (सुपूर्णा) खूब पूर्ण होकर, भरी भरी ही ( पुनः ) फिर ( आ पत ) हमें भी प्राप्त हो | हे (शतक्रतो ) सेकड़ों कर्म करने में समर्थ इन्द्र ! राजन् ! ( वस्ना इव) विक्रय करने योग्य पदार्थों के समान ही हम ( इषम् ) अन्न और मन चाहे सभी पदार्थ और (ऊर्जम् ) अपने बल पराक्रम का भी ( विक्रीणावहै ) विनिमय करें , लें , दें । व्यापार में परिमाण पूरा पूरा दें और पूरा पूरा लें।  इस प्रकार अन्न और मन चाहे सभी पदार्थ और परिश्रम को भी अदला बदला करें। 
    यज्ञ पक्ष में--भरकर चमस डालें और फिर उत्तम वृष्टि आदि फल भी खूब प्राप्त हों । अन्न आहुति अग्नि में दें और विनिमय में उत्तम रस-बल और अन्नोत्पत्ति प्राप्त करें । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     और्णवाभ ऋषिः । यज्ञो देवता । अनुष्टुप् छन्दः । गान्धारः स्वरः ॥

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