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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    अ॑र॒सास॑ इ॒हाह॑यो॒ ये अन्ति॒ ये च॑ दूर॒के। घ॒नेन॑ हन्मि॒ वृश्चि॑क॒महिं॑ द॒ण्डेनाग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सास॑: । इ॒ह । अह॑य: । ये । अन्ति॑ । ये । च॒ । दू॒र॒के । घ॒नेन॑ । ह॒न्मि॒ । वृश्चि॑कम् । अहि॑म् । द॒ण्डेन॑ । आऽग॑तम् ॥४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसास इहाहयो ये अन्ति ये च दूरके। घनेन हन्मि वृश्चिकमहिं दण्डेनागतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसास: । इह । अहय: । ये । अन्ति । ये । च । दूरके । घनेन । हन्मि । वृश्चिकम् । अहिम् । दण्डेन । आऽगतम् ॥४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (ये) जो सांप (अन्ति) समीप हों और (ये च दूरके) जो दूर हों वे भी (अहयः) सांप (इह) इस उपाय से (अरसासः) निर्बल, बलरहित, लाचार हो जाते हैं कि (घनेन) किसी कठोर ताड़ने योग्य हतौड़े से (वृश्चिकम्) बिच्छू को (हन्मि) मारूं और (आगतम्) समीप आये (अहिम्) सांप को (दण्डेन हन्मि) दण्ड से मारूं। अर्थात् दण्ड से सांप और हतौड़े से बिच्छू का मारने के उपाय से सभी पास और दूर के सांप लाचार हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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