अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 21
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
अ॒पादग्रे॒ सम॑भव॒त्सो अग्रे॒ स्वराभ॑रत्। चतु॑ष्पाद्भू॒त्वा भोग्यः॒ सर्व॒माद॑त्त॒ भोज॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पात् । अग्रे॑ । सम् । अ॒भ॒व॒त् । स: । अग्रे॑ । स्व᳡: । आ । अ॒भ॒र॒त् । चतु॑:ऽपात् । भू॒त्वा । भोग्य॑: । सर्व॑म् । आ । अ॒द॒त्त॒ । भोजन॑म् ॥८.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादग्रे समभवत्सो अग्रे स्वराभरत्। चतुष्पाद्भूत्वा भोग्यः सर्वमादत्त भोजनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपात् । अग्रे । सम् । अभवत् । स: । अग्रे । स्व: । आ । अभरत् । चतु:ऽपात् । भूत्वा । भोग्य: । सर्वम् । आ । अदत्त । भोजनम् ॥८.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 21
विषय - ज्येष्ठ ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ -
सृष्टि के पूर्व में (सः) वह परम पुरुष (अपात्) ‘अ’ पात् अविज्ञेय रूप, ‘अमात्र’ स्वरूप (सम् अभवत्) रहा। और (अग्रे) सृष्टि के उत्पन्न होने के पूर्व वही (स्वः) सुखमय प्रकाशमय मोक्ष धाम को (आभरत्) धारण करता था। वह पुनः (चतुष्पात्) ‘चतुष्पात्’ होकर (भोग्यः) सब संसार का भोक्ता होकर (सर्वम्) समस्त संसार को (भोजनम्) अपना भोजन बना कर (आ अदत्त) अपने भीतर लील रहा है।
‘अत्ता चराचरग्रहणात्’। वेदान्त सूत्रम्।
प्रकाशवान्, अनन्तवान् ज्योतिष्मान् और आयतनवान् ये ब्रह्म के चार पाद हैं प्रत्येक पाद की चार चार कलाएं हैं। प्राची, प्रतीची, दक्षिणा, उदीची ये प्रकाशवान् पाद की चार कला हैं, पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौः, समुद्र ये अनन्तवान् पाद की चार कलाएं हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, ये ज्योतिष्मान् पाद की चार कलाएं है प्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये आय तनवान् पाद की चार कलाएं है। इस प्रकार चतुष्कल, चार चरणों से समस्त संसार को उस ब्रह्म ने अपना भोजन बना लिया है। यह संसार उसका भोग्य है अतः वह महान आत्मा ‘भोग्यः’ कहाता है। भोग्यम् अस्यास्तीति ‘भोग्यः’ सर्व भोक्ता इत्यर्थः। अर्शदित्वा द अच्।
टिप्पणी -
‘सोऽग्रे असुराभवत्’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषिः। आत्मा देवता। १ उपरिष्टाद् बृहती, २ बृहतीगर्भा अनुष्टुप, ५ भुरिग् अनुष्टुप्, ७ पराबृहती, १० अनुष्टुब् गर्भा बृहती, ११ जगती, १२ पुरोबृहती त्रिष्टुब् गर्भा आर्षी पंक्तिः, १५ भुरिग् बृहती, २१, २३, २५, २९, ६, १४, १९, ३१-३३, ३७, ३८, ४१, ४३ अनुष्टुभः, २२ पुरोष्णिक्, २६ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुब्, ५७ भुरिग् बृहती, ३० भुरिक्, ३९ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप, ४२ विराड् गायत्री, ३, ४, ८, ९, १३, १६, १८, २०, २४, २८, २९, ३४, ३५, ३६, ४०, ४४ त्रिष्टुभः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
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