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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    एक॑चक्रं वर्तत॒ एक॑नेमि स॒हस्रा॑क्षरं॒ प्र पु॒रो नि प॑श्चा। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क्व तद्ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽचक्रम् । व॒र्त॒ते॒ । एक॑ऽनेमि । स॒हस्र॑ऽअक्षरम् । प्र । पु॒र: । नि । प॒श्चा । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क्व᳡ । तत् । ब॒भू॒व॒ ॥८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं क्व तद्बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽचक्रम् । वर्तते । एकऽनेमि । सहस्रऽअक्षरम् । प्र । पुर: । नि । पश्चा । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । क्व । तत् । बभूव ॥८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (पुरः प्र) पूर्व से उग कर, (पश्चा नि) पश्चिम में अस्त होने वाला (एकचक्रम्) एक ज्योतिश्चक्र से युक्त (एकनेमि) संवत्सर रूप एक धार वाला सूर्य (वर्त्तत) जिस प्रकार घूमता है उसी प्रकार यह आत्मा (पुरः प्र) आगे आगे विज्ञान रूप में बराबर उदित होता और (पश्चा नि) पीछे भूतकाल में निमीलित सा होता हुआ (एक-नेमि) एकस्वरूप (एक चक्रम्) एकमात्र कर्त्ता होकर (सहस्राक्षरम्) सहस्त्रों अक्षर=अक्षय शक्तियों से सम्पन्न होकर (वर्त्तते) सदा विद्यमान रहता है। कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता। और जैसे सूर्य (अर्धेन) आधे से (विश्वं भुवनं जजान) समस्त भुवन को प्रकाशित करता है और (यत् अस्य अर्धं क्व तत् बभूव) और जो उसका शेष आधा भाग है, पता नहीं वह कहां प्रकाश करता है ? उसी प्रकार (अर्धेन) अपने अर्ध, समृद्ध भाग ऐश्वर्यमय विभूतिमय सत्वांश से (विश्वं भुवनं जजान) समस्त उत्पन्न होने वाले कार्य जगत् को उत्पन्न करता है और (यद्) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (अर्धम्) महान्, परम स्वरूप, सूक्ष्म कारणरूप है (तत्) वह (क्व बभूव) कहां, किस रूप में है, नहीं कहा जा सकता। ‘एकनेमि’ ब्रह्म का स्वरूपवर्णन श्वेताश्वतर उप० में लिखा है— “तमेकनेमिं त्रिवृत्तं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः। अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥ ” (अ० १। ४॥) इस पर शाङ्कर भाष्य दर्शनीय है। (प्र०) ‘अष्टाचक्रं वर्त्तत’ (च०) ‘यदस्यार्धं कतमः सकेतुः’ इति अथर्व० [११। ४। २२ ]।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषिः। आत्मा देवता। १ उपरिष्टाद् बृहती, २ बृहतीगर्भा अनुष्टुप, ५ भुरिग् अनुष्टुप्, ७ पराबृहती, १० अनुष्टुब् गर्भा बृहती, ११ जगती, १२ पुरोबृहती त्रिष्टुब् गर्भा आर्षी पंक्तिः, १५ भुरिग् बृहती, २१, २३, २५, २९, ६, १४, १९, ३१-३३, ३७, ३८, ४१, ४३ अनुष्टुभः, २२ पुरोष्णिक्, २६ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुब्, ५७ भुरिग् बृहती, ३० भुरिक्, ३९ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप, ४२ विराड् गायत्री, ३, ४, ८, ९, १३, १६, १८, २०, २४, २८, २९, ३४, ३५, ३६, ४०, ४४ त्रिष्टुभः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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