अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
इ॒दं स॑वित॒र्वि जा॑नीहि॒ षड्य॒मा एक॑ एक॒जः। तस्मि॑न्हापि॒त्वमि॑च्छन्ते॒ य ए॑षा॒मेक॑ एक॒जः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । स॒वि॒त॒: । वि । जा॒नी॒हि॒ । षट् । य॒मा: । एक॑: । ए॒क॒ऽज: । तस्मि॑न् । ह॒ । अ॒पिऽत्वम् । इ॒च्छ॒न्ते॒ । य: । ए॒षा॒म् । एक॑: । ए॒क॒ऽज: ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं सवितर्वि जानीहि षड्यमा एक एकजः। तस्मिन्हापित्वमिच्छन्ते य एषामेक एकजः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । सवित: । वि । जानीहि । षट् । यमा: । एक: । एकऽज: । तस्मिन् । ह । अपिऽत्वम् । इच्छन्ते । य: । एषाम् । एक: । एकऽज: ॥८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
विषय - ज्येष्ठ ब्रह्म का वर्णन।
भावार्थ -
हे (सवितः) सवितः सब प्राणों के प्रेरक सूर्य के समान आत्मन् ! तू (वि जानीहि) इसे विशेष रूप से ज्ञान कर कि (षड् यमाः) छः ‘यम’=जोड़े हैं और (एकः) एक (एकजः) स्वयं उत्पन्न है। (यः) जो (एषाम्) इनमें से (एकः) एक (एकजः) स्वयं उत्पन्न है (तस्मिन्) उसमें (ह) ही अन्य सब (अपित्वम्) अपने को सम्बद्ध हुआ (इच्छन्ते) जानते हैं। अथवा (तस्मिन् ह अपित्वं=अप्ययम् इच्छन्ते) उसी में सब सम्बद्ध होने के कारण अप्यय या विलीन होना चाहते हैं।
संवत्सर पक्ष में—छ ऋतुएं ६ यम हैं, वे दो दो मास से बने हैं। और १३ वां मल मास है। सब अपने को उसमें संबद्ध पाते हैं या १३ वां स्वयं सूर्य है। वह स्वयंभू है। १२ हों मास सूर्य में अपने को बंधा पाते हैं। अध्यात्म में छः यम, दो कान, दो नाक, दो आंख, दो रसना और वाणी, दो हाथ, दो पांव, ये छः यम हैं और एक मन है, वह स्वयं उत्पन्न है, उसमें सब बंधे हैं और सब प्राण उसी में ‘अप्यय’ लीन होते हैं।
अथवा—पांच इन्द्रियें और छठा मन ये छः यम हैं। आत्मा एकज स्वयंभू एक है। उसमें वे पांचों सम्बद्ध हैं। अथवा—द्वादश प्राण छः यम=जोड़े हैं वे एक आत्मा में सम्बद्ध हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषिः। आत्मा देवता। १ उपरिष्टाद् बृहती, २ बृहतीगर्भा अनुष्टुप, ५ भुरिग् अनुष्टुप्, ७ पराबृहती, १० अनुष्टुब् गर्भा बृहती, ११ जगती, १२ पुरोबृहती त्रिष्टुब् गर्भा आर्षी पंक्तिः, १५ भुरिग् बृहती, २१, २३, २५, २९, ६, १४, १९, ३१-३३, ३७, ३८, ४१, ४३ अनुष्टुभः, २२ पुरोष्णिक्, २६ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुब्, ५७ भुरिग् बृहती, ३० भुरिक्, ३९ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप, ४२ विराड् गायत्री, ३, ४, ८, ९, १३, १६, १८, २०, २४, २८, २९, ३४, ३५, ३६, ४०, ४४ त्रिष्टुभः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
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