Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 25
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    बाला॒देक॑मणीय॒स्कमु॒तैकं॒ नेव॑ दृश्यते। ततः॒ परि॑ष्वजीयसी दे॒वता॒ सा मम॑ प्रि॒या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बाला॑त् । एक॑म् । अ॒णी॒य॒:ऽकम् । उ॒त । एक॑म् । नऽइ॑व । दृ॒श्य॒ते॒ । तत॑: । परि॑ऽस्वजीयसी । दे॒वता॑ । सा । मम॑ । प्रि॒या ॥८.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बालादेकमणीयस्कमुतैकं नेव दृश्यते। ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बालात् । एकम् । अणीय:ऽकम् । उत । एकम् । नऽइव । दृश्यते । तत: । परिऽस्वजीयसी । देवता । सा । मम । प्रिया ॥८.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 25

    भावार्थ -
    (एकम्) एक वस्तु जो (बालात्) बाल=केश से भी (अणीयस्कम्) अत्यन्त सूक्ष्म (उत एकम्) और वह भी एक हो तो वह (न इव दृश्यते) नहीं के समान दीखती है। तो फिर (ततः) जो उससे भी सूक्ष्म वस्तु के (परि-ष्वजीयसी) भीतर व्यापक अति सूक्ष्मतम (देवता) देव की जो सत्ता है (सा) वह (मम) मेरे (प्रिया) हृदय को तृप्त करती एवं प्रिय लगती है। मैं उसका उपासक हूं। जैसे श्वेताश्वतर उप० [५। ९] में— बालाग्रशत भागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ ५। ७॥ बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः॥ ५। ८॥ न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्॥ क० उप० [ २। ६। ७ ] नैव वाचा न तपसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा॥ अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते। क० २। ६। १२॥ एक बाल को सौ हिस्सो में बांटा जाय, वह सौवां भाग जीव का परिमाण जानो। वह सूई के नोक के समान है। वह बुद्धि या आत्मा के ज्ञान गुण से देख लिया जा सकता है। इसी प्रकार सूक्ष्म परम आत्मा को भी समझो। उसका रूप दिखाई नहीं देता। उसे आंख से कोई भी नहीं देखता, न वाणी से कहा जा सकता है, न मनसे सोचा जा सकता है। केवल ‘है’ ऐसा कहने के अतिरिक्त और कुछ भी उसका जाना नहीं जा सकता। ह्विटनी ने इस मन्त्र में ‘बाल’ का अर्थ बच्चा किया है, सो उसकी बालबुद्धि पर हंसी आती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषिः। आत्मा देवता। १ उपरिष्टाद् बृहती, २ बृहतीगर्भा अनुष्टुप, ५ भुरिग् अनुष्टुप्, ७ पराबृहती, १० अनुष्टुब् गर्भा बृहती, ११ जगती, १२ पुरोबृहती त्रिष्टुब् गर्भा आर्षी पंक्तिः, १५ भुरिग् बृहती, २१, २३, २५, २९, ६, १४, १९, ३१-३३, ३७, ३८, ४१, ४३ अनुष्टुभः, २२ पुरोष्णिक्, २६ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुब्, ५७ भुरिग् बृहती, ३० भुरिक्, ३९ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप, ४२ विराड् गायत्री, ३, ४, ८, ९, १३, १६, १८, २०, २४, २८, २९, ३४, ३५, ३६, ४०, ४४ त्रिष्टुभः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top