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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 61
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒याँ अ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒यवि॑ष्ठा ईमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्ष॑न् । अमी॑मदन्त । हि । अव॑ । प्रि॒यान् । अ॒धू॒ष॒त॒ । अस्तो॑षत । स्वऽभा॑नव: । विप्रा॑: । यवि॑ष्ठा: । ई॒म॒हे॒ ॥४.६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रियाँ अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रायविष्ठा ईमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षन् । अमीमदन्त । हि । अव । प्रियान् । अधूषत । अस्तोषत । स्वऽभानव: । विप्रा: । यविष्ठा: । ईमहे ॥४.६१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 61

    भावार्थ -
    (स्वभानवः) स्वयंप्रकाश, ज्ञानी (विप्राः) मेघावी पुरुष जब उस परम ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त सोम रस को (अक्षन्) आस्वादन करते हैं तब वे (अमीमदन्त) निरन्तर तृप्त रहा करते हैं, तब ही वे अपने (प्रियान्) प्रिय शरीर के भोगों को (अधूषत) कपांकर झाड़ देते हैं वे अपने कर्म बन्धनों और हार्दिक मलों का त्यागकर अवधूत पापरहित हो जाते हैं और (अस्तोषत) पर ब्रह्म की स्तुति करते हैं। और उन ज्ञानी पुरुषों के पास हम (यविष्ठाः) अति तुच्छ, न्यून ज्ञानवाले पुरुष (ईमहे) उनको प्राप्त होकर ज्ञान की याचना करते हैं। सायण ने इस मन्त्र से पितरों को पेट भर पिण्डे खिलायें हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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