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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्विष्टारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यं त्वा॑ दे॒वासो॒ मन॑वे द॒धुरि॒ह यजि॑ष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो॒ मेध्या॑तिथिर्धन॒स्पृतं॒ यं वृषा॒ यमु॑पस्तु॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । दे॒वासः॑ । मन॑वे । द॒धुः । इ॒ह । यजि॑ष्ठम् । ह॒व्य॒ऽवा॒ह॒न॒ । यम् । कण्वः॑ । मेध्य॑ऽअतिथिः । ध॒न॒ऽस्पृत॑म् । यम् । वृषा॑ । यम् । उ॒प॒ऽस्तु॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । देवासः । मनवे । दधुः । इह । यजिष्ठम् । हव्यवाहन । यम् । कण्वः । मेध्यअतिथिः । धनस्पृतम् । यम् । वृषा । यम् । उपस्तुतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (यम्) मननशीलम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (मनवे) मननयोग्याय राजशासनाय (दधुः) दध्यासुः। अत्र लिङर्थे लिट्। (इह) अस्मिन् संसारे (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (हव्यवाहन) हव्यान्यादातु-मर्हाणि वसूनि वहति प्राप्नोति तत्संबुद्धौ सभ्यजन (यम्) शिक्षितम् (कण्वः) मेधावीजनः (मेध्यातिथिः) मेध्यैरतिथिभिर्युक्तोऽध्यापकः (धनस्पृतम्) धनैर्विद्यासुवर्णादिभिः स्पृतः प्रीतः सेवितस्तम् (यम्) सुखस्य वर्षकम् (वृषा) विद्यावर्षकः (यम्) स्तोतुमर्हम् (उपस्तुतः) उपगतः स्तौति स उपस्तुतो विद्वान्। अत्र स्तुधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्तः प्रत्ययः ॥१०॥

    अन्वयः

    मनुष्याः कीदृशं सभेशं कुर्य्युरित्याह।

    पदार्थः

    हे हव्यवाहन यं यजिष्ठं त्वा त्यां देवासो मनव इह दधुर्दधति। यं धनस्पृतं त्वा त्वां मेध्यातिथिः कण्वो दधे। यं त्वा त्वां वृषादधे। यं त्वा त्वामुपस्तुतो दधे तं त्वां वयं सभापतित्वेनाङ्गी कुर्महे ॥१०॥

    भावार्थः

    अस्मिञ्जगति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वांसोऽन्ये च श्रेष्ठपुरुषा मिलित्वा यं विचारशीलमादेयवस्तुप्रापकं शुभगुणाढ्यं विद्यासुवर्णादिधनयुक्तं सभ्यजनं राज्यशासनाय नियुञ्ज्युस्स, एव पितृवत्पालको राजा भवेत् ॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य किस प्रकार के पुरुष को सभाध्यक्ष करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (हव्यवाहन) ग्रहण करने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति करानेवाले सभ्यजन ! (यम्) जिस विचारशील (यजिष्ठम्) अत्यन्त यज्ञ करनेवाले (त्वा) आप को (देवासः) विद्वान् लोग (मनवे) विचारने योग्य राज्य की शिक्षा के लिये (इह) इस पृथिवी में (दधुः) धारण करते (यम्) जिस शिक्षा पाये हुए (धनस्पृतम्) विद्या सुवर्ण आदि धन से युक्त आप को (मेध्यातिथिः) पवित्र अतिथियों से युक्त अध्यापक (कण्वः) विद्वान् पुरुष स्वीकार करता (यम्) जिस सुख की वृष्टि करनेवाले (त्वा) आप को (वृषा) सुखों का फैलानेवाला धारण करता और (यम्) जिस स्तुति के योग्य आप को (उपस्तुतः) समीपस्थ सज्जनों की स्तुति करनेवाला राजपुरुष धारण करता है उन आप को हम लोग सभापति के अधिकार में नियत करते हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    इस सृष्टि में सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् और अन्य सबको चतुर पुरुष मिल के जिस विचारशील ग्रहण के योग्य वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले शुभ गुणों से भूषित विद्या सुवर्णादिधनयुक्त सभा के योग्य पुरुष को राज्य शिक्षा के लिये नियुक्त करें उसी पिता के तुल्य पालन करनेवाला जन राजा होवे ॥१०॥

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    विषय

    मनुष्य किस प्रकार के पुरुष को सभाध्यक्ष करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे हव्यवाहन यं यजिष्ठं त्वा त्यां देवासः मनवः इह दधुः दधति। यं धनस्पृतं त्वा त्वां मेध्यातिथिः कण्वः दधे। यं त्वा त्वां वृषा दधे। यं त्वा त्वाम् उपस्तुतः दधे तं त्वां वयं सभापतित्वेन अङ्गी कुर्महे ॥१०॥

    पदार्थ

    हे  (हव्यवाहन) हव्यान्यादातु-मर्हाणि वसूनि वहति प्राप्नोति तत्संबुद्धौ सभ्यजन=हव्य को ग्रहण करने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम्=अत्यधिक यज्ञ करनेवाले, (त्वा) त्वाम्=आपको, (देवासः) विद्वांसः=विद्वान्, (मनवे) मननयोग्याय राजशासनाय=मनन योग्य राज शासन के लिये, (इह) अस्मिन् संसारे=इस संसार में, (दधति)=धारण करते हैं, (यम्) शिक्षितम्=शिक्षित को, (धनस्पृतम्) धनैर्विद्यासुवर्णादिभिः स्पृतः प्रीतः सेवितस्तम्=प्रसन्नतापूर्वक बचाये हुए धन, विद्या सुवर्ण आदि धन से,  (त्वा) त्वाम्=आप को,  (मेध्यातिथिः) मेध्यैरतिथिभिर्युक्तोऽध्यापकः= यज्ञ के अतिथियों से युक्त अध्यापक, (कण्वः)= प्रतिभाशाली, बुद्धिमान, (दधे)=धारण करते हुए, (यम्) सुखस्य वर्षकम्=सुख की वर्षा करनेवाले (त्वा) त्वाम्=आप, (वृषा) विद्यावर्षकः=विद्या के वर्षक अर्थात् विद्या प्रदान करनेवाले, (दधे)=धारण करने में, (यम्) स्तोतुमर्हम्=स्तुति के योग्य,  (त्वा) त्वाम्=आप, (उपस्तुतः) उपगतः स्तौति स उपस्तुतो विद्वान्=समीपस्थ सज्जनों की स्तुति करनेवाला विद्वान्, (दधे)=धारण करता है, (तम्)=उन, (त्वाम्)=आप को, (वयम्)=हम लोग,  (सभापतित्वेन)=सभापति के, (अङ्गी)=अङ्गी [भाग के रूप में] (कुर्महे)=नियत करते हैं ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस सृष्टि में सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् और अन्य सबको चतुर पुरुष मिल के जिस विचारशील ग्रहण के योग्य वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले शुभ गुणों से भूषित विद्या स्वर्ण आदि धन से युक्त  सभा के योग्य पुरुष को राज्य शिक्षा के लिये नियुक्त करें। उसी पिता के तुल्य पालन करनेवाला जन राजा होवे ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (हव्यवाहन) हव्य को ग्रहण करने योग्य वस्तुओं की प्राप्ति करनेवाले [और] (यजिष्ठम्) अत्यधिक यज्ञ करनेवाले, (त्वा) आपको (देवासः) विद्वान् (मनवे) मनन योग्य राज शासन के लिये (इह) इस संसार में (दधति) धारण करते हैं, (यम्) जिस शिक्षित को (धनस्पृतम्) प्रसन्नतापूर्वक बचाये हुए धन, विद्या, सुवर्ण आदि धन से  (त्वा) आप को (मेध्यातिथिः) यज्ञ के अतिथियों से युक्त अध्यापक और  (कण्वः)  प्रतिभाशाली, बुद्धिमान लोगों को (दधे) धारण करते हुए, (यम्) सुख की वर्षा करनेवाले, (त्वा) आप विद्या के वर्षक अर्थात् विद्या प्रदान करने वाले हैं। (दधे)  धारण करने में (यम्) स्तुति के योग्य (त्वा) आप, (उपस्तुतः) समीप में स्थित सज्जनों की स्तुति करनेवाले को विद्वान् (दधे) धारण करते है। यज्ञ के अतिथियों से युक्त अध्यापक, प्रतिभाशाली, बुद्धिमान को (दधे) धारण करते हुए (त्वाम्)  आप (यम्) सुख की वर्षा करने वाले, विद्या के वर्षक अर्थात् विद्या प्रदान करने वाले हैं। (यम्) जिस शिक्षित को, प्रसन्नतापूर्वक बचाये हुए धन, विद्या, सुवर्ण आदि धन से, (त्वाम्)  आप को (वयम्) हम लोग (सभापतित्वेन)   सभापति के (अङ्गी) से संबंधित अङ्ग के रूप में (कुर्महे) नियत करते हैं ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यम्) मननशीलम् (त्वा) त्वाम् (देवासः) विद्वांसः (मनवे) मननयोग्याय राजशासनाय (दधुः) दध्यासुः। अत्र लिङर्थे लिट्। (इह) अस्मिन् संसारे (यजिष्ठम्) अतिशयेन यष्टारम् (हव्यवाहन) हव्यान्यादातु-मर्हाणि वसूनि वहति प्राप्नोति तत्संबुद्धौ सभ्यजन (यम्) शिक्षितम् (कण्वः) मेधावीजनः (मेध्यातिथिः) मेध्यैरतिथिभिर्युक्तोऽध्यापकः (धनस्पृतम्) धनैर्विद्यासुवर्णादिभिः स्पृतः प्रीतः सेवितस्तम् (यम्) सुखस्य वर्षकम् (वृषा) विद्यावर्षकः (यम्) स्तोतुमर्हम् (उपस्तुतः) उपगतः स्तौति स उपस्तुतो विद्वान्। अत्र स्तुधातोर्बाहुलकादौणादिकः क्तः प्रत्ययः ॥१०॥
    विषयः- मनुष्याः कीदृशं सभेशं कुर्य्युरित्याह।

    अन्वयः- हे हव्यवाहन यं यजिष्ठं त्वा त्यां देवासो मनव इह दधुर्दधति। यं धनस्पृतं त्वा त्वां मेध्यातिथिः कण्वो दधे। यं त्वा त्वां वृषादधे। यं त्वा त्वामुपस्तुतो दधे तं त्वां वयं सभापतित्वेनाङ्गी कुर्महे ॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिञ्जगति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वांसोऽन्ये च श्रेष्ठपुरुषा मिलित्वा यं विचारशीलमादेयवस्तुप्रापकं शुभगुणाढ्यं विद्यासुवर्णादिधनयुक्तं सभ्यजनं राज्यशासनाय नियुञ्ज्युस्स, एव पितृवत्पालको राजा भवेत् ॥१०॥

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    विषय

    उपस्तुत

    पदार्थ

    १. हे (हव्यवाहन) - हव्यः दानपूर्वक अदन के योग्य अथवा पवित्र पदार्थों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! आप वे हैं (यम्) - जिन (यजिष्ठम्) - सर्वोत्तम, पूजा के योग्य (त्वा) - आपको (देवासः) - देववृत्तिवाले लोग (इह) - इस मानव - जीवन में (मनवे) - मनुष्यमात्र के हित के लिए अथवा ऊँचे - से - ऊँचा ज्ञान प्राप्त करने के लिए (दधुः) - धारण करते हैं । प्रभु को हृदय में धारण करने पर मनुष्य सबके साथ बन्धुत्व को अनुभव करता है, अतः सभी के हित में प्रवृत्त होता है । प्रभु के हृदयस्थ होने पर हमारा हृदय ज्ञान से दीप्त हो उठता है । 
    २. प्रभु वे हैं (यं धनस्पृतम्) - जिन सब धनों से प्रीणित करनेवाले को (कण्वः) - मेधावी पुरुष धारण करता है । 
    ३. प्रभु वे हैं (यम्) - जिनको (वृषा) - शक्तिशाली पुरुष और शक्ति के द्वारा सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला पुरुष धारण करता है । 
    ४. प्रभु वे हैं (यम्) - जिनको (उपस्तुतः) - [उपगतः स्तौति, द०] प्रभु की उपासना करता हुआ स्तुति करता है, वह धारण करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को धारण वह करता है जो ‘देव, कण्व, मेध्यातिथि, वृषा व उपस्तुत' है । प्रभु ज्ञान देनेवाले व धनों से प्रीणित करनेवाले हैं ।
     

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    विषय

    राजा को विद्वानों का साहाय्य ।

    भावार्थ

    (देवासः) विद्वान् पुरुष (यं) जिसको (यजिष्ठम्) अति पूजनीय (वा) तुझको (इह) इस लोक में (मनवे) मनन करने के कार्य, राज्यशासन पद पर (दधुः) स्थापित करते हैं और हे (हव्यवाहन) ग्रहण करने योग्य ऐश्वर्य और उत्तम गुणों को धारण करने वाले (यं) जिस ऐश्वर्य से पूर्ण तुझको (कण्वः) विद्वान् (मेध्यातिथिः) सत्संग करने योग्य पूज्य अतिथियों वाला गृहस्थ और (यं) जिसको (वृषा) शत्रु पर बाण वर्षण करने वाला वीर योद्धा और (यम् उपस्तुतः) जिसको स्तुति करने वाला विद्वान् और (यम्) जिस (अग्निम्) अग्रणी नायक पुरुष को (मेध्यातिथिः कण्वः) उत्तम संगत होनेवाले अतिथि रूप शिष्यों से युक्त विद्वान् पुरुष (ऋतात् अधि) मेघमण्डलस्थ जल के ऊपर विद्यमान सूर्य के समान (ऋतात् अधि) सत्य व्यवहार और राज्य शासन के सत्य व्यवस्था या नियम समूह के भी ऊपर (ईधे) प्रज्वलित करते और (दधुः) स्थापित करते हैं (तस्य) उस तेरी (इषः) प्रेरित आज्ञाएं और राज्य प्रबन्ध की व्यवस्थायें (प्र दीदियुः) उज्वल रूप में चमकती और सत्य न्याय का प्रकाश करती हैं। (तम्) उस तुझ (अग्निम्) अग्रणी नायक को (इमाः ऋचः) ये वेदमन्त्र और हम प्रजानन (वर्धयन्ति) बढ़ाते हैं, गुण वर्णन द्वारा उसके कर्तव्य और साहस को बढ़ावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या सृष्टीत सर्व माणसांनी विद्वान व इतर सर्व श्रेष्ठ चतुर पुरुषांनी मिळून ज्या विचारशील ग्रहण करण्यायोग्य वस्तूंना प्राप्त करविणाऱ्या शुभ गुणांनी भूषित विद्या सुवर्ण इत्यादी धनयुक्त सभेच्या योग्य पुरुषाला राज्य शिक्षणासाठी नियुक्त करावे तोच पित्याप्रमाणे पालन करणारा राजा असावा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and fire, most dedicated to yajna, loved and honoured, creator and harbinger of the noblest wealth of life, you — whom the brilliant, intelligent and generous people accepted for enlightened rule, whom the scholars and teachers with their disciples and yajnic friends accepted as the man of wealth and knowledge, whom the generous pious people accepted, whom the popular and respected people accepted — such as you are, we accept, elect, appoint and consecrate you as the ruler and commander of the nation.

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    Subject of the mantra

    Whom should men appoint as chairperson of the assembly? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (havyavāhana)=recipient of things acceptable to Havya, (substances of offerings in sacrifice)! [aura]=and, (yajiṣṭham)=performer of yagya excessively, (tvā)=to you. (devāsaḥ) =scholars, (manave)= for contemplative rule, (iha)=in this world, (dadhati)=possess, (yam)= to educated, (dhanaspṛtam)= By happily saved money, knowledge, gold etc. (tvā)=to you, (medhyātithiḥ)= teacher with guests of yajna, (kaṇvaḥ)= talented, intelligent, (dadhe)=having, (yam)=showering happiness, (tvā)=to you, (vṛṣā)= showering knowledge, in other words bestower of knowledge, (dadhe)=in possessing, (yam)= worthy of praise, (tvā)=you, (upastutaḥ)= scholar who praises gentlemen in his proximity, (dadhe)=possess, (tam)=that, (tvām)=you, (vayam)=we, (sabhāpatitvena)=of chairperson of the assembly, (aṅgī)= as division, (kurmahe)= set out.

    English Translation (K.K.V.)

    O recipient of things acceptable to Havya (substances of offerings in sacrifice)! You are held in this world for the rule of scholarly contemplation; the educated who happily saves you with wealth, knowledge, gold etc., the teacher consisting of the guests of the Yajan and possessing talented, intelligent people, showering happiness. You are the provider of shower of knowledge, that is, the one who bestows knowledge. You are worthy of praise in possessing it, the scholars possess the one who praises the gentlemen situated nearby. You are the giver of happiness, the giver of knowledge, that is, the one who bestows knowledge, possessing the teacher consisting of the guests of the yajan and the talented, intelligent persons. The educated one, who is happily saved with wealth, knowledge, gold etc., we appoint you as a member related to the chairman.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this world, all human beings, scholars and other noble men, should appoint civilized people with wealth, knowledge, gold etc. to rule the kingdom. In the same way, the king who nourishes like the father should be.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Whom should men elect as the President of the Assembly or the State is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O bearer of acceptable wealth, we accept you as the President of the Assembly (or the council of ministers) who are the most liberal donor and performer of Yajnas, whom learned persons choose for the well-considered administration of the State, who are endowed with the wealth of wisdom and gold, upheld or supported by teachers having holy guests, whom a showerer of knowledge supports as you are Rainer down of happiness and whom an admirer of nobility or virtues whole-heartedly supports.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मनवे) मननयोग्याय राजशासनाय = For the administration of the State which should be well considered. (वृषा) विद्यावर्षक: = The showerer of knowledge. (उपस्तुतः) उपगतः स्तौति सा उपस्तुतो विद्वान अत्र स्तुधार्बाहुलकादौणादिकः क्तः प्रत्ययः | = He who advises well when approached.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The man whom all learned and other righteous persons. appoint as the ruler of the State, because he is thoughtful, the bringer of all articles that are worth-taking, endowed with noble virtues, possessing the wealth of wisdom and gold etc, who is good mannered and civilized, should protect and preserve all people like their father.

    Translator's Notes

    Is is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take words like Manu and Kanva as the names of particular persons. It is against the principles of the Vedic terminology which takes all words as derivative or Yaugikas. In the Vedic Lexicon Nighantu 3.15 it is clearly stated कण्व इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५ )| The word Manu is from मन ज्ञाने orअव वधे hence according to the context, Rishi Dayananda has interpreted मनवे as मननयोग्याय राजशासनाव It is note-worthy that while even Sayanacharya takes the words मेध्यातिथि, बृषा and उपस्तुत as derivatives and Prof. Wilson follows him. Griffith goes in the wrong direction and mistakenly remarks in the foot-note:- "Medhyatithi: Sayana takes this word to be an epithet of Kanva! entertainer of guests who are worthy sacrifical food. "But it appears to be the name of a Rishi of Kanva's family, the seer of twenty eight of Books VIII and IX. Griffith further remarks, “Vrishan, and Upastuta, rendered by Wilson after Sayana "Indra and some other worshipper are also apparently the names of the two other Rishis." mansa All this audacious interpretation is opposed to the Meemansa aphorisms. आख्याप्रवचनात् परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम् (मीमांसा १.३१.३३) as quoted by Shri Sayanacharya also in his Introduction.

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