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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः

    सं सी॑दस्व म॒हाँ अ॑सि॒ शोच॑स्व देव॒वीत॑मः । वि धू॒मम॑ग्ने अरु॒षं मि॑येध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । सी॒द॒स्व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । शोच॑स्व । दे॒व॒ऽवीत॑मः । वि । धू॒मम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒रु॒षम् । मि॒ये॒ध्य॒ । सृ॒ज । प्र॒ऽश॒स्त॒ । द॒र्स॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । सीदस्व । महान् । असि । शोचस्व । देववीतमः । वि । धूमम् । अग्ने । अरुषम् । मियेध्य । सृज । प्रशस्त । दर्सतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (सम्) सम्यगर्थे (सीदस्व) दोषान् हिन्धि। व्यत्ययेनात्र त्मनेपदम् (महान्) महागुणविशिष्टः (असि) वर्त्तसे (देववीतमः) देवान् पृथिव्यादीन् वेत्ति व्याप्नोति (शोचस्व) प्रकाशस्व। शुचिदीप्तावित्यस्माल्लोट् (देववीतमः) यो देवान् विदुषो व्याप्नोति सोतिशयितः (वि) (धूमम्) धूमसदृशमलरहितम् (अग्ने) तेजस्विन् सभापते (अरुषम्) सुन्दररूपयुक्तम्। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३।७। (मियेध्य) मेधाई अयं प्रयोगः पृषोदरादिना अभीष्टः सिद्ध्यति। (सृज) (प्रशस्त) प्रशंसनीय (दर्शतम्) द्रष्टुमर्हम् ॥९॥

    अन्वयः

    अथ सभापतेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे तेजस्विन् मियेध्याग्ने सभापते यस्त्वं महानसि स सभापते देववीतमः सन्न्याये संसीदस्व शोचस्व हे प्रशस्त राजँस्त्वमत्र विधूमं दर्शतमरुषं सृजोत्पादय ॥९॥

    भावार्थः

    मेधाविनो राजपुरुषा अग्निवत् तेजस्विनो महागुणाढ्या भूत्वा दिव्यगुणानां पृथिव्यादिभूतानां तत्त्वं विज्ञाय प्रकाशमानाः सन्तो निर्मलं दर्शनीयं रूपमुत्पादयेयुः ॥९॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब अगले मंत्र में सभापति के गुणों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (तेजस्विन्) विद्याविनययुक्त (मियेध्य) प्राज्ञ (अग्ने) विद्वन् सभापते ! जो आप (महान्) बड़े-२ गुणों से युक्त (असि) हैं सो (देववीतमः) विद्वानों को व्याप्त होने हारे आप न्याय धर्म में स्थित होकर (संसीदस्व) सब दोषों का नाश कीजिये और (शोचस्व) प्रकाशित हूजिये हे (प्रशस्त) प्रशंसा करने योग्य राजन् आप (विधूमम्) धूम सदृश मल से रहित (दर्शतम्) देखने योग्य (अरुषम्) रूपको (सृज) उत्पन्न कीजिये ॥९॥

    भावार्थ

    प्रशंसित बुद्धिमान् राज पुरुषों को चाहिये कि अग्नि समान तेजस्वि और बड़े-२ गुणों से युक्त हों और श्रेष्ठ गुणवाले पृथिवी आदि भूतों के तत्त्व को जानके प्रकाशमान होते हुए निर्मल देखने योग्य स्वरूपयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करें ॥९॥

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    विषय

    अब इस मंत्र में सभापति के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे तेजस्विन् मियेध्या अग्ने सभापते यः त्वं महान् असि स सभापते देववीतमः सन् न्याये  सं सीदस्व शोचस्व हे प्रशस्त राजन् त्वम् अत्र वि धूमं दर्शतम् अरुषम् सृज उत्पादय ॥९॥

    पदार्थ

    हे (तेजस्विन्) तेजस्वी (मियेध्य) मेधार्ह=मेधावी (अग्ने) तेजस्विन् सभापते=सभापति, (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (महान्) महागुणविशिष्टः=महान् विशिष्ट गुण वाले,  (असि) वर्त्तसे=हो। (सः)=वह (सभापते)=सभापति, (देववीतमः+सन्) देवान् पृथिव्यादीन् वेत्ति व्याप्नोति यो देवान् विदुषो व्याप्नोति सोतिशयितः=देवों पृथिवी आदि में व्याप्त है और देव और विद्वान् जिसमें में व्याप्त होते हुए (न्याये) सम्यगर्थे=सम्यक रूप से, (सीदस्व) दोषान् हिन्धि=दोषों को समाप्त करता है। हे (प्रशस्त) प्रशंसनीय=प्रशंसनीय,  (राजन्)=राजा, (त्वम्)=तुम, (अत्र)=यहाँ,  (वि)=विशेष रूप से, (धूमम्) धूमसदृशमलरहितम्=धुएँ के समान मल रहित, (दर्शतम्) द्रष्टुमर्हम्=दिखने के योग्य हो। (अरुषम्) सुन्दररूपयुक्तम्= सुन्दर रूप से युक्त को, (सृज) उत्पादय= उत्पन्न कीजिये ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    प्रशंसित बुद्धिमान् राज पुरुषों को चाहिये कि अग्नि समान तेजस्वी और बड़े-बड़े गुणों से युक्त हों और श्रेष्ठ गुणवाले पृथिवी आदि भूतों के तत्त्व को जान करके प्रकाशमान होते हुए निर्मल देखने योग्य स्वरूपयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करें ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (तेजस्विन्) तेजस्वी [और] (मियेध्य) मेधावी (अग्ने) सभापति! (यः) जो (त्वम्) तुम (महान्) महान् विशिष्ट गुण वाले  (असि) हो। (सः) वह (सभापते) सभापति (देववीतमः+सन्) देवों, पृथिवी आदि में व्याप्त हैं और देव और विद्वान् इसी में व्याप्त होते हुए [यह] (न्याये) सम्यक रूप से (सीदस्व) दोषों को समाप्त करता है। हे (प्रशस्त) प्रशंसनीय  (राजन्) राजा! (त्वम्) तुम (अत्र) यहाँ  (वि) विशेष रूप से (धूमम्) धुएँ के समान मल रहित (दर्शतम्) दिखने के योग्य हो। (अरुषम्) सुन्दर रूप से युक्त [सृष्टि आदि] को (सृज) उत्पन्न कीजिये ॥९॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे (सीदस्व) दोषान् हिन्धि। व्यत्ययेनात्र त्मनेपदम् (महान्) महागुणविशिष्टः (असि) वर्त्तसे (देववीतमः) देवान् पृथिव्यादीन् वेत्ति व्याप्नोति (शोचस्व) प्रकाशस्व। शुचिदीप्तावित्यस्माल्लोट् (देववीतमः) यो देवान् विदुषो व्याप्नोति सोतिशयितः (वि) (धूमम्) धूमसदृशमलरहितम् (अग्ने) तेजस्विन् सभापते (अरुषम्) सुन्दररूपयुक्तम्। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३।७। (मियेध्य) मेधाई अयं प्रयोगः पृषोदरादिना अभीष्टः सिद्ध्यति। (सृज) (प्रशस्त) प्रशंसनीय (दर्शतम्) द्रष्टुमर्हम् ॥९॥ 
    विषयः- अथ सभापतेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे तेजस्विन् मियेध्याग्ने सभापते यस्त्वं महानसि स सभापते देववीतमः सन्न्याये संसीदस्व शोचस्व हे प्रशस्त राजँस्त्वमत्र विधूमं दर्शतमरुषं सृजोत्पादय ॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मेधाविनो राजपुरुषा अग्निवत् तेजस्विनो महागुणाढ्या भूत्वा दिव्यगुणानां पृथिव्यादिभूतानां तत्त्वं विज्ञाय प्रकाश मानाः सन्तो निर्मलं दर्शनीयं रूपमुत्पादयेयुः ॥९॥

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    विषय

    अरुष व दर्शत ज्ञान

    पदार्थ

    १. (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (संसीदस्व) - आप कृपा करके हमारे हृदयदेश में विराजमान होइए । (महान्) - आप महान् (असि) - हैं । आप हमसे पूजा के योग्य हैं । (शोचस्व) - आप हमारे हृदयों को पवित्र व दीप्त करनेवाले होइए । (देववीतमः) - अधिक - से - अधिक [तम] दिव्य गुणों को [देव] प्राप्त करानेवाले [वी] होइए । 
    २. हे अग्ने ! (मियेध्य) - मेधार्ह [मेधृ संगमे] संगम के योग्य प्रभो ! प्रशस्त उत्कृष्ट गुणोंवाले प्रभो ! आप (धूमम्) - [धू कम्पने] सब बुराइयों को कम्पित करके दूर करनेवाले ज्ञान को (विसृज) - विशेष रूप से उत्पन्न कीजिए । उस ज्ञान को जोकि (अरुषम्) - [आरोचमानम्] खूब ही देदीप्यमान है तथा हमें क्रोधशून्य बनानेवाला है तथा (दर्शतम्) - दर्शनीय व सुन्दर है या आत्मतत्त्व का दर्शन करानेवाला है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हृदय में विराजते हैं तो यह हृदयदेश चमक उठता है । इसमें उस ज्ञान का प्रकाश होता है जोकि देदीप्यमान व दर्शनीय होता हुआ सब बुराइयों को दूर कर देता है । 
     

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    विषय

    राजा की अग्नि के समान तेजस्वी स्थिति ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी नायक! राजन्! तू (देववीतमः ) समस्त तेजस्वी पदार्थों में अति अधिक कान्तिमान्, सूर्य और अग्नि के समान राजाओं और विद्वानों में सबसे अधिक तेजस्वी होकर (सं सीदस्व) अच्छी प्रकार सिंहासन पर विराज। तू (महान् असि) सबसे बड़ा है। तू (शोचस्व) अग्नि के समान चमक। हे (मियेध्य) मेधाविन्! एवं संगति करने योग्य! हे (प्रशस्त) उत्तम रूप से प्रशंसित! तू (अरुषं) रोषरहित (दर्शतम्) दर्शनीय, उत्तम (धूमम्) अग्नि के धूम के समान शत्रु को कंपाने वाले बल को (वि सृज) विविध प्रकार से उत्पन्न कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

     वैदिक मन्त्र
    सं सीदस्व महॉं असि, शोचस्व देववीतम:। 
    वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य, सृज प्रशस्त दर्शतम्
                               ‌‌‌‌    ‌‌‌‌               ऋ॰१.३६.९
                        वैदिक भजन ११४५ वां
                            मिश्र अहीर भैरव
                       गायन समय प्रातः ४ से ७
                          ताल रूपक साथ मात्रा
                                भाग १
    हे अग्ने तू है महान
    है प्रभाव अमृत समान
    बन जा आभावान। ।। 
    प्रकट करते हैं उद्गार 
    आत्मा में तेरा अवतार 
    आत्मन् तू पहचान 
    हे अग्ने............ 
    तेरा निरुद्देश्य  जीवन 
    हो ना जाए व्यर्थ व्यतीत 
    जैसे-तैसे कर्म करके 
    जाए ना जीवन यूं बीत 
    प्राप्त करने योग्य ना है 
    ऐसे जीवन का निधान 
    यह है मृत्यु समान 
    हे अग्ने......... 
    अपने अन्दर जो छिपी है 
    शक्ति को पहचान तू 
    तू महान है महिमावान है
    प्राप्त कर परिस्थान तू 
    देव-वी-तम बन जा तू 
    और बन जा तू गुणवान 
    बन जा प्रतिभावान 
    हे अग्ने.......... 
    तू आदर्श पुरुष ही बनना 
    अग्नि का कर ले आधान 
    होगा तेरा यशोगान 
    हे आत्मन् ! बन कीर्तिमान 
    जग में पा ले उत्तम स्थान 
    हे प्यारे याज्ञिक यजमान ! 
    लेके वेद का ज्ञान 
    हे अग्ने....... 
                          ‌‌‌‌     भाग २
    हे अग्ने तू है महान 
    है प्रभाव अमृत समान 
    बन जा आभावान 
    प्रकट करते हैं उद्गार 
    आत्मा में तेरा अवतार 
    आत्मन् तू पहचान 
    हे अग्ने........ 
    जैसे अग्नि यज्ञ कुण्ड में 
    स्थिति बनाता है विस्तृत 
    ऐसे तू भी समाज में 
    करते जाना विकास नित
    हे अग्ने तू मेध्य है 
    हिंसा और संगम का कर
    तू अकत अनुकाम 
    हे अग्ने........ 
    कर अशुभ वृत्तियों की हिंसा 
    और संगम शुभवृत्तियों का 
    कर संहार तू पाप- अधर्म का
    और संगम शुभकृतियों का 
    हे आत्मन् तू प्रशस्त है 
    जीवों में उत्कृष्ट है तू 
    पा उचित सम्मान 
    हे अग्ने........... 
    वश में ना हो प्रकृति के तू 
    शोचनीय स्थिति ना बन 
    अरुष दर्शत भाव जगा
    प्राप्त कर उन्नत जीवन 
    हे अग्ने! आत्मन् मानव 
    ललित-आभा का कर प्रतान 
    सुगन्धमय अभ्यातान
    हे अग्ने........... 
                        १३.९.२०२३
                          ८.०० रात्रि
    अभावान= चमक से भरा 
    उद्गार= दिल में भरी बात का बाहर आना 
    निधान= आधार 
    परिस्थान दृढ़ता मजबूती 
    देववीतम=अतिशय दिव्य गुणों को प्राप्त करने वाला आधान= सुरक्षित रखना 
    ललित=सुन्दर
    मेध्य= पवित्र आत्मा यज्ञ के योग्य 
    अकत=सारा,  समूचा 
    अनुकाम =योग्य इच्छा 
    प्रशस्त= प्रशंसनीय 
    शोचनीय= दु:ख उत्पन्न करने वाला 
    अरुष= अहिंसनीय 
    दर्शत= दर्शनीय दर्शन करने योग्य 
    प्रतान= फैलाव 
    अभ्यातान= फैलाव
    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रृंखला का १३८ वां वैदिक भजन
    और अब तक का ११४५ वां वैदिक भजन🌹🙏
    🕉वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🌹🙏

    Vyakhya

    सर्वत्र अपना प्रभाव छोड़
    हे अग्नि! तू महान है तू यज्ञ कुंड में सम्यक प्रकार से स्थित हो, चमक। अपने आरोचमान दर्शनीय धूम को छोड़। यह उद्गार हम यज्ञ अग्नि को सम्बोधित करते हुए प्रकट कर रहे हैं। पर वस्तुतः अग्नि की अन्योक्ति द्वारा वेद मनुष्य के आत्मा को प्रेरित कर रहा है। हे आत्मन् तू अपने स्वरूप को पहचान अपने अन्दर छिपी हुई शक्ति का आंकलन कर । तू महान है महिमावान है, तू और भी अधिक महिमा को प्राप्त कर । तू 'देव- वी-तम' बन। दिव्य गुण रूप देवों को प्राप्त करने वाला' देव-वी' कहलाता है। तू साधारण 'देव-वी' नहीं है, कितु सर्वातिशायी 'देव वी' बन। तेरे अन्दर विविध दिव्य गुण का ऐसा निवास हो,कि उन दिव्य गुण का तू आदर्श पुरुष कहलाने लगे। जब तू ऐसा आदर्श दिव्यगुणी पुरुष बन जाएगा तब तू जगत में चमकेगा। सर्वत्र तेरा गुणगान और यशोगान होगा। हे आत्मन्! हे मानव!, तू संसार में अपनी विशेष स्थिति बना। यूं ही जैसे- तैसे निरुद्देश्य जीवन व्यतीत कर देना और समय आने पर मृत्यु का ग्रास हो जाना स्पृहणीय वस्तु नहीं है। जैसे अग्नि यज्ञ कुण्ड में अपनी स्थिति बनता है और वहां से बहु ज्वाला होकर विस्तार होता है, वैसे ही तू समाज में अपनी विशेष स्थिति बनाकर अपना और अपने संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों का विकास कर। 
    हे आत्मन् ते 'मियेद्य'है, मेद्य है, पवित्र और मेधार्ह
     (यज्ञ के योग्य ) है। जो मेधार्ह होता है वह हिंसा और संगम दोनों कार्यों को करता है। अतः तुझे भी अशुभ 
    वृत्तियों की हिंसा और शुभ वृतियों के साथ संगम करना है। साथ ही समझ में पनप रहे पाप और धर्म का संघर्ष करके पुण्य कर्म एवं धर्म के साथ लोगों का संगम करना है। हे आत्मन् तू प्रशस्त है, जड़ प्रकृति की अपेक्षा उत्कृष्ट है। अपनी उसे उत्कृष्ट को भी तू अक्षुण्ण बनाये रख। 
    तू प्रकृति के वश में होकर शोचनीय स्थिति को मत प्राप्त हो। जहां भी तू जाए वहां अपने 'अरुष'(दुर्दम्य एवं आरोचमान) तथा दर्शत (दर्शनीय) प्रभाव को छोड़ जैसे अग्नि धूम शिखा को छोड़ती है। तेरे दिव्य जीवन की छाप अन्यों पर पढ़नी चाहिए, तुममें उठने वाले सुगन्धमय धूम से वातावरण प्रभावित होना चाहिए। हे अग्नि !है आत्मन्! है मानव! तू चमक अपनी आभा को सर्वत्र प्रसारित कर। 

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रशंसित बुद्धिमान राजपुरुषांनी अग्नीप्रमाणे तेजस्वी व मोठमोठ्या गुणांनी युक्त व्हावे व श्रेष्ठ गुणयुक्त पृथ्वी इत्यादी भूताच्या तत्त्वाला जाणून प्रकाशमान होऊन शुद्ध पाहण्यायोग्य स्वरूपयुक्त पदार्थांना उत्पन्न करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, Lord of light and power, brilliant, admirable, adorable, divinely superb, you are great. Come be seated, wipe out evil, shine and create the light without smoke, and beauty most sublime.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra, the virtues of the president of assembly have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tejasvin)=magnificent, (miyedhya)=brilliant, [aura]=and, (agne)=powerful chairperson of the Assembly, (yaḥ)=which, (tvam)=you, (mahān)=being great having special qualities, (asi)=are, (saḥ)=that, (sabhāpate)= chairperson of the Assembly , (devavītamaḥ+ san)= deities are pervaded in the earth etc. and the deities and the learned being pervaded in, [yaha]=this, (nyāye)=thoroughly, (sīdasva)= eliminates blemishes, (praśasta)= worthy, (rājan)=king, (tvam)=you, (atra)=here, (vi)=in aspecial way, (dhūmam)=without dirt like smoke, (darśatam) = deserve to be seen, (aruṣam)= beautifully composed creation etc., [sṛṣṭi ādi]= the world etc. (sṛja) Create.

    English Translation (K.K.V.)

    O Magnificent, brilliant and powerful chairperson of the assembly! As, You are great having special qualities. He pervades the chairmen, deities, earth, etc. and being pervaded in the deities and the scholars, it rightly removes the defects. It eliminates blemishes in a proper way. O king! Be especially worthy of being seen here as smokeless. Create a beautifully composed world et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Admired wise men should be as brilliant as fire and possess great qualities and by knowing the essence of the earth and other beings with excellent qualities, by becoming luminous, produce objects with pure observable nature.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the President of the Assembly are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly intelligent President of the Assembly who are mighty and great, full of splendor, throw away all evils. You, who know the earth and other elements and keep company with the enlightened persons, be established in Justice and shine (on account of your justice, truthfulness and other virtues). O admirable excellent King, Create in this world a form that is free from impurity like the smoke and is worth-seeing.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [संसीदस्व] दोषान् हिन्धि । व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम् । = Destroy or throw away evils. [षद्लृ-विशरणगत्यवसादनेषु ] [विधूमम्] धूमुसदृशमलरहितम्:= Tr. = Free from impurity like the smoke. (अरुषम्) सुन्दररूपयुक्तम् = Beautiful. [ मियेध्य ] मेधार्ह -अयं प्रयोगः पृषोदरादिनाऽभीष्ट: सिद्ध्यति = Highly intelligent or wise.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Highly intelligent officers and workers of the state should be full of splendor like the fire and endowed with great virtues. They should create pure and graceful forms, knowing the real nature of the divine virtues and of the earth and other elements and shining on account of their wisdom.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted अरुषम् as सुन्दररूपयुक्तम् अरुषम् Beautiful. For the meaning of अरुषम् ( Arusham ) as रूप there is the clear authority of the Vedic Lexicon Nighantu 3.7 though Rishi Dayananda has not quoted it here अरुषम् इति रूपानाम(निघ, ३.७ ) In his commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has interpreted मियेध्य as मेधार्ह — Highly intelligent or wise. But there are two other meanings of the word which he has given in his Vedic Commentary, which it is worth while to quote here also. मियेध्यः - दुखानां प्रक्षेप्तः = Thrower away or destroyer of all miseries. [ऋ० १.४४.५] यो मिनोति प्रक्षिपति दुष्टान् तत्सम्बुद्धौ । अत्र बाहुलकात् औौणादिक एध्यप्रत्ययः किच्च। [यजुर्वेद भाष्ये ११.३७] = Overthrower of unrighteous persons. It is derived from डुमिञ-प्रक्षेपणे (स्वादि )

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