Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 20
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वे॒षासो॑ अ॒ग्नेरम॑वन्तो अ॒र्चयो॑ भी॒मासो॒ न प्रती॑तये । र॒क्ष॒स्विनः॒ सद॒मिद्या॑तु॒माव॑तो॒ विश्वं॒ सम॒त्रिणं॑ दह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे॒षासः॑ । अ॒ग्नेः । अम॑ऽवन्तः । अ॒र्चयः॑ । भी॒मासः॑ । न । प्रति॑ऽइतये । र॒क्ष॒स्विनः॑ । सद॑म् । इत् । या॒तु॒ऽमाव॑तः । विश्व॑म् । सम् । अ॒त्रिण॑म् । द॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेषासः । अग्नेः । अमवन्तः । अर्चयः । भीमासः । न । प्रतिइतये । रक्षस्विनः । सदम् । इत् । यातुमावतः । विश्वम् । सम् । अत्रिणम् । दह॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 20
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (त्वेषासः) त्विषन्ति दीप्यन्ते यास्ताः (अग्नेः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (अमवन्तः) निन्दितरोगकारकाः (अर्चयः) दीप्तयः। अर्चिरिति ज्वलतो नामधेयेषु पठितम्। निघं० १।१७। (भीमासः) विभ्यति याभ्यस्ता भयङ्कराः (न) इव (प्रतीयते) सुखप्राप्तये ज्ञानाय वा (रक्षस्विनः) रक्षांसि निन्दिताः पुरुषाः सन्ति येषु व्यवहारेषु ते। अत्र निन्दितार्थे विनिः। (सदम्) सीदंत्यवतिष्ठन्ति यस्मिँस्तत् (इत्) एव (यातुमावतः) यान्ति प्राप्नुवन्ति ये यातवः मत्सदृशा इति मावन्तः। यातवश्च ते मावन्तश्च तान्। अत्र सायणाचार्येण यातुरिति पूर्वपदं मावानित्युत्तरपदं चाविदित्वा यातु# मावत्पदान्मतुप्कृतस्तदिदं पदपाठाद्विरुद्धत्वादशुद्धम् (विश्वम्) सर्वं जगत् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) परपदार्थापहर्त्तारं शत्रुम् (दह) भस्मी कुरु ॥२०॥ #[‘यन्तुमा’ पदात्। सं०]

    अन्वयः

    अथ तं सभेशं प्रति किंकिमुपदिशेदित्याह।

    पदार्थः

    हे तेजस्विन् सभापते त्वमग्नेस्त्वेषासो भीमासोऽर्चयोर्नं येऽमवन्तो रक्षस्विनः सन्ति तानत्रिणं चेदेवं संदह प्रतीतये विश्वंसदं यातुमावतश्चसंरक्ष ॥२०॥

    भावार्थः

    सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः प्रजाजनैश्च यथाऽग्न्यादयः वनादीनि दहन्ति दुष्टाचाराः प्रणिनो विनाशनीयाः एवं प्रयतमानैः सततं प्रजारक्षणं कार्यामति ॥२०॥ अत्र सर्वाभिरक्षकेश्वरस्य दूतदृष्टान्तेन भौतिकाग्नेश्च गुणवर्णनं दूतगुणोपदेशोऽग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणवर्णनं सभापतिकृत्यं सभापतित्वाधिकारिप्रकारोऽग्न्यादिपदार्थोपयोगकरणं मनुष्याणां सभेशस्य प्रार्थना सर्वमनुष्याणां सभाध्यक्षेण सह दुष्टहननं राजपुरुषसहायकेश्वरवर्णनं चोक्तमत एतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सहसंगतिरस्तीति वेदितव्यम्। षट्त्रिंशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥३६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उस सभापति के प्रति क्या-२ उपदेश करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे तेजस्वी सभास्वामिन् ! आप (अग्नेः) सूर्य विद्युत और प्रसिद्ध रूप अग्नि की (त्वेषासः) प्रकाशस्वरूप (भीमासः) भयकारक (अर्चयः) ज्वाला। के (न) समान जो (अमवन्तः) निन्दित रोग करनेवाले (रक्षस्विनः) राक्षस अर्थात् निंदित पुरुष हैं उन और (अत्रिणम्) बल से दूसरे के पदार्थों को हरनेवाले शत्रु को (इत्) ही (संदह) अच्छे प्रकार भस्म कीजिये और (प्रतीतये) विज्ञान वा उत्तम सुख की प्रतीति होने के लिये (विश्वम्) सब (सदम्) संसार तथा (यातुमावतः) मेरे समान होने वालों की रक्षा कीजिये ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में सायणाचार्य ने यातु पूर्वपद और भावान् उत्तर पद नहीं जान (यातुमा) इस पूर्वपद से मतुप् प्रत्यय माना है सो पद पाठ से विरुद्ध होने के कारण अशुद्ध है। सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों और प्रजा के मनुष्यों को चाहिये कि जिस प्रकार अग्नि आदि पदार्थ वन आदि को भस्म कर देते हैं वैसे दुःख देनेवाले शत्रु जनों के विनाश के लिये इस प्रकार प्रयत्न करें ॥२०॥ इस सूक्त में सबकी रक्षा करनेवाले परमेश्वर तथा दूत के दृष्टान्त से भौतिक अग्नि के गुणों का वर्णन दूत के गुणों का उपदेश अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का वर्णन सभापति का कृत्य सभापति होने के अधिकारी का कथन अग्नि आदि पदार्थों से उपयोग लेने की रीति मनुष्यों को सभापति से प्रार्थना सब मनुष्यों को सभाध्यक्ष के साथ मिलके दुष्टों का मारना और राजपुरुषों के सहायक जगदीश्वर के उपदेश से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह छत्तीसवां सूक्त और ग्यारहवां वर्ग समाप्त हुआ ॥३६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब उस सभापति के प्रति क्या-क्या उपदेश करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे तेजस्विन् सभापते त्वम् अग्नेः त्वेषासः भीमासः अर्चयः न ये अमवन्तः रक्षस्विनः सन्ति तान् अत्रिणं च इत् एवं सं दह प्रतीतये विश्वं सदं यातुमावतः च सं  रक्ष ॥२०॥

    पदार्थ

    हे (तेजस्विन्)=तेजस्वी, (सभापते)=सभास्वामिन् !   (त्वम्)=तुम, (अग्नेः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपस्य=सूर्य और विद्युत् के रूप में प्रसिद्ध, (त्वेषासः) त्विषन्ति दीप्यन्ते यास्ताः=जिस से प्रकाश होते हैं, उनको, (भीमासः) विभ्यति याभ्यस्ता भयङ्कराः=भयङ्कर रूप से डराती है। (अर्चयः) दीप्तयः=ज्वाला के, (न) इव=समान, (ये)=जो, (अमवन्तः) निन्दितरोगकारकाः=निन्दित रोगों के कारक है, (रक्षस्विनः) रक्षांसि निन्दिताः पुरुषाः सन्ति येषु व्यवहारेषु ते=जिन व्यवहारों में निन्दित पुरुषों की रक्षा करते हो, वे (तान्)=उन, (अत्रिणम्) परपदार्थापहर्त्तारं शत्रुम्=दूसरों के पदार्थों को हरनेवाले शत्रु को, (च)=भी, (इत्) एवम्=ऐसे ही, (सम्) सम्यगर्थे=पूरी तरह से,  (दह) भस्मी कुरु=भस्म करो, (प्रतीयते) सुखप्राप्तये ज्ञानाय वा=सुख प्राप्त करने के लिये अथवा ज्ञान के लिये, (विश्वम्) सर्वं जगत्=सम्पूर्ण जगत्, (सदम्) सीदंत्यवतिष्ठन्ति यस्मिँस्तत्=जिसमें स्थित है, (यातुमावतः) यान्ति प्राप्नुवन्ति ये यातवः मत्सदृशा इति मावन्तः=जो मेरे समान जाते हैं, उन यात्रियों की, (च)=भी, (सम्) सम्यगर्थे=उचित रूप से, (रक्ष)=रक्षा कीजिये॥२०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों और प्रजा के मनुष्यों को चाहिये कि जिस प्रकार अग्नि आदि पदार्थ वन आदि को भस्म कर देते हैं, वैसे ही दुष्ट आचरण करनेवाले प्राणियों का विनाश करना चाहिए।  ऐसे ही धर्मात्माओं द्वारा निरन्तर प्रजा का रक्षण करना चाहिए ॥२०॥ 

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस सूक्त में सबकी रक्षा करनेवाले परमेश्वर तथा दूत के दृष्टान्त से भौतिक अग्नि के गुणों का वर्णन दूत के गुणों का उपदेश अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का वर्णन सभापति का कृत्य सभापति होने के अधिकारी का कथन किया गया है।  अग्नि आदि पदार्थों से उपयोग लेने की रीति बताई गयी है।  मनुष्यों को सभापति से प्रार्थना का उल्लेख है। सब मनुष्यों को सभाध्यक्ष के साथ मिलके दुष्टों का मारना  चाहिये । राजपुरुषों के सहायक परमेश्वर का वर्णन किया गया है।  उक्त उपदेश से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥२०॥
    मन्त्र पर महर्षिकृत टिप्पणी- इस मंत्र में सायणाचार्य ने यातु पूर्वपद और भावान् उत्तर पद नहीं जान (यातुमा) इस पूर्वपद से मतुप् प्रत्यय माना है सो पद पाठ से विरुद्ध होने के कारण अशुद्ध है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (तेजस्विन्) तेजस्वी  (सभापते) सभा के स्वामिन् !  (त्वम्) तुम (अग्नेः) सूर्य और विद्युत् के रूप में प्रसिद्ध, (त्वेषासः) जिस से प्रकाशित होते हो, उनको, (भीमासः) भयङ्कर रूप से डराती है। (अर्चयः) ज्वाला के, (न) समान (ये) जो (अमवन्तः) निन्दित रोगों के कारक है, (रक्षस्विनः) जिन व्यवहारों में निन्दित पुरुषों की रक्षा करते हो। (तान्) उन (अत्रिणम्) दूसरों के पदार्थों को हरनेवाले शत्रुओं को (च) भी (इत्) ऐसे ही (सम्) पूरी तरह से  (दह) भस्म करो। (प्रतीयते) सुख प्राप्त करने के लिये अथवा ज्ञान के लिये (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् (सदम्) जिसमें स्थित है (च) और (यातुमावतः) जो मेरे समान जाते हैं, उन यात्रियों की (सम्) उचित रूप से (रक्ष) रक्षा कीजिये॥२०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वेषासः) त्विषन्ति दीप्यन्ते यास्ताः (अग्नेः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (अमवन्तः) निन्दितरोगकारकाः (अर्चयः) दीप्तयः। अर्चिरिति ज्वलतो नामधेयेषु पठितम्। निघं० १।१७। (भीमासः) विभ्यति याभ्यस्ता भयङ्कराः (न) इव (प्रतीयते) सुखप्राप्तये ज्ञानाय वा (रक्षस्विनः) रक्षांसि निन्दिताः पुरुषाः सन्ति येषु व्यवहारेषु ते। अत्र निन्दितार्थे विनिः। (सदम्) सीदंत्यवतिष्ठन्ति यस्मिँस्तत् (इत्) एव (यातुमावतः) यान्ति प्राप्नुवन्ति ये यातवः मत्सदृशा इति मावन्तः। यातवश्च ते मावन्तश्च तान्। अत्र सायणाचार्येण यातुरिति पूर्वपदं मावानित्युत्तरपदं चाविदित्वा यातु# मावत्पदान्मतुप्कृतस्तदिदं पदपाठाद्विरुद्धत्वादशुद्धम् (विश्वम्) सर्वं जगत् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) परपदार्थापहर्त्तारं शत्रुम् (दह) भस्मी कुरु ॥२०॥ #['यन्तुमा' पदात्। सं०]
    विषयः- अथ तं सभेशं प्रति किंकिमुपदिशेदित्याह।

    अन्वयः- हे तेजस्विन् सभापते त्वमग्नेस्त्वेषासो भीमासोऽर्चयोर्नं येऽमवन्तो रक्षस्विनः सन्ति तानत्रिणं चेदेवं संदह प्रतीतये विश्वंसदं यातुमावतश्चसंरक्ष ॥२०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः प्रजाजनैश्च यथाऽग्न्यादयः वनादीनि दहन्ति दुष्टाचाराः प्रणिनो विनाशनीयाः एवं प्रयतमानैः सततं प्रजारक्षणं कार्यामति ॥२०॥ 

    सूक्तस्य महर्षिकृत (भावार्थ)- अत्र सर्वाभिरक्षकेश्वरस्य दूतदृष्टान्तेन भौतिकाग्नेश्च गुणवर्णनं दूतगुणोपदेशोऽग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणवर्णनं सभापतिकृत्यं सभापतित्वाधिकारिप्रकारोऽग्न्यादिपदार्थोपयोगकरणं मनुष्याणां सभेशस्य प्रार्थना सर्वमनुष्याणां सभाध्यक्षेण सह दुष्टहननं राजपुरुषसहायकेश्वरवर्णनं चोक्तमत एतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सहसंगतिरस्तीति वेदितव्यम्। षट्त्रिंशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥३६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्ञानदीप्ति व बल

    पदार्थ

    १. (अग्ने) - उस अग्रणी प्रभु की (अर्चयः) - ज्ञानाग्नि की ज्वालाएँ (त्वेषासः) - दीप्त होती हैं और (अमवन्तः) - शक्तिशाली होती हैं । ये ज्ञान की ज्वालाएँ सब वासनाओं के लिए (भीमासः) - भयंकर होती हैं, (प्रतीतये न) - ये ज्वालाएँ लौटने के लिए नहीं हैं [प्रति, इति - गति] अर्थात् वासनाएँ इन ज्ञान - ज्वालाओं को पराजित नहीं कर सकती । वस्तुतः जो भी मनुष्य प्रभु को धारण करता है, वह इन ज्ञानदीप्तियों को धारण कर लेने से चमकता है [त्वेषासः] - शक्तिशाली होता है [अमवन्तः] - इन वासनाओं के लिए भयंकर होता है और इनसे पराजित नहीं होता । २. यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप (रक्षस्विनः) राक्षसी भावनाओं को (सदम् इत्) - सदा ही (यातुमावतः) - पीड़ा का आधान करनेवाली विकृतियों को और (विश्वम्) - हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाले (अत्रिणम्) - हमें खा जानेवाले काम - क्रोध - लोभ को (सन्दह) - सम्यक् भस्म कर दीजिए । ज्ञान की दीप्ति ही इनको भस्मीभूत करनेवाली होती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की ज्ञानदीप्तियों हमें 'दीप्त', सबल व 'शत्रु - भयंकर' बनाती है । ये राक्षसी भावनाओं, पीड़ाकर विकृतियों तथा काम - क्रोध - लोभ को नष्ट कर देती हैं । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ प्रभु के आह्वान से होता है [१] । वे प्रभु हमारे बलों को बढ़ाते हैं [२] । वे सब - कुछ देनेवाले व सम्पूर्ण धनोंवाले हैं [३] । प्रभु का दर्शन द्वेषशून्य, स्नेह - सम्पन्न, जितेन्द्रिय पुरुष को होता है [४] । वे प्रभु ही सूर्यादि के द्वारा हमारा पालन कर रहे हैं [५] । हमारे लिए इन सूर्यादि देवों को शक्तिशाली बनाते हैं [६] । नम्र, त्यागी व विचारशील पुरुषों को प्रभु का प्रकाश दिखता है [७] । वे प्रभुप्रकाश को प्राप्त करनेवाले ही वृत्र [वासना] का विनाश कर पाते हैं [८] । हृदयस्थ प्रभु का प्रकाश सब बुराइयों को दूर कर देता है [९] । प्रभु का धारण देववृत्तिवाले ही करते हैं [१०] । उस प्रभु के प्रकाश के लिए ऋत का पालन आवश्यक है [११] । ये प्रभु हमें प्रशंसनीय बल व धन प्राप्त कराएँगे [१२] । वे ही हमारा रक्षण करते हैं [१३] । हमारे जीवन को उन्नत बनाते हैं [१४] । हमें अहिंसाव्रत में दृढ़ करते हैं [१५] । प्रभु - कृपा से राष्ट्र के शत्रुओं का नाश होता है [१६] । सुवीर्य, सौभग व सुरक्षण प्राप्त होता है [१७] । हम 'तुर्वश व तुर्वीति' बन पाते हैं [१८] । हमें चाहिए कि हम ज्ञानी व क्रियाशील बनें [१९] । प्रभु की दीप्तियों को प्राप्त करके 'काम' का दहन करनेवाले बनें [२०] । अब प्रभुप्राप्ति के लिए मुख्य साधन 'प्राणायाम' का उल्लेख करते हुए कहते हैं -
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    और दुष्टों से प्रजा की रक्षा

    भावार्थ

    (त्वेषासः) अति दीप्ति वाले, तेजस्वी, (अमवन्तः) बलवान्, (अग्नेः) अग्रणी नायक राजा के (भीमासः) अति भयानक पुरुष (प्रतीतये) ज्ञान के लिए (अर्चयः) आग की ज्वाला के समान दीखते हैं। हे राजन्! तू (रक्षस्विनः) दुष्ट राक्षसों के सहायक (यातुमावतः) पीड़ा-दायक पुरुषों के स्वामी लोगों को और (विश्वे) समस्त (अत्रिणं) लूट पाट कर खाने वाले प्रजा पीड़क पुरुषों को (सं दह) भस्म कर। अथवा—(त्वेषासः भीमासः रक्षस्विनः अर्चयः न) जो अतिदीप्त, भयानक राक्षसों के साथी अग्नि की ज्वाला के समान दुःखदायी हैं उनको और (विश्वम् अत्रिणं च सं दह) समस्त प्रजा के खाऊ लोगों को जलादे। और (विश्वं सदं प्रतीतये यातु-मावतः च) समस्त सभास्थान और मेरे जैसे जानेवालों की ज्ञान की वृद्धि के लिए रक्षा कर।

    टिप्पणी

    ‘यातुमावतः’—‘ यातुमाऽवतः’ इतिसायणः । ‘यातुऽमावतः’ इति दयानन्दः। ‘यातुऽमावतः’ इति पदपाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात सायणाचार्य यातु पूर्वपद व मावान् उत्तरपद न जाणून (यातुमा) या पूर्वपदाने मतुप प्रत्यय मानलेला आहे. त्यासाठी पदपाठ विरुद्ध असल्यामुळे अशुद्ध आहे.

    टिप्पणी

    सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुष व प्रजेने हे जाणले पाहिजे की, ज्या प्रकारे अग्नी इत्यादी पदार्थ वनाला भस्म करतात त्या प्रकारे दुःख देणाऱ्या शत्रूंच्या विनाशासाठी प्रयत्न करावेत. ॥ २० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, like blazing and fearful flames of fire, burn all the ailments and destroy all the thieves and demons of the world and, for the knowledge and enlightenment of people like us, protect us and the world.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now, what should He (God) preach to that chairman, this topic has been elucidated in the this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tejasvin)=Majestic, (sabhāpate)=lord of the Assembly, (tvam)=you, (agneḥ)= famous as Surya and Vidyut (thunder), (tveṣāsaḥ)= from whom they are illuminated, [unako]=to them, (bhīmāsaḥ)= horribly intimidate, (arcayaḥ) = of flame, (na)=like, (ye)=those, (amavantaḥ)=is the cause of condemned diseases, (rakṣasvinaḥ)=practices with which you protect condemned men, (tān)=those, (atriṇam)= to the enemies who steal the things of others, (ca)=also, (it)=in the same way, (sam)= completely, (daha)=burn to ashes, (pratīyate)= In order to attain happiness or for knowledge, (viśvam) =the whole world, (sadam)= located in which, (ca)=and, (yātumāvataḥ)= of those passengers who go like me, (sam)= properly, (rakṣa)=protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of the majestic assembly! You, known as the Sun and lightning, frighten the one, from whom you shine. Like a flame which is the cause of condemned diseases, in which you protect the condemned men. In the same way, completely burn to ashes, those enemies who destroy the things of others. In order to attain happiness or for the knowledge, in which the whole world is situated and those who go like me, protect those travelers properly.

    Footnote

    Comment of Maharshi on Sayanacharya’s comentary- In this mantra, Sayanacharya does not know ‘yatu’ pre-term and ‘bhavan’ last-term (Yatuma) and has assumed “matupa” suffix from this pre-term, so the interpretation is wrong because it is against the text. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, the description of the qualities of material fire from the parable of the Lord who protects everyone and the messenger, the description of the qualities of the messenger, the description of the qualities of the princes from the parable of fire, the function of the chairman have been described. The method of using fire etc. has been told. Men are mentioned to pray to the chairman. All human beings together with the chairman should kill the wicked. God, the helper of the princes, has been described. From the above instruction, the meaning of this hymn should be understood with the meaning of the preceding one.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The members of the council, the princes and the subjects should destroy the evil-doing creatures, just as the fire etc. consume the forest etc. The subjects should be protected continuously by such virtuous souls.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top