Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 19
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - पथ्यावृहती स्वरः - मध्यमः

    नि त्वाम॑ग्ने॒ मनु॑र्दधे॒ ज्योति॒र्जना॑य॒ शश्व॑ते । दी॒देथ॒ कण्व॑ ऋ॒तजा॑त उक्षि॒तो यं न॑म॒स्यन्ति॑ कृ॒ष्टयः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । मनुः॑ । द॒धे॒ । ज्योतिः॑ । जना॑य । शश्व॑ते । दी॒देथ॑ । कण्वे॑ । ऋ॒तऽजा॑तः । उ॒क्षि॒तः । यम् । न॒म॒स्यन्ति॑ । कृ॒ष्टयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । त्वाम् । अग्ने । मनुः । दधे । ज्योतिः । जनाय । शश्वते । दीदेथ । कण्वे । ऋतजातः । उक्षितः । यम् । नमस्यन्ति । कृष्टयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 19
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (नि) नितराम् (त्वाम्) सर्वसुखप्रदम्। अत्र स्वरव्यत्ययादुदात्तत्वम् सायणाचार्येणेदं भ्रमान्न बुद्धम् (अग्ने) तेजस्विन् (मनुः) विज्ञानन्यायेन सर्वस्याः प्रजायाः पालकः (दधे) स्वात्मनि धरे (ज्योतिः) स्वयं प्रकाशकत्वेन ज्ञानप्रकाशकम् (जनाय) जीवस्य रक्षणाय (शश्वते) स्वरूपेणानादिने (दीदेथ) प्रकाशयेथ शबभावः। (कण्वे) मेधाविनि जने (ऋतजातः) ऋतेन सत्याचरणेन जातः प्रसिद्धः (उक्षितः) आनन्दैः सिक्तः (यम्) परमात्मानम् (नमस्यन्ति) पूजयन्ति। नमसः पूजायाम्#। अ० ३।१।१९। (कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इतिमनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। ॥१९॥ #[नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्। अ० ३।१।१९ इत्ययेन सूत्रेण नमसः पूजायामिति नियमात्पूजार्थे क्यच् प्रत्ययः। सं०]

    अन्वयः

    पुनरेषां सहायकारी जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अग्ने जगदीश्वर यं परमात्मानं त्वां शश्वते जनाय कृष्टयो नमस्यन्ति हे विद्वांसो यूयं दीदेथ तज्ज्योतिस्स्वरूपं ब्रह्म ऋतजात उक्षितो मनुरहं कण्वे निदधे तमेव सर्वे मनुष्या उपासीरन् ॥१९॥

    भावार्थः

    पूज्यस्य परमात्मनः कृपया प्रजारक्षणाय राज्याधिकारे नियोजितैः मनुष्यैः सर्वैः सत्यव्यवहारप्रसिद्ध्या धार्मिका आनन्दितव्या दुष्टाश्च ताड्या बुद्धिमत्सु मनुष्येषु विद्यानिधातव्याः ॥१९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उन राजपुरुषों के सहायक जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) परमात्मन् ! (यम्) जिस परमात्मा (त्वाम्) आपको (शश्वते) अनादि स्वरूप (जनाय) जीवों की रक्षा के लिये (कृष्टयः) सब विद्वान् मनुष्य (नमस्यन्ति) पूजा और हे विद्वान् लोगो ! जिसको आप (दीदेथ) प्रकाशित करते हैं उस (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश करनेवाले परब्रह्म को (ऋतजातः) सत्याचरण से प्रसिद्ध (उक्षितः) आनन्दित (मनुः) विज्ञानयुक्त मैं (कण्वे) बुद्धिमान मनुष्य में (निदथे) स्थापित करता हूँ उसकी सब मनुष्य लोग उपासना करें ॥१९॥

    भावार्थ

    सबके पूजने योग्य परमात्मा के कृपाकटाक्ष से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य के अधिकारी सब मनुष्यों को योग्य है कि सत्यव्यवहार की प्रसिद्धि से धर्मात्माओं को आनन्द और दुष्टों को ताड़ना देवें ॥१९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर उन राजपुरुषों का सहायक जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर यं परमात्मानं त्वां शश्वते जनाय कृष्टयः नमस्यन्ति हे विद्वांसः यूयं दीदेथ तत् ज्योतिःस्वरूपं ब्रह्म ऋतजात उक्षितः मनुः अहं कण्वे नि दधे तम् एव सर्वे मनुष्या उपासीरन् ॥१९॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन्=तेजस्वी, (यम्) परमात्मानम्=परमात्मन् ! (त्वाम्) सर्वसुखप्रदम्=सबको सुख प्रदान करने वाले, (शश्वते) स्वरूपेणानादिने=स्वरूप से अनादि,  (जनाय) जीवस्य रक्षणाय=जीवों के रक्षण के लिये, (कृष्टयः) मनुष्याः=मनुष्य, (नमस्यन्ति) पूजयन्ति=पूजा करते हैं। हे (विद्वांसः)=विद्वानों! (यूयम्)=तुम सब, (दीदेथ) प्रकाशयेथ=प्रकाशित करते हो, (तत्)=उस, (ज्योतिः) स्वयं प्रकाशकत्वेन ज्ञानप्रकाशकम्=स्वयम् प्रकाश करने वाले  ज्ञान के प्रकाशक, (स्वरूपम्)=अपने स्वरूप वाले, (ब्रह्म)=ब्रह्म, (ऋतजातः) ऋतेन सत्याचरणेन जातः प्रसिद्धः=ऋत और सत्याचरण से उत्पन्न रूप में प्रसिद्ध, (उक्षितः) आनन्दैः सिक्तः=आनन्द रस से सरोबार, (मनुः) विज्ञानन्यायेन सर्वस्याः प्रजायाः पालकः=विशेष, ज्ञान के न्याय द्वारा समस्त प्रजा के पालक, (अहम्)=मैं, (कण्वे) मेधाविनि जने=मेधावी लोगों में, (नि) नितराम्=अच्छी तरह से, (दधे) स्वात्मनि धरे=अपने लिये धारण करते हुए, (तम्)=उसकी, (एव)=ही, (सर्वे)=सब, (मनुष्या)=मनुष्य, (उपासीरन्)=उपासना करें ॥१९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    पूजनेवालों के परमात्मा कृपा करके, प्रजा की रक्षा के लिये राज्य के अधिकारियों को सम्मिलित करके, सब मनुष्यों को सत्य व्यवहार की प्रसिद्धि से धर्मात्माओं को आनन्द और दुष्टों को ताड़ना देते हुए और बुद्धिमान मनुष्यों में विद्या को धारण करायें  ॥१९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) तेजस्वी  (त्वाम्) सबको सुख प्रदान करने वाले, (शश्वते) स्वरूप से अनादि, (यम्) परमात्मा ! (जनाय)  जीवों के रक्षण के लिये (कृष्टयः) मनुष्य (नमस्यन्ति) पूजा करते हैं। हे (विद्वांसः) विद्वानों! (यूयम्) तुम सब (दीदेथ) प्रकाशित करते हो। (तत्) उस (ज्योतिः) स्वयम् प्रकाश करने वाले  ज्ञान के प्रकाशक, (स्स्वरूपम्) अपने स्वरूप वाले (ऋतजातः) ऋत और सत्याचरण से उत्पन्न रूप में प्रसिद्ध (ब्रह्म) ब्रह्म है। [वह] (उक्षितः) आनन्द रस से सरोबार [है] । (मनुः) विशेष ज्ञान के न्याय द्वारा समस्त प्रजा के पालक की (अहम्) मैं (कण्वे) और मेधावी लोगों में (नि) अच्छी तरह से (दधे) अपने लिये धारण करते हुए (तम्) उसकी (एव) ही (सर्वे) सब (मनुष्या) मनुष्य (उपासीरन्) उपासना करें ॥१९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नि) नितराम् (त्वाम्) सर्वसुखप्रदम्। अत्र स्वरव्यत्ययादुदात्तत्वम् सायणाचार्येणेदं भ्रमान्न बुद्धम् (अग्ने) तेजस्विन् (मनुः) विज्ञानन्यायेन सर्वस्याः प्रजायाः पालकः (दधे) स्वात्मनि धरे (ज्योतिः) स्वयं प्रकाशकत्वेन ज्ञानप्रकाशकम् (जनाय) जीवस्य रक्षणाय (शश्वते) स्वरूपेणानादिने (दीदेथ) प्रकाशयेथ शबभावः। (कण्वे) मेधाविनि जने (ऋतजातः) ऋतेन सत्याचरणेन जातः प्रसिद्धः (उक्षितः) आनन्दैः सिक्तः (यम्) परमात्मानम् (नमस्यन्ति) पूजयन्ति। नमसः पूजायाम्#। अ० ३।१।१९। (कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इतिमनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। ॥१९॥ #[नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्। अ० ३।१।१९ इत्ययेन सूत्रेण नमसः पूजायामिति नियमात्पूजार्थे क्यच् प्रत्ययः। सं०] 
    विषयः- पुनरेषां सहायकारी जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे अग्ने जगदीश्वर यं परमात्मानं त्वां शश्वते जनाय कृष्टयो नमस्यन्ति हे विद्वांसो यूयं दीदेथ तज्ज्योतिस्स्वरूपं ब्रह्म ऋतजात उक्षितो मनुरहं कण्वे निदधे तमेव सर्वे मनुष्या उपासीरन् ॥१९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- पूज्यस्य परमात्मनः कृपया प्रजारक्षणाय राज्याधिकारे नियोजितैः मनुष्यैः सर्वैः सत्यव्यवहारप्रसिद्ध्या धार्मिका आनन्दितव्या दुष्टाश्च ताड्या बुद्धिमत्सु मनुष्येषु विद्यानिधातव्याः ॥१९॥
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनु व कृष्टि

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (त्वाम्) - अपको (मनुः) - विचारशील पुरुष (निदधे) - अपने हृदय में स्थापित करता है । प्रभु के स्वागत के लिए ज्ञानी बनना आवश्यक है । 'दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या' - उस प्रभु का दर्शन सूक्ष्मबुद्धि से होता है । 
    २. ये प्रभु (शश्वते जनाय) - प्लुतगतिवाले पुरुष के लिए, क्रियाशील पुरुष के लिए (ज्योतिः) - प्रकाशस्वरूप होते हैं । आलसी पुरुष को ईश्वर का दर्शन नहीं होता । 
    ३. हे प्रभो ! आप (उक्षितः) - आनन्द से सिक्त हो, अर्थात् आनन्दस्वरूप हो । 
    ४. आप वे हैं (यम्) - जिनको (कृष्टयः) - श्रमशील मनुष्य (नमस्यन्ति) - अर्चित करते हैं । प्रभु की अर्चना श्रम के द्वारा होती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति का सर्वप्रथम साधन है 'मनु' - ज्ञानी बनना । द्वितीय साधन है 'शश्वत्' प्लुतगतिवाला होना । तृतीय साधन है - मेधावी बनकर ऋत का पालन करना । चौथा साधन है ' श्रमशील' होना - कृषि करना । संक्षेप में प्रभु को 'मनु, शश्वत्, कण्व व कृष्टि' प्राप्त करते हैं । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रजाभक्षकों का दमन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् परमेश्वर! तेजस्विन् राजन्! अग्ने! (मनुः)मननशील, ज्ञानी पुरुष (त्वाम्) तुझको (शश्वते जनाय) अनादि प्रवाह से आनेवाले मनुष्यों के हित के लिए (ज्योतिः) प्रकाशरूप से (दधे) धारण करता है। तू (कण्वे) विद्वान् मेधावी, ज्ञानी पुरुष के आश्रय में रह कर (ऋतजातः) सत्य, राष्ट्रशासन और प्रजापालन के धर्मज्ञान में कुशल होकर (उक्षितः) अभिषेचित होकर (दीदेथ) चमक, (यं) जिस तुझको (कृष्टयः) मनुष्य (नमस्यन्ति) आदर से नमस्कार करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वांनी पूजा करण्यायोग्य परमेश्वराच्या कृपाकटाक्षाने प्रजेच्या रक्षणासाठी राज्याचे अधिकारी असलेल्या सर्व माणसांनी सत्य व्यवहार करून धर्मात्म्यांना आनंद देऊन दुष्टांचे निर्दालन करावे. ॥ १९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of universal light and power, I, Manu, man of thought and intelligence, enlightened in truth and divine Law, consecrated in the joy of piety, hold on to you in the heart. Shine, eternal light, in the heart of Kanva, man of knowledge, for the sake of humanity. The devotees bow to you in obedience and obeisance.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, how God is the helper of those royal persons? This topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=splendorous, (tvām) = the provider of happiness to all, (śaśvate)=primordial by form, (yam)=God, (janāya)= for the protection of living beings, (kṛṣṭayaḥ)=men, (namasyanti)= worship, [he]=O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (yūyam)=all of you, (dīdetha)=promulgate, (tat)=that, (jyotiḥ)= self-promulgating, revealer of knowledge, (ssvarūpam)=having own form only, (ṛtajātaḥ)= Famous as born of ṛta (truth in general) and Satyacharan, (brahma)-The Supreme Spirit, [vaha]=that, (ukṣitaḥ)= filled with bliss, [hai]=is, (manuḥ)= By the justice of special knowledge, the guardian of all subjects, (aham)=I, (kaṇve)=in talented people, [aura]= and, (ni)= properly, (dadhe)= holding for oneself, (tam)=that, (eva)=only, (sarve)=all, (manuṣyā)=men, (upāsīran)=must worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O Splendorous, provider of happiness to all, primordial by form God! Men worship for the protection of living beings. O scholars! All of you promulgate. By that self-promulgating, revealer of knowledge, having own form only, famous as born of ṛta (truth in general) and truthful conduct is the Supreme spirit. That is filled with bliss. By the justice of special knowledge, the guardian of all subjects, I and the talented people holding for ourselves, properly all men must worship that only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By the divine grace of the worshippers, by involving the officials of the state for the protection of the subjects, with the fame of true conduct to all men, giving joy to the righteous and chastising the wicked and making wise men imbibe knowledge.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top