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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 18
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒ग्निना॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ परा॒वत॑ उ॒ग्रादे॑वं हवामहे । अ॒ग्निर्न॑य॒न्नव॑वास्त्वं बृ॒हद्र॑थं तु॒र्वीतिं॒ दस्य॑वे॒ सहः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निना॑ । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् । प॒रा॒ऽवतः॑ । उ॒ग्रऽदे॑वम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । अ॒ग्निः । न॒य॒त् । नव॑ऽवास्त्वम् । बृ॒हत्ऽर॑थम् । तु॒र्वीति॑म् । दस्य॑वे । सहः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे । अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । परावतः । उग्रदेवम् । हवामहे । अग्निः । नयत् । नववास्त्वम् । बृहत्रथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अग्निना) अग्निवत्तेजस्विना सभाध्यक्षेण (तुर्वशम्) तुरा शीघ्रतया परपदार्थान् वष्ठि काङ्क्षूति सः। तुर्वशा इतिमनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (यदुम्) इतरधनाय यततेऽसौ यदुर्मनुष्यस्तम्। अत्र यतीप्रयत्न इत्यस्माद्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययस्तकारस्य दकारः (परावतः) दूरदेशात् (उग्रादेवम्) उग्रान् तीव्र स्वभावान् विजिगीषुम्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः (हवामहे) योद्धमाह्वयेम (अग्निः) अग्रणीस्सभाध्यक्षः (नयत्) नयतु बन्धनागारे प्रापयतु। अयं लेट्प्रयोगः। (नववास्त्वम्) नवानि नवीनान्यरण्ये निर्मितानि वस्तूनि गृहाणि येन तम् अमिपूर्व “इत्यत्र” वाच्छन्दसि इत्यनुवर्त्तनात् पूर्व# वर्णाभावे यणादेशः (बृहद्रथम्) बृहन्तो रथारमणसाधका यस्य तम् (तुर्वीतिम्) तुर्वतिहिनस्ति यस्तम्। अत्र हिंसार्थात्तुर्वीधातोर्बाहुलकादौणादिकः कर्त्तृकारक ईतिः प्रत्ययः (दस्यवे) स्वबलोत्कर्षेण परपदार्थहर्त्तर्दस्योः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (सहः) पराभावुकः ॥१८॥ #[पूर्वसवर्णाभावे।सं०]

    अन्वयः

    सर्वेमनुष्याः सभाध्यक्षेण सह दुष्टान् कथं हन्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    वयं येनाग्निना संग्राह्योग्रादेवं तुर्वशं यदुं परावतो हवामहे। स च दस्यवे सहोऽग्निर्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिमिहानयत् बन्धागारे प्रापयतु ॥१८॥

    भावार्थः

    सर्वैर्धार्मिकपुरुषैस्तेजस्विना सभाध्यक्षेण राज्ञा सह समागम्य वेगेन परपदार्थहर्त्तॄन् कुटिलस्वभावान् स्वविजयमिच्छन् दस्यूनाहूय पर्वतारण्यदिषु निर्मितानि तद्गृहाणि निपात्य तान् बध्वा कारागृहे नियोक्तव्याः सायणाचार्य्येणायं मन्त्रोऽर्वाचीन पुराणाख्यमिथ्याग्रन्थरीतिमाश्रित्य भ्रान्त्यानर्थो व्याख्यातः ॥१८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    सब मनुष्य सभाध्यक्ष से मिलके दुष्टों को कैसे मारें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हम लोग जिस (अग्निना) अग्नि के समान तेजस्वी सभाध्यक्ष राजा के साथ मिलके (उग्रादेवम्) तेज स्वभाव वालों को जीतने की इच्छा करने तथा (तुर्वशम्) शीघ्र ही दूसरे के पदार्थों को ग्रहण करनेवाले (यदुम्) दूसरे का धन मारने के लिये यत्न करते हुए डांकू पुरुष को (परावतः) दूसरे देश से (हवामहे) युद्ध के लिये बुलावें वह (दस्यवे) अपने विशेष बल से दूसरे का पदार्थ हरनेवाले डांकू का (सहः) तिरस्कार करने योग्य बल को (अग्निः) सब मुख्य राजा (नववास्त्वम्) एकान्त में नवीन घर बनाने (बृहद्रथम्) बड़े-२ रमण के साधन रथोंवाले (तुर्वीतिम्) हिंसक दुष्टपुरुषों को यहां (नयत्) कैद में रक्खें ॥१८॥

    भावार्थ

    सब धार्मिक पुरुषों को चाहिये की तेजस्वी सभाध्यक्ष राजा के साथ मिल के वेग से अन्य के पदार्थों को हरने खोटे स्वभावयुक्त और अपने विजय की इच्छा करनेवाले डाकुओं को बुला उनके पर्वतादि एकान्त स्थानों में बने हुए घरों को खसाकर और बांध के उनको कैद में रक्खें ॥१८॥ सायणाचार्य ने यह मन्त्र नवीन पुराण मिथ्या ग्रन्थों की रीति के अवलंब से भ्रम के साथ कुछ का कुछ विरुद्ध वर्णन किया है ॥

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    विषय

    सब मनुष्य सभाध्यक्ष से मिलके दुष्टों को कैसे मारें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयं येन अग्निना संग्राह्य उग्रा अदेवं तुर्वशं यदुं परावतः हवामहे स च दस्यवे सहः अग्निः नवास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिम् इह आनयत् बन्धागारे प्रापयतु ॥१८॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम लोग, (येन)=जिस, (अग्निना) अग्निवत्तेजस्विना सभाध्यक्षेण=अग्नि के समान तेजस्वी सभाध्यक्ष के द्वारा, (संग्राह्य)=संग्रह करने योग्य,  (उग्रादेवम्) उग्रान् तीव्र स्वभावान् विजिगीषुम्=उग्र स्वभाव के जीत की इच्छा वाले, (तुर्वशम्) तुरा शीघ्रतया परपदार्थान् वष्ठि काङ्क्षूति सः=जो शीघ्रता से दूसरों के पदार्थों की इच्छा रखता है, (यदुम्) इतरधनाय यततेऽसौ यदुर्मनुष्यस्तम्=जो दूसरे के लिये धन के लिये प्रयास करता है, ऐसे मनुष्य को, (परावतः) दूरदेशात्=दूरस्थ स्थान से, (हवामहे) योद्धमाह्वयेम=युद्ध के लिये पुकारते हैं, (सः)=वह, (च)=भी, (दस्यवे) स्वबलोत्कर्षेण परपदार्थहर्त्तर्दस्योः=अपने बल के आकर्षण से दूसरों के पदार्थ का हरण करने वालों को, (सहः) पराभावुकः=पतन के बारे में, (अग्निः) अग्रणीस्सभाध्यक्षः=अग्रणी  सभाध्यक्ष, (नवास्त्वम्)=सुन्दर घर वाले और (बृहद्रथम्)=बड़े भारी रथ वाले, (तुर्वीतिम्) तुर्वतिहिनस्ति यस्तम्=उस हिंसक को, (इह)=यहाँ, (आ)=हर ओर से, (नयत्) नयतु बन्धनागारे प्रापयतु=कैदखाने में ले आए॥१८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सब धार्मिक पुरुषों को चाहिये की तेजस्वी सभाध्यक्ष राजा के साथ मिल के वेग से अन्य के पदार्थों को हरण करने वाले, खोटे स्वभावयुक्त और अपनी विजय की इच्छा करनेवाले डाकुओं को बुलाकर पराभूत करके उनको पर्वत, जंगल आदि एकान्त स्थानों में बने हुए घरों में बांध के उनको कैद में रक्खें ॥१८॥ 
     

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी- सायणाचार्य ने यह मन्त्र नवीन पुराण मिथ्या ग्रन्थों की रीति के अवलम्ब से भ्रम के साथ कुछ का कुछ विरुद्ध वर्णन किया है ॥१८॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम लोग (येन) जिस (अग्निना) अग्नि के समान तेजस्वी सभाध्यक्ष के द्वारा (संग्राह्य) संग्रह करने योग्य (उग्रादेवम्) उग्र स्वभाव के और जीत की इच्छा वाले (तुर्वशम्) जो शीघ्रता से दूसरों के पदार्थों की इच्छा रखता है।  (यदुम्) जो दूसरे के धन को प्राप्त करने लिये प्रयास करता है, ऐसे मनुष्य को (परावतः) दूरस्थ स्थान से (हवामहे) युद्ध के लिये पुकारते हैं। (सः) वह (च) भी, (दस्यवे) अपने बल के आकर्षण से दूसरों के पदार्थों के हरण करने वालों को (सहः) दूसरों के पतन के लिए जिम्मेदार (अग्निः) अग्रणी  सभाध्यक्ष  (नवास्त्वम्) सुन्दर घर वाले [और] (तुर्वीतिम्) उस हिंसक को (इह) यहाँ (आ) सर्वथा (नयत्) कैदखाने में ले आए॥१८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्निना) अग्निवत्तेजस्विना सभाध्यक्षेण (तुर्वशम्) तुरा शीघ्रतया परपदार्थान् वष्ठि काङ्क्षूति सः। तुर्वशा इतिमनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (यदुम्) इतरधनाय यततेऽसौ यदुर्मनुष्यस्तम्। अत्र यतीप्रयत्न इत्यस्माद्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययस्तकारस्य दकारः (परावतः) दूरदेशात् (उग्रादेवम्) उग्रान् तीव्र स्वभावान् विजिगीषुम्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः (हवामहे) योद्धमाह्वयेम (अग्निः) अग्रणीस्सभाध्यक्षः (नयत्) नयतु बन्धनागारे प्रापयतु। अयं लेट्प्रयोगः। (नववास्त्वम्) नवानि नवीनान्यरण्ये निर्मितानि वस्तूनि गृहाणि येन तम् अमिपूर्व “इत्यत्र” वाच्छन्दसि इत्यनुवर्त्तनात् पूर्व# वर्णाभावे यणादेशः (बृहद्रथम्) बृहन्तो रथारमणसाधका यस्य तम् (तुर्वीतिम्) तुर्वतिहिनस्ति यस्तम्। अत्र हिंसार्थात्तुर्वीधातोर्बाहुलकादौणादिकः कर्त्तृकारक ईतिः प्रत्ययः (दस्यवे) स्वबलोत्कर्षेण परपदार्थहर्त्तर्दस्योः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (सहः) पराभावुकः ॥१८॥ #[पूर्वसवर्णाभावे।सं०]
    विषयः- सर्वेमनुष्याः सभाध्यक्षेण सह दुष्टान् कथं हन्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- वयं येनाग्निना संग्राह्योग्रादेवं तुर्वशं यदुं परावतो हवामहे। स च दस्यवे सहोऽग्निर्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिमिहानयत् बन्धागारे प्रापयतु ॥१८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्धार्मिकपुरुषैस्तेजस्विना सभाध्यक्षेण राज्ञा सह समागम्य वेगेन परपदार्थहर्त्तॄन् कुटिलस्वभावान् स्वविजयमिच्छन् दस्यूनाहूय पर्वतारण्यदिषु निर्मितानि तद्गृहाणि निपात्य तान् बध्वा कारागृहे नियोक्तव्याः सायणाचार्य्येणायं मन्त्रोऽर्वाचीन पुराणाख्यमिथ्याग्रन्थरीतिमाश्रित्य भ्रान्त्यानर्थो व्याख्यातः ॥१८॥
     

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    विषय

    तुर्वश - तुर्वीति

    पदार्थ

    १. उस (अग्निना) - अग्रणी प्रभु के साथ अथवा उस अग्रणी प्रभु की प्राप्ति के हेतु से हम (तुर्वशम्) - त्वरा से इन्द्रियों व मन को वश में करनेवाले को (यदुम्) - उत्तम धनों की प्राप्ति के लिए यत्नशील को [यतते] तथा (उग्रादेवम्) - तेजस्वी व दिव्य गुणोंवाले पुरुष को (परावतः) - दूर देश से भी (हवामहे) - पुकारते हैं । इन लोगों का - 'तुर्वश, यदु व उग्रादेव' का सम्पर्क हमें भी उसी प्रकार 'तुर्वश, यदु व उग्रादेव' बनाएगा । ऐसा बनने पर हम प्रभु को पानेवाले बनेंगे । 
    २. (अग्निः) - अग्रणी प्रभु इस (नववास्त्वम्) - [नवं वास्तु यस्य] स्तुत्य घरवाले, अर्थात् सुन्दर शरीररूप गृहवाले (बृहद्रथम्) - वृद्धिशील रथवाले, अर्थात् जीवन - यात्रा में इस शरीररूप रथ से निरन्तर आगे बढ़नेवाले (तुर्वीतिम्) - [तुर्वति - हिनस्ति] सब बुराइयों के संहार करनेवाले को (दस्यवे सहः) - दस्युओं के कुचलने के लिए शक्ति को (नयत्) - प्राप्त कराता है । प्रभु - कृपा से हमें वह शक्ति प्राप्त होती है जोकि दास्यव वृत्तियों को कुचलने में समर्थ होती है । 
    ३. मन्त्र में 'तुर्वश' आदि शब्दों से स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि [क] हम 'तुर्वश' बनें - त्वरा से इन्द्रियों व मन को वश में करनेवाले हों । [ख] 'यदु' - जीवन - यात्रा के लिए आवश्यक साधनों को जुटाने में यत्नशील हों । [ग] 'उग्रादेव' - तेजस्वी व दिव्यगुणोंवाले बनें । [घ] 'नववास्तु' - शरीररूप गृह को सुन्दर बनाएँ । [ङ] 'बृहद्रथम्' - वृद्धिशील रथवाले हों, अर्थात् जीवन - यात्रा में आगे बढ़ें और [च] 'तुर्वीति' - सब वासनाओं का हिंसन करनेवाले हों । 

    भावार्थ

    भावार्थ - 'तुर्वश, यदु व उनादेव' बनकर हम प्रभु को प्राप्त करते हैं । वे प्रभु 'नववास्त्व' बृहद्रथ व तुर्वीति' को शक्ति प्राप्त कराते हैं जो दस्युओं को कुचलनेवाली होती है । 
     

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    विषय

    प्रजाभक्षकों का दमन ।

    भावार्थ

    (अग्निना) अग्रणी नायक राजा या सभाध्यक्ष के बल पर (तुर्वशं) शीघ्रता से दूरस्थ पदार्थों की कामना या उनपर वश करने में समर्थ, (यदुम्) यत्नशील दूसरे के धन लेने में यत्नशील और (उग्रादेवम्) उग्र, भयानक पुरुषों को जीतने वाले पुरुष को (परावतः) दूर देश से भी (हवामहे) हम स्पर्द्धा पूर्वक युद्ध के लिये ललकार लें। क्योंकि (दस्यवे सहः) प्रजा के नाशकारी, चोर डाकुओं को पराजित करने में समर्थ, (नववास्त्वं) नये मकान या गढ़ बनवाने वाले (बृहद्-रथम्) बड़े रमण साधन, वैभव से युक्त एवं, बड़े रथ सेना से बलवान् (तुर्वीतिम्) प्रजा के हिंसाकारी पुरुष को (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी राजा (नयत्) दूर करे और कारागार में डाल दे। अथवा—(अग्निः) ज्ञानी दूत द्वारा (तुर्वशम्) धर्म काम अर्थ मोक्ष इन चारों पर वश करने वाले, (यदुं) यत्नशील, (उग्रादेवम्) बलवान् विजयी पुरुष को दूर देश से भी हम आदरपूर्वक बुलावें और ज्ञानी पुरुष (नववास्त्वं) नये भवन बनाने में कुशल (वृहद्रथं) बड़े भारी रथ, सेना आदि रमण साधनों से युक्त (तुर्वीतिम् ) शत्रु हिंसक पुरुष को (नयत्) प्राप्त करावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व धार्मिक पुरुषांनी व तेजस्वी सभाध्यक्ष राजा यांनी मिळून लोकांचे पदार्थ लुटणाऱ्या दुष्ट स्वभावाच्या व आपल्या विजयाची इच्छा बाळगणाऱ्या डाकूंना पर्वत इत्यादी एकान्तस्थानी बनविलेल्या घरात कैद करून ठेवावे. ॥ १८ ॥

    टिप्पणी

    सायणाचार्यांनी हा मंत्र नवीन पुराण मिथ्या ग्रंथाच्या रीतीचा अवलंब करून भ्रमाने विरुद्ध वर्णन केलेले आहे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    By the might and splendour of Agni, we challenge from afar the fast invader, robber, ferocious warrior who hides in new hideouts and suddenly emerges in a big chariot with the intention of instant kill. May Agni, great and blazing, destroyer of the wicked, take on such demons and throw them off.

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    Subject of the mantra

    How to kill the wicked in association with the head of the assembly, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=We, (yena)=with which, (agninā)= by the brilliant chairperson of the fire, (saṃgrāhya)= worth collecting, (ugrādevam) =fiery-tempered and willing to be victorious,(turvaśam) =One who quickly desires the things of other, (yadum)= One who tries to get other's wealth, such a person, (parāvataḥ)=from adistant place, (havāmahe)= calls for war, (saḥ)= that, ,(ca)=also, (dasyave)= By the attraction of one's own power, those who take away the substances of others, (sahaḥ)= responsible for others downfall, (agniḥ)=leading chairperson, (navāstvam)= having beautiful house [and}=and, (turvītim)= to that violent, (iha)=here, (ā)= complete, (nayat)=must bring to prison.

    English Translation (K.K.V.)

    We call on such for war from a distant place fiery-tempered and willing to be victorious with which by the brilliant chairperson of the fire is worth collecting, by one, who quickly desires the things of others. He, too, by the attraction of his power to those who take away the things of others, the leading councilor responsible for the downfall of others, the beautiful house and that violent here in the whole prison.

    Footnote

    Sayanacharya has described this mantra somewhat against some with confusion on the basis of the custom of the new Puranas and false texts.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By all righteous men, in association with the splendid chairperson king, by calling out bandits who plunder other's belongings in a hurry, with bad temper and desire for their victory, by demolishing their houses made of mountains, forests, etc., by tying them up should be put in jail.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should all men destroy un-righteous person, in co-operation with the President is taught in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We challenge for fight even from a distance along with the President of the Assembly who is splendid like the fire, a person who desires to take away or swallow others' articles, who is trying to mis-appropriate others' wealth and who desires to conquer even energetic men. He (the President of the Assembly), the subduer of the robbers puts into prison the man who with evil intention builds new houses in the forest, has many big chariots and always harms others being of a violent nature.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्निना) अग्निवत् तेजस्विना सभाध्यक्षेण = With the President of the Assembly who is splendid like the fire. ( तुर्वशम् ) तुरा शीघ्रतया परपदार्थान् वष्टि कांक्षति सः तुर्वशा इति मनुष्यनाम पठितम् ( निघ० २.३) = To him who desires others' articles. ( यदुम् ) इतरधनाय यततेऽसौ यदुर्मनुष्यस्तम् अत्र यतीप्रयत्ने इत्यस्माद् बाहुलकादौणादिक उ: प्रत्ययस्तकारस्य दकारः = To him who tries to swallow others' wealth or property. ( नववास्त्वम् ) नवानि नवीनानि अरण्ये निर्मितानि वास्तूनि येन तम् । = Him who has built new houses in the forest. ( तुर्वीतिम् ) तुर्वति हिनस्ति यस्तम् । अत्र हिंसार्थात् तुर्वी धातोर्बाहुलकादौणादिक कर्तृकारक इतिः प्रत्ययः । = To him who harms or kills others. (सह:) पराभावुक: = Subduer or overcomer.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All righteous persons should challenge for fight, in co-operation with the President of the Assembly those un-righteous people who take a way unjustly others' articles, who are crooked and desire their victory. They should demolish their houses built on the mountains or in the forests and they should put them into prisons.

    Translator's Notes

    At the end of his commentary, Rishi Dayananda has given the following note which is very remarkable. He says- सायणाचार्येण अयं मन्त्रोऽर्वाचीन पुराणाख्यमिथ्या ग्रन्थरीतिमाश्रित्य भ्रान्त्यानर्थो व्याख्यातः || i. e. Sayanacharya has misinterpreted this Mantra based upon the style of the modern books named Puranas. Sayanacharya takes Turvasha, Yadu, Ugradeva, Nava Vastva, Brihadratha and Turveeti as the names of certain royal sages or Rakshasas as he calls them. But that is not only opposed to the fundamental principles of the Vedic terminology as given in the meemansa and other Shastras, but to Sayanacharya's own principles as given by him in his Introduction to the Rigveda commentary as we have pointed out before. Prof. Wilson and Griffith have also committed the same mistake. Wilson simply translates “We invoke from afar, along with Agni, Turwasha, Yadu and Ugra Deva, let Agni the arrester of the robber, bring hither Nava Vastva, Briha - dratha and Turviti. In his note, Wilson adds- "Nothing more is said of the persons named in this verse than that they were Rajarshis, royal sages. Turvasha may be another reading of Turvasu who, with Yadu, was a son of Yayati of the lunar race. We have several princes of the name of Brihadratha, but the others are exclusively Vaidik: " P.257. So Prof. Wilson has to admit willy-nilly that practically nothing is known about these so-called royal sages. As a matter of fact, it is not even hinted any where that they were Rajarshis or royal sages and Rishi Dayanandas' interpretation taking these words as denoting certain attributes is quite in keeping with the fundamental principles of the Vedic Terminology, as given in the Meemansa and Nirukta etc.. Griffith giving the above words without translating them, gives a more absurd and conjectural note as seems to be his habit, saying- "Turvasa and Yadu are frequently mentioned together as eponyoni of tribes of those names. The poet appears to pray for return of Navanastva, who ever he may have been, to protect the home attacked by the dasy us or robbers, and perhaps also to strengthen his prayer by an appeal to the spirits of departed heroes." P. 52. All this is nothing but Griffith's own imagination which is full of probabilities and which has therefore no value. In the Vedic Lexicon Nighantu 2.3 both तुर्वशा: and यदव: are among the names of men in general तुर्वशा इति मनुष्यनाम ( निघo २ ३ यदव इति मनुष्यनाम ( निघ० २ ) | It is therefore wrong to take these and Brihadratha etc. as proper nouns.

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