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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 16
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    घ॒नेव॒ विष्व॒ग्वि ज॒ह्यरा॑व्ण॒स्तपु॑र्जम्भ॒ यो अ॑स्म॒ध्रुक् । यो मर्त्यः॒ शिशी॑ते॒ अत्य॒क्तुभि॒र्मा नः॒ स रि॒पुरी॑शत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घ॒नाऽइ॑व । विष्व॑क् । वि । ज॒हि॒ । अरा॑व्णः । तपुः॑ऽजम्भ । यः । अ॒स्म॒ऽध्रुक् । यः । मर्त्यः॑ । शिशी॑ते । अति॑ । अ॒क्तुऽभिः॑ । मा । नः॒ । सः । रि॒पुः । ई॒श॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् । यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घनाइव । विष्वक् । वि । जहि । अराव्णः । तपुःजम्भ । यः । अस्मध्रुक् । यः । मर्त्यः । शिशीते । अति । अक्तुभिः । मा । नः । सः । रिपुः । ईशत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 16
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (घनेव) घनाभिर्यष्टिभिर्यथा घटं भिनत्ति तथा (विष्वक्) सर्वतः (वि) विगतार्थे (जहि) नाशय (अराव्णः) उक्तशत्रून् (तपुर्जम्भ) तप संताप इत्यस्मादौणादिक उसिन् प्रत्ययः सन्ताप्यन्ते शत्रवो यैस्तानि तपूंषि। जभि नाशन इत्यस्मात् करणे घञ् जभ्यन्त एभिरिति जम्भान्यायुधानि तपूंष्येव जम्भानि यस्य भवतस्तत्संबुद्धौ (यः) मनुष्यः (अस्मद्ध्रुक्) अस्मान् द्रुह्यति यः सः (यः) (मर्त्त्यः) मनुष्यः (शिशीते) कृशं करोति। शो तनूकरण इत्यस्माल्लटि विकरणव्यत्ययेन श्यनः स्थाने श्लुरात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इत्यभ्यासस्येत्वम्। ईहल्यधोः अ० ६।४।११३। इत्यनभ्यासस्येकारादेशश्च। (अति) अतिशये (अक्तुभिः) अञ्जंति मृत्युं नयन्ति यैस्तैः शस्त्रैः। अंजू धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तुः प्रत्ययः (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (सः) (रिपुः) शत्रुः (ईशत) ईष्टां समर्थो भवतु। अत्र लोडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् ॥१६॥

    अन्वयः

    पुनस्तदेवाह।

    पदार्थः

    हे तपुर्ज्जम्भ सेनापते विष्वक् त्वमराव्णोरीन् घनेन विजहि यो मर्त्त्योक्तुभिरस्मद्ध्रुगति शिशीते स रिपुर्नोस्मान् मेशत ॥१६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सेनापत्यादयो यथा घनेनायः पाषाणादीस्त्रोटयन्ति तथैव शत्रूणामङ्गानि त्रोटयित्वाऽहर्निशं धार्मिकप्रजापालनतत्पराः स्युर्यतोऽरय एते दुःखयितुन्नो शक्नुयुरिति ॥१६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मंत्र में उसी सभाध्यक्ष का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (तपुर्ज्जम्भ) शत्रुओं को सताने और नाश करने के शस्त्र बांधनेवाले सेनापते ! (विष्वक्) सर्वथा सेनादिबलों से युक्त होके आप (अराव्णः) सुखदानरहित शत्रुओं को (घनेव) घन के समान (विजहि) विशेष करके जीत और (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (अक्तुभिः) रात्रियों से (अस्मद्ध्रुक्) हमारा द्रोही (अतिशिशीते) अति हिंसा करता हो (सः) सो (रिपुः) वैरी (नः) हम लोगों को पीड़ा देने में (मा) मत (ईशत) समर्थ होवें ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमा अलंकार है। सेनाध्यक्षादि लोग जैसे लोहा के घन से लोहे और पाषाणादिकों को तोड़ते हैं वैसे ही अधर्म्मी दुष्टशत्रुओं के अङ्गों को छिन्न-भिन्न कर दिन रात धर्म्मात्मा प्रजाजनों के पालन में तत्पर हों जिससे शत्रुजन इन प्रजाओं को दुःख देने को समर्थ न हो सकें ॥१६॥

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    विषय

    फिर भी इस मंत्र में उसी सभाध्यक्ष का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे तपुर्ज्जम्भ सेनापते विष्वक् त्वम्र् अराव्णः अरीन् घनेन विजहि यः मर्त्त्यः अक्तुभिः अस्मद् ध्रुक् इति शिशीते सः रिपु नः अस्मान् मेशत ॥१६॥ 

    पदार्थ

    हे  (तपुर्जम्भ) तप संताप=शत्रुओं के लिये सन्तापकारी अस्त्रों से नाश करने वाले, (सेनापते)=सेनापते, (विष्वक्) सर्वतः=हर दिशा से, (त्वम्)=तुम,  (अराव्णः) उक्तशत्रून्=उक्त शत्रुओं को, (घनेव) घनाभिर्यष्टिभिर्यथा घटं भिनत्ति तथा=जैसे घन या डण्डे से घड़े को तोड़ा जाता है, ऐसे (विजहि) विगतार्थे नाशय=नष्ट करते हो, (यः) मनुष्यः=मनुष्य, (अक्तुभिः) अञ्जंति मृत्युं नयन्ति यैस्तैः शस्त्रैः=रात और दिन उन शस्त्रों को जो मृत्यु की ओर ले जाते हैं, (अस्मद्ध्रुक्) अस्मान् द्रुह्यति यः सः=और वह जो हम से द्रोह करते हैं, उन्हें (इति)= इसलिये, (शिशीते) कृशः=क्षीण, करोति=क्षीण कर देते हैं। (सः)=वह, (रिपुः) शत्रुः=शत्रु, (नः) अस्मान्=हमारे लिये, (ईशत) ईष्टां समर्थो भवतु=विनाशकारी, (मा) निषेधार्थे=न हो  ॥१६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमा अलंकार है। सेनाध्यक्ष आदि लोग जैसे लोहे के घन से पाषाण आदि को तोड़ते हैं, वैसे ही शत्रुओं के अङ्गों को तोड़ करके दिन-रात धार्मिक लोग प्रजा के पालन में तत्पर रहें। जिससे शत्रुजन इन प्रजाओं को दुःख देने में समर्थ न हो सकें ॥१६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (तपुर्जम्भ) शत्रुओं के लिये सन्तापकारी अस्त्रों से विनाश करने वाले (सेनापते) सेनापते! (विष्वक्) हर दिशा से (त्वम्) तुम  (अराव्णः) उक्त शत्रुओं को, (घनेव) जैसे घन या डण्डे से घड़े को तोड़ा जाता है, ऐसे (विजहि) नष्ट करते हो। (यः) मनुष्य (अक्तुभिः) रात और दिन उन शस्त्रों को जो मृत्यु की ओर ले जाते हैं (अस्मद्ध्रुक्) और वह जो हम से द्रोह करते हैं, उन्हें (इति) इसलिये (शिशीते) क्षीण कर देते हैं। (सः) वह (रिपुः) शत्रु (नः) हमारे लिये (ईशत) विनाशकारी (मा) न हो ॥१६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (घनेव) घनाभिर्यष्टिभिर्यथा घटं भिनत्ति तथा (विष्वक्) सर्वतः (वि) विगतार्थे (जहि) नाशय (अराव्णः) उक्तशत्रून् (तपुर्जम्भ) तप संताप इत्यस्मादौणादिक उसिन् प्रत्ययः सन्ताप्यन्ते शत्रवो यैस्तानि तपूंषि। जभि नाशन इत्यस्मात् करणे घञ् जभ्यन्त एभिरिति जम्भान्यायुधानि तपूंष्येव जम्भानि यस्य भवतस्तत्संबुद्धौ (यः) मनुष्यः (अस्मद्ध्रुक्) अस्मान् द्रुह्यति यः सः (यः) (मर्त्त्यः) मनुष्यः (शिशीते) कृशं करोति। शो तनूकरण इत्यस्माल्लटि विकरणव्यत्ययेन श्यनः स्थाने श्लुरात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इत्यभ्यासस्येत्वम्। ईहल्यधोः अ० ६।४।११३। इत्यनभ्यासस्येकारादेशश्च। (अति) अतिशये (अक्तुभिः) अञ्जंति मृत्युं नयन्ति यैस्तैः शस्त्रैः। अंजू धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तुः प्रत्ययः (मा) निषेधार्थे (नः) अस्मान् (सः) (रिपुः) शत्रुः (ईशत) ईष्टां समर्थो भवतु। अत्र लोडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् ॥१६॥
    विषयः- पुनस्तदेवाह।

    अन्वयः- हे तपुर्ज्जम्भ सेनापते विष्वक् त्वमराव्णोरीन् घनेन विजहि यो मर्त्त्योक्तुभिरस्मद्ध्रुगति शिशीते स रिपुर्नोस्मान् मेशत ॥१६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। सेनापत्यादयो यथा घनेनायः पाषाणादीस्त्रोटयन्ति तथैव शत्रूणामङ्गानि त्रोटयित्वाऽहर्निशं धार्मिकप्रजापालनतत्पराः स्युर्यतोऽरय एते दुःखयितुन्नो शक्नुयुरिति ॥१६॥

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    विषय

    'अरावा - द्रोही व चोर' का नाश

    पदार्थ

    १. हे (तपुर्जम्भ) - [तपूंषि जम्भानि - आयुधानि यस्य] सन्तापकारी अस्त्रोंवाले प्रभो ! (अराव्णः) - राष्ट्र में उचित कर आदि न देनेवाले व्यक्तियों को (विष्वक् विजहि) - सब ओर से नष्ट कर दीजिए, उसी प्रकार नष्ट कर दीजिए (इव) - जैसेकि (घना) - दृढ़ पाषाण आदि से मृत्पिण्डों को नष्ट कर देते हैं । 
    २. (यः) - जो भी (अस्मध्रुक्) - हम सबका द्रोह करता है और (यः मर्त्यः) - जो मनुष्य (अक्तुभिः) - रात्रियों के समय अति (शिशीते) - अतिशयेन क्षीण कर देता है अर्थात् धन - धान्यों को चुराकर हमारी अवस्था को क्षीण कर देता है (सः) - वह (रिपुः) - शत्रु (नः) - हमारा (मा ईशत) - ईश न बन जाए, अर्थात् हमपर प्रबल न हो जाए । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की व्यवस्था से कर व दान न देनेवालों का, दूसरों का द्रोह करनेवालों का तथा रात्रि में चोरी करके औरों का क्षय करनेवालों का प्राबल्य न हो, इन शत्रुओं का नाश ही हो । 
     

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    विषय

    प्रजाभक्षकों का दमन ।

    भावार्थ

    (घना इव) आघात करने वाले दण्ड आदि से जिस प्रकार कच्चे घड़े आदि पात्र को तोड़ दिया जाता है या हतौड़े से जिस प्रकार लोहे को पीटा जाता है उसी प्रकार, हे (तपुर्जम्भ) शत्रुओं और दुष्टों को संताप देनेवाले हननकारी शस्त्रों वाले राजन्! सेनापते! (यः) जो (अस्म-ध्रुक्) हमारा द्रोह करता है और (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (अक्तुभिः) शस्त्रों से (अति शिशीते) बहुत अधिक सताता है ऐसे (अरावणः) निर्दय शत्रु को (विश्वक्) सब प्रकार से (वि जहि) विनाश कर (सः) वह (रिपुः) पापी शत्रु (नः) हम पर (मा ईशत) कभी प्रभुता या शासन न करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सेनापती इत्यादी लोक लोखंडाचे घण घालून जसे लोखंड व पाषाणांना तोडतात तसे अधर्मी दुष्ट शत्रूंना नष्टभ्रष्ट करून रात्रंदिवस धर्मात्मा प्रजेचे पालन करण्यास तत्पर असावे. ज्यामुळे शत्रू प्रजेला दुःख देण्यास समर्थ होऊ शकणार नाही. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of fire and justice, whosoever is jealous and destructive toward us, whosoever is ungenerous and an exploiter, destroy wholly with the blow of the thunderbolt. Whosoever bleeds humanity with instruments of torture and death, such an enemy must not rule over us.

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    Subject of the mantra

    Then, again in this mantra, the same chairman of the assembly has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tapurjambha)= destroyer of enemies with wrathful weapons, (senāpate) Commander of army, (viṣvak)= from every direction, (tvamr)=you, (arāvṇaḥ) (ghaneva)= As a pot is broken with a hammer or a stick, so (vijahi)= destroy, (yaḥ)= men, (aktubhiḥ)= carry weapons that lead to death, (asmaddhruk)= those who rebel against us, [aura]= and, (iti)= because of this, (śiśīte)= attenuate, (saḥ)=that, (ripuḥ)=enemy, (naḥ)=for us, (īśata)= disastrous, (mā)=must not be.

    English Translation (K.K.V.)

    O Commander of army, destroyer of enemies with wrathful weapons! You destroy the above stated enemies from every direction, just as a pot is broken with a hammer or a stick. Men carry weapons that lead to death those who rebel against us, they attenuate them because of this.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. People like army chiefs break stones etc. with iron cubes, in the same way, righteous people should be ready to obey the subjects day and night by breaking the limbs of the enemies so that, the enemy may not be able to give sorrow to these people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, possessing powerful destructive weapons, smite down the wicked miserly persons right and left (as potter's ware) with club, Let not the man who plots against us in the night or is inimical to us, nor any foe prevail over us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( तपुर्जम्भ ) तप सन्ताप इत्यस्मात् औणादिकः उसिन् प्रत्यय: सन्ताप्यन्ते शत्रवो यैस्तानि तपूंषि । जभि नाशने इत्यस्मात् करणे घञ् जभ्यन्ते एभिरिति जम्भति आयुधानि यस्य भवतस्तत् सम्बुद्धौ = Possessing destructive weapons. ( अक्तुभिः) अजंति मृत्युं नयन्ति यैस्तैः शस्त्रैः अजू धातोर्बाहुलकात औणादिकस्तुः प्रत्ययः । = From the arms that kill enemies. ( The other meaning of अक्तु according to the Nighantu is night अक्तुरिति रात्रि नाम (निघ० १.७)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankar or simile used in the Mantra. The Commander of an army and others should smite down the limbs of their enemies as artisans break the stones etc. They should then be engaged day and night in preserving their own subjects, so that enemies may not be able to give them trouble.

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