ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 14
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्विष्टारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ऊ॒र्ध्वो नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ नि के॒तुना॒ विश्वं॒ सम॒त्रिणं॑ दह । कृ॒धी न॑ ऊ॒र्ध्वाञ्च॒रथा॑य जी॒वसे॑ वि॒दा दे॒वेषु॑ नो॒ दुवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वः । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः । नि । के॒तुना॑ । विश्व॑म् । सम् । इ॒त्रिण॑म् । द॒ह॒ । कृ॒धि । नः॒ । ऊ॒र्ध्वान् । च॒रथा॑य । जी॒वसे॑ । वि॒दाः । दे॒वेषु॑ । नः॒ । दुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वः । नः । पाहि । अंहसः । नि । केतुना । विश्वम् । सम् । इत्रिणम् । दह । कृधि । नः । ऊर्ध्वान् । चरथाय । जीवसे । विदाः । देवेषु । नः । दुवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(ऊर्ध्वः) सर्वोत्कृष्टः (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (अंहसः) परपदार्थहरणरूपपापात्। अनेर्हुक् च। उ० ४।२२०#। इत्यसुन् प्रत्ययो हुगागमश्च। (नि) नितराम् (केतुना) प्रकृष्टज्ञानदानेन। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। निघं० ३।९। (विश्वम्) सर्वम् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) अत्ति भक्षयत्यन्यायेन परपदार्थान् यः स शत्रुस्तम् (दह) भस्मी (कृधि) कुरु। अत्रान्येषामपीति संहितायां दीर्घः। (नः) अस्मान् (ऊर्ध्वान्) उत्कृष्टगुणसुखसहितान् (चरथाय) चरणाय (जीवसे) जीवितुम्। जीव धातो स्तुमर्थेऽसे प्रत्ययः (विदाः) लम्भाय*। अत्र लोडर्थे लेट्। (देवेषु) विद्वत्स्वृतुषु वा। ऋतवो वै देवाः। श०। (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (दुवः) परिचर्याम् ॥१४॥ #[उ० ४।२१३। इति वै० यं० मुद्रितद्वितीयावृत्तौ।] *[लम्भय। सं०]
अन्वयः
पुनः स कीदृश इत्याह।
पदार्थः
हे सभापते त्वं केतुना प्रज्ञादानेन नोंहसो निपाहि विश्वमत्रिणं शत्रुं संदह ऊर्ध्वस्त्वं चरथाय न ऊर्ध्वान् कृधि देवेषु जीवसे नो दुवो विदाः ॥१४॥
भावार्थः
उत्कृष्टगुणस्वभावेन सभाध्यक्षेण राज्ञा राज्यनियमदण्डभयेन सर्वमनुष्यान् पापात् पृथक्कृत्थ सर्वान् शत्रून् दग्ध्वा विदुषः परिषेव्य ज्ञानसुखजीवनवर्द्धनाय सर्वे प्राणिन उत्कृष्टगुणाः सदा संपादनीयाः ॥१४॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर वह सभापति कैसा होवे, यह अगले मंत्र में कहा है।
पदार्थ
हे सभापते ! आप (केतुना) बुद्धि के दान से (नः) हम लोगों को (अंहसः) दूसरे का पदार्थ हरण रूप पाप से (निपाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये (विश्वम्) सब (अत्रिणम्) अन्याय से दूसरे के पदार्थों को खानेवाले शत्रुमात्र को (संदह) अच्छे प्रकार जलाइये और (ऊर्ध्वः) सबसे उत्कृष्ट आप (चरथाय) ज्ञान और सुख की प्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों को (ऊर्ध्वान्) बड़े-२ गुण कर्म और स्वभाववाले (कृधि) कीजिये तथा (नः) हमको (देवेषु) धार्मिक विद्वानों में (जीवसे) संपूर्ण अवस्था होने के लिये (दुवः) सेवा को (विदाः) प्राप्त कीजिये ॥१४॥
भावार्थ
अच्छे गुण कर्म और स्वभाववाले सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि राज्य की रक्षा नीति और दण्ड के भय से सब मनुष्यों कोपाप से हटा सब शत्रुओं को मार और विद्वानों की सब प्रकार सेवा करके प्रजा में ज्ञान सुख और अवस्था बढ़ाने के लिये सब प्राणियों को शुभगुणयुक्त सदा किया करे ॥१४॥
विषय
फिर वह सभापति कैसा होवे, यह इस मंत्र में कहा है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सभापते त्वं केतुना प्रज्ञादानेन नः अंहसः निपाहि विश्वम् अत्रिणम् शत्रुं सं दह ऊर्ध्वः त्वं चरथाय न ऊर्ध्वान् कृधि देवेषु जीवसे नः दुवः विदाः ॥१४॥
पदार्थ
हे (सभापते)=सभापते! (त्वम्)=आप, (केतुना) प्रकृष्टज्ञानदानेन=प्रकृष्ट ज्ञान के दान से, (नः) अस्मान्=हमें, (अंहसः) परपदार्थहरणरूपपापात्=दूसरे के पदार्थों के हरण रूपी पाप से, (नि) नितराम्=अच्छी तरह से, (पाहि) रक्ष=रक्षा करें। (विश्वम्) सर्वम्=समस्त, (अत्रिणम्) अत्ति भक्षयत्यन्यायेन परपदार्थान् यः स=जो दूसरे के पदार्थों का अन्याय के साथ अत्त्यन्त भक्षण करता है, (शत्रुस्तम्)=उस शत्रु को, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (दह) भस्मी=भस्म कर दो। ऐसे (ऊर्ध्वः) सर्वोत्कृष्टः=सर्वोत्कृष्ट, (त्वम्)=तुम, (चरथाय) चरणाय=चलने के, (न)=समान, (ऊर्ध्वान्) उत्कृष्टगुणसुखसहितान्=लोगों को उत्कृष्ट गुण और सुख सहित, (कृधि) कुरु=कीजिये। (देवेषु) विद्वत्स्वृतुषु वा=या विद्वानों में, (जीवसे) जीवितुम्=प्राणधारियों के लिये, और, (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा=और हमारे लिये, (दुवः) परिचर्याम्=सेवा को, (विदाः) लम्भय=प्राप्त कराइये ॥१४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
अच्छे गुण कर्म और स्वभाव के द्वारा सभाध्यक्ष राजा राज्य के नियम के दण्ड के भय से सब मनुष्यों को पाप से हटा कर, सब शत्रुओं को मार कर, विद्वानों की सब प्रकार सेवा करके, ज्ञान से सुख और आयु बढ़ाने के लिये सब प्राणियों को उत्कृष्ट गुणों को सदा प्राप्त करायें ॥१४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सभापते) सभापते! (त्वम्) आप (केतुना) प्रकृष्ट ज्ञान के दान से (नः) हमारी (अंहसः) दूसरे के पदार्थों के हरण रूपी पाप से (नि) अच्छी तरह से (पाहि) रक्षा करें। (अत्रिणम्) जो दूसरे के पदार्थों का अन्याय के साथ अत्त्यन्त भक्षण करता है, (शत्रुस्तम्) उस शत्रु को और (विश्वम्) जो उस समस्त को (सम्) अच्छी तरह से (दह) भस्म कर दो। [ऐसे] (ऊर्ध्वः) सर्वोत्कृष्ट (त्वम्) तुम (चरथाय) चलने के (न) समान (ऊर्ध्वान्) लोगों को उत्कृष्ट गुण और सुख सहित (कृधि) कीजिये (देवेषु) या विद्वानों में, (जीवसे) प्राणधारियों के लिये और (नः) और हमारे लिये (दुवः) सेवा को (विदाः) प्राप्त कराइये ॥१४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ऊर्ध्वः) सर्वोत्कृष्टः (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (अंहसः) परपदार्थहरणरूपपापात्। अनेर्हुक् च। उ० ४।२२०#। इत्यसुन् प्रत्ययो हुगागमश्च। (नि) नितराम् (केतुना) प्रकृष्टज्ञानदानेन। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। निघं० ३।९। (विश्वम्) सर्वम् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) अत्ति भक्षयत्यन्यायेन परपदार्थान् यः स शत्रुस्तम् (दह) भस्मी (कृधि) कुरु। अत्रान्येषामपीति संहितायां दीर्घः। (नः) अस्मान् (ऊर्ध्वान्) उत्कृष्टगुणसुखसहितान् (चरथाय) चरणाय (जीवसे) जीवितुम्। जीव धातो स्तुमर्थेऽसे प्रत्ययः (विदाः) लम्भाय*। अत्र लोडर्थे लेट्। (देवेषु) विद्वत्स्वृतुषु वा। ऋतवो वै देवाः। श०। (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (दुवः) परिचर्याम् ॥१४॥ #[उ० ४।२१३। इति वै० यं० मुद्रितद्वितीयावृत्तौ।] *[लम्भय। सं०]
विषयः- पुनः स कीदृश इत्याह।
अन्वयः- हे सभापते त्वं केतुना प्रज्ञादानेन नोंहसो निपाहि विश्वमत्रिणं शत्रुं संदह ऊर्ध्वस्त्वं चरथाय न ऊर्ध्वान् कृधि देवेषु जीवसे नो दुवो विदाः ॥१४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- उत्कृष्टगुणस्वभावेन सभाध्यक्षेण राज्ञा राज्यनियमदण्डभयेन सर्वमनुष्यान् पापात् पृथक्कृत्थ सर्वान् शत्रून् दग्ध्वा विदुषः परिषेव्य ज्ञानसुखजीवनवर्द्धनाय सर्वे प्राणिन उत्कृष्टगुणाः सदा संपादनीयाः ॥१४॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वोपरि विराजमान परब्रह्म आप (ऊर्ध्वः) सबसे उत्कृष्ट हो, हमको कृपा से उत्कृष्ट गुणवाले करो तथा ऊर्ध्वदेश में हमारी रक्षा करो। हे सर्वपापप्रणाशकेश्वर! हमको (केतुना) विज्ञान, अर्थात् विविध विद्यादान देके (अंहसः) अविद्यादि महापाप से (निपाहि) नितरां पाहि - सदैव अलग रक्खो तथा (विश्वम्) इस सकल संसार का भी नित्य पालन करो। हे सत्यमित्र न्यायकारिन् ! जो कोई प्राणी (अत्रिणम्) हमसे शत्रुता करता है उसको और काम-क्रोधादि शत्रुओं को आप (सन्दह) सम्यक् भस्मीभूत करो (अच्छे प्रकार जलाओ), (कृधी न ऊर्ध्वान्) हे कृपानिधे ! हमको विद्या, शौर्य, धैर्य, बल, पराक्रम, चातुर्य, विविध धन, ऐश्वर्य, विनय, साम्राज्य, सम्मति, सम्प्रीति, स्वदेशसुख-सम्पादनादि गुणों में सब नरदेहधारियों से अधिक उत्तम करो तथा (चरथाय, जीवसे) सबसे अधिक आनन्द, भोग, सब देशों में अव्याहतगमन (इच्छानुकूल जाना-आना), आरोग्यदेह, शुद्ध मानसबल और विज्ञान इत्यादि के लिए हमको उत्तमता और अपनी पालनायुक्त करो, (विदा) विद्यादि उत्तमोत्तम धन (देवेषु) विद्वानों के बीच में प्राप्त करो, अर्थात् विद्वानों के मध्य में भी उत्तम प्रतिष्ठायुक्त सदैव हमको रक्खो ॥ १६॥
विषय
अत्रि - संदाह
पदार्थ
१. हे प्रभो ! आप (ऊर्ध्वः) - सदा उन्नत हुए - हुए, अप्रमत्त हुए - हुए (नः) - हमें (अंहसः) - पाप से (पाहि) - बचाइए । आपकी रक्षा से सुरक्षित हुआ मैं पाप के आक्रमण से आक्रान्त न हो जाऊँ ।
२. हे प्रभो ! आप (केतुना) - उत्तम निवास व नीरोगता को प्राप्त करानेवाले ज्ञान के द्वारा (विश्वम्) हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाले (अत्रिणम्) - हमें खा जानेवाले ये काम - क्रोध व लोभ दग्ध हो जाएँ और हमारा दहन करनेवाले न रहें ।
३. (नः) - हमें (ऊर्ध्वान्) - उन्नत व आलस्यरहित (कृधि) - कीजिए । (चरथाय) - हम उन्नति के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ सकें तथा (जीवसे) - उत्तम जीवन जीनेवाले बनें ।
४. हे प्रभो ! आप (देवेषु) - विद्वानों में (नः) - हमारी (दुवः) - परचर्या को (विदाः) - प्राप्त कराइए । हम सदा उत्तम गुणोंवाले विद्वानों का सङ्ग व उनकी सेवा करनेवाले बनें ताकि हमारा जीवन उत्तम बने ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - कृपा से हम उत्तम विद्वानों का सङ्ग व उनकी सेवा करते हुए अपने - आपको पापों से आक्रान्त होने से बचा सकें तथा काम - क्रोधादि को भस्म करके जीवन को सुन्दर व उन्नत करनेवाले हों ।
विषय
प्रजाभक्षकों का दमन ।
भावार्थ
हे राजन्! तू (ऊर्ध्वः) हमारे सबके सर्वोपरि पदपर स्थित होकर (नः) हमें (अंहसः) अधर्माचरण, पाप से (नि पाहि) रक्षा कर। और (केतुना) ज्ञान द्वारा (विश्वम्) समस्त (अत्रिणम्) लूट पाट कर खानेवाले दुष्ट पुरुषों को (सम् दह) अच्छी प्रकार भस्म कर। (नः) हमें (चरथाय) धर्माचरण और (जीवसे) दीर्घ जीवन के प्राप्त करने के लिए (ऊर्ध्वान् कृधि) उत्तम बना, हमें भी ऊंचा कर। (देवेषु) विद्वानों में (नः) हमारे (दुवः) उत्तम आचरण आदि (विदाः) प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥
मराठी (2)
भावार्थ
उत्कृष्ट गुण कर्म स्वभावाच्या सभाध्यक्ष राजाने राज्याच्या रक्षण नीतीनुसार व दंडाच्या भयाने सर्व माणसांना पापापासून दूर करून सर्व शत्रूंना नष्ट करावे. विद्वानांची सर्व प्रकारे सेवा करून प्रजेमध्ये ज्ञान व सुख वाढविण्यासाठी सर्व प्राण्यांना सदैव शुभगुणयुक्त करावे. ॥ १४ ॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे सर्वात श्रेष्ठ असून सर्वत्र विराजमान असणाऱ्या परब्रह्मा! तू (ऊर्ध्वः) म्हणजे सर्वात उत्कृष्ट आहेस म्हणून आम्हाला कृपाकरून उत्कृष्ट गुणांनी युक्त कर, उर्ध्वदेशात आमचे रक्षण कर. हे पापाचा नाश करणाऱ्या ईश्वरा! आम्हाला (केतुना) विज्ञान अर्थात् विविध प्रकारच्या विद्येचे दान कर, (अंहसः) अविद्यादी महापापापासून (निपाही) नेहमी दूर ठेव व (विश्वम्) या सर्व जगाचेही नित्य पालन कर. हे सत्य मित्रा, न्यायी [परमेश्वरा] ! जो कोणी प्राणी (अत्रिणम्) आमच्याशी शत्रुत्व करतो त्याला व कमा क्रोध इत्यादी शत्रूचे (सन्दह) तू संपूर्ण दहन कर. (कृधी न ऊर्ध्वान्) हे कृपानिधे ! आम्हाल दिया, शौर्य, बल, पराक्रम, चातुर्य, विविध प्रकारचे धन ऐश्वर्य, विनय, साम्राज्य, संपत्ती, संप्रीती, स्वदेश, सुखसंपादन, इत्यादी गुणांत सर्व मनुष्यापेक्षा वरचढ करावे. तसेच (चरथाय जीवसे) सर्वात जास्त आनंद, भोग, सर्व देशात आवागमन, देहाचे आरोग्य शुद्ध मन, आणि विज्ञान इत्यादी देऊन आम्हाला उत्तम बनवुन आमचे रक्षण कर. (विदा) विद्या इत्यादी उत्तम धन देऊन (देवेषु) विद्वानांमध्ये मान्यता मिळावी अर्थात विद्वानांमध्ये उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त व्हावी असे कर.॥१६॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Agni, high and great, save us from sin and evil with the gift of intelligence and knowledge. Bum up all grabbing and robbing of other’s food and freedom. Help us rise to the heights of knowledge, comfort and happiness for a full life. Accept our prayer that we may rise to our place among the noble and the brilliant.
Purport
O the Supreme Lord ! You are shining in your infinite glory above all. You are unsurpassable-greatest of all.By your kind grace make our lives full of excellent virtues spheres of life . O the destroyer of all sins-evils ! Bestow upon us knowledge of different types, always protect us universe-the dwellers of the universe. O True Friend of all and dispenser of Justice ! Destroy him who has enemity towards us and also put to ashes our internal foes like lust anger and such others. O the Ocean of knowledge, valour, persevernce, strength, prowess, cleverness, marerial wealth of all sorts, fortune, humility, sovereignty. good counsel, love with fellow men and an inclination to work for the happiness of the motherland. O Lord ! Be gracious to make us of high charater and rear up in such a way that we may enjoy the greatest bliss, freedom of movement in all countries without prevention- free movements according to our will, perfect bodily health, purity and strength of mind and scientific knowledge. Bestow upon us the highest wealth of knowledge and always keep us venerable among the scholars.
Subject of the mantra
Then, what kind of that president of assembly should be? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sabhāpate)=president of assembly, (tvam)=you, (ketunā)=by gift of knowledge eminently, (naḥ)=our, (aṃhasaḥ)= from the sin of stealing of other's goods, (ni)= properly, (pāhi)=protect, (viśvam)=which to all that, (atriṇam)= who eats excessively the things of others unjustifiably, (śatrustam)= to that enemy, (sam)= thoroughly, (daha)=burn, [aise]=such, (ūrdhvaḥ)= par excellence, (tvam)=you, (carathāya)=moving, (na)=like, (ūrdhvān) =to people with excellent virtues and pleasures,(kṛdhi)=do, (deveṣu)=or in scholars, (jīvase)=for living beings and, (naḥ)=and for us, (duvaḥ)=service, (vidāḥ)=get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O President of the assembly! You protect us well from the sin of stealing of other's material by the gift of manifest knowledge. Whoever eats excessively the things of others unjustifiably, burn that enemy and all the things thoroughly. Like the best you walk, make people with excellent virtues and happiness or get service for living beings and for us among scholars.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By nature of good qualities, deeds and nature, by removing all human beings from sin, by killing all enemies, by serving the scholars in all kinds of ways, for increasing happiness and life by knowledge, all living beings always must get excellent the qualities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Agai) is taught further in the 14th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, ever keep us away from the sin (of taking away others' articles etc.) by bestowing upon us the right knowledge. Completely scorch away the foe that eats away others' substances unjustly. Being exalted yourself on account of your noble virtues, raise us above all our fellow men in knowledge, valor, fortitude, strength and other merits, so that we may enjoy great happiness and bliss in life. Bestow upon us riches and learning that we may command respect even among the elite.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ऊर्ध्व:) सर्वोत्कृष्ट: = Most exalted. ( अहसः ) परपदार्थहरणरूपपापात् From the sin of taking away others' articles etc. अमेहुक् च ( उणादि० ४.२२० ) इत्यसुन् प्रत्ययो हुगागमश्च (केतुना ) प्रकृष्टज्ञानदानेन केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम् ( निघ० ३.९ ) । ==By giving good or right knowledge. ( अत्रिणम् ) अत्ति-भक्षयति अन्यायेन परपदार्थान् यः स शत्रुः तम् । = The foe who eats away others' substances or property unjustly. (दुव:) परिचर्याम् = Service.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly who is exalted on account of noble virtues and good temperament should keep all men away from sin with the fear, of the punishment for the transgression of the laws of the State. He should burn away all wicked foes, should keep with enlightened persons and make all endowed with noble virtues for the growth of knowledge, happiness and life.
Translator's Notes
In the Aryabhivinaya giving the spiritual meaning of the Mantra, Rishi Dayananda has taken अग्नि for God and prayer is addressed to Him to keep men' away from sins and making them noble. The whole meaning in the case of God as given by Rishi Dayananda Sarasvati in the Aryabhivinaya is to the effect. O Great God, shining in Thy Infinite glory above all, Thou surpassest all in goodness. Vouchsafe that we may attain great virtues and protect us in the higher spheres of life. O Lord, Destroyer of all evils, bestow upon us right knowledge and ever keep us away from sins. O True Friend of mankind, do Thou completely scorch away the foe that eats away our substance and worries us, and also anger, lust and other evil passions. The rest as given above. The previous Mantra has a spiritual meaning also which is as follows- O our Supreme Leader, stand up erect (so to speak) for our protection from all that is low, mean, sinful and degrading. Stand up like the Sun over us, giving us light. Be always with and over us, giving us strength, when with the help of the hymns and wise devotees singing Thy glory, we call on Thee. We remember and meditate on Thee).
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वोपरि विराजमान परब्रह्म ! तपाईं उर्ध्वः = सबैभन्दा उत्कृष्ट हुनुहुन्छ, हामीलाई स्वकृपा द्वारा उत्कृष्ट गुण हरु ले युक्त गर्नुहोस् तथा ऊर्ध्वदेश अर्थात् उच्च स्थान मा हाम्रो रक्षा गर्नु होला । हे सर्व पापप्रणाशक ईश्वर ! हामीलाई केतुना = विज्ञान अर्थात् विविध थरिका विद्या हरु को दान दिएर अंहसः = अविद्यादि महापाप हरु बाट निपाहि= नितरं पाहि सदैब अलग्ग राख्नु होस् तथा विश्वम् = एस सकल संसार को पनि नित्य पालन गर्नु होला । हे सत्यमित्र न्यायकारिन् ! जुनसुकै प्राणी अत्रिणम् = हामीसंग शत्रुता गर्दछ तेसलाई र काम क्रोधादि शत्रुहरु लाई तपाईं सन्दह- सम्यक् अर्थात् राम्रोसंग भस्मीभूत गरिदिनु होस् - राम्रो संग जलाई दिनुहोस्, कृधी न ऊर्ध्वान् = हे कृपानिधे ! हामीलाई विद्या, शौर्य, धैर्य, बल, पराक्रम, चातुर्य, विविध धन, ऐश्ववर्य, विनय, साम्राज्य, सम्मति, सम्प्रीति, स्वदेशसुख सम्पादनादि गुणहरुमा सम्पूर्ण नरदेहधारि हरु भन्दा धेरै उत्तम बनाई दिनुहोस् तथा चरथाय, जीवसे = सबै भन्दा धेर आनन्द, भोग, सबै देशहरुमा अव्याहतगमन इच्छानुकूल जानु आउनु, आरोग्यपूर्ण शरीर शुद्ध मानस बल र विज्ञान इत्यादिका लागि हामीलाई उत्तमता र आफ्नो आज्ञा पालन गर्ने गुण ले युक्त गर्नुहोस्, विदा = विद्यादि उत्तमोत्तम धन देवेषुनः दुव:- विद्वान् हरु का माझ मा हामीलाई पुऱ्याउनु होस् अर्थात् विद्वान्वर्ग का माझ मा पनि हामीलाई उत्तम प्रतिष्ठा ले युक्त राख्नु होस् ॥१६॥
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