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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पथ्याबृहती स्वरः - मध्यमः

    पा॒हि नो॑ अग्ने र॒क्षसः॑ पा॒हि धू॒र्तेररा॑व्णः । पा॒हि रीष॑त उ॒त वा॒ जिघां॑सतो॒ बृह॑द्भानो॒ यवि॑ष्ठ्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । र॒क्षसः॑ । पा॒हि । धू॒र्तेः । अरा॑व्णः । पा॒हि । रिष॑तः । उ॒त । वा॒ । जिघां॑सतः । बृह॑द्भानो॒ इति॑ बृह॑त्ऽभानो । यवि॑ष्ठ्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाहि । नः । अग्ने । रक्षसः । पाहि । धूर्तेः । अराव्णः । पाहि । रिषतः । उत । वा । जिघांसतः । बृहद्भानो इति बृहत्भानो । यविष्ठ्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (अग्ने) सर्वाग्रणीः सर्वाभिरक्षक (रक्षसः) महादुष्टान्मनुष्यात् (पाहि) (धूर्त्तेः) विश्वासघातिनः। अत्र धुर्वी धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः। (अराव्णः) राति ददाति स रावा न अरावा रावा तस्मात्कृपणाददानशीलात् (पाहि) रक्ष (रिषतः) हिंसकाद्व्याघ्रादेः प्राणिनः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इतिदीर्घः। (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (जिघांसतः) हन्तुमिच्छतः शत्रोः (बृहद्भानो) बृहन्ति भानवो विद्याद्यैश्वर्य्यतेजांसि यस्य तत्संबुद्धौ (यविष्ठ्य) अतितरुणावस्थायुक्त ॥१५॥

    अन्वयः

    पुनः तं प्रति प्रजासेनाजनाः किङ्किम्प्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे बृहद्भानो यविष्ठ्याग्ने सभाध्यक्ष महाराज त्वं धूर्तेरराव्णो रक्षसो नः पाहि। रिषतः पापाचाराज्जनात् पाहि। उत वा जिघांसतः पाहि ॥१५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वतोभिरक्षणाय सर्वाभिरक्षको धर्म्मोन्नतिं चिकीर्षुर्दयालुः सभाध्यक्षः सदा प्रार्थनीयः स्वैरपि दुष्टस्वभावेभ्यो मनुष्यादिप्राणिभ्यः सर्वपापेभ्यश्च शरीरवचोमनोभिर्दूरे स्थातव्यं नैवं विना कश्चित्सदा सुखी भवितुमर्हति ॥१५॥

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    हिन्दी (7)

    विषय

    फिर उस सभाध्यक्ष राजा से प्रजा और सेना के जन क्या-२ प्रार्थना करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (बृहद्भानो) बड़े-२ विद्यादि ऐश्वर्य्य के तेजवाले (यविष्ठ्य) अत्यन्त तरुणावस्थायुक्त (अग्ने) सब से मुख्य सबकी रक्षा करनेवाले मुख्य सभाध्यक्ष महाराज ! आप (धूर्तेः) कपटी अधर्मी (अराव्णः) दान धर्म रहित कृपण (रक्षसः) महाहिंसक दुष्ट मनुष्य से (नः) हमको (पाहि) बचाइये (रिषतः) सबको दुःख देनेवाले सिंह आदि दुष्ट जीव दुष्टाचारी मनुष्य से हमको पृथक् रखिये (उत) और (वा) भी (जिघांसतः) मारने की इच्छा करते हुए शत्रु से हमारी रक्षा कीजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि सब प्रकार रक्षा के लिये सर्वरक्षक धर्मोन्नति की इच्छा करनेवाले सभाध्यक्ष की सर्वदा प्रार्थना करें और अपने आप भी दुष्ट स्वभाववाले मनुष्य आदि प्राणियों और सब पापों से मन वाणी और शरीर से दूर रहें क्योंकि इस प्रकार रहने के विना कोई मनुष्य सर्वदा सुखी नहीं रह सकता ॥१५॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = हे  ( बृहद्धानो ) = सब से बड़े तेजस्विन्  ( यविष्ठ्य ) = महाबलिन्  ( अग्ने ) = ज्ञानस्वरूप प्रभो!  ( नः ) = हमें  ( रक्षसः ) = राक्षसों से  ( पाहि ) = बचाओ  ( धूर्तेः अराव्णः ) = धूर्त, ठग, कृपण, स्वार्थियों से  ( पाहि ) =  बचाओ  ( रीषत: ) = पीड़ा देनेवाले  ( उत ) =  और अथवा  ( जिघांसत: ) = हनन करने की इच्छा करनेवाले से  ( पाहि ) = रक्षा करो । 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे महाबली तेजस्वी सबके नेता परमात्मन्! राक्षस, धूर्त, कृपण, कंजूस, मक्खीचूस, स्वार्थान्ध पुरुषों से हमारी रक्षा कीजिए और जो दुष्ट, हमें पीड़ा देने तथा जो दुष्ट शत्रु, हमारे नाश की इच्छा करनेवाले हैं ऐसे पापी लोगों से हमें सदा बचाओ । हम आपकी कृपा से सुरक्षित होकर अपना और जगत् का कुछ भला कर सकें ।

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    विषय

    फिर उस सभाध्यक्ष राजा से प्रजा और सेना के जन क्या- क्या प्रार्थना करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे बृहद् भानो यविष्ठ्य अग्ने सभाध्यक्ष महाराज त्वं धूर्तेः अराव्णः रक्षसः नः पाहि। रिषतः पापाचारात् जनात् पाहि। उत वा जिघांसतः पाहि ॥१५॥

    पदार्थ

    हे  (बृहद्भानो) बृहन्ति भानवो विद्याद्यैश्वर्य्यतेजांसि यस्य=बड़े-बड़े विद्यादि ऐश्वर्य्य के तेजवाले सूर्य  को ऊपर उठाने के लिये, (यविष्ठ्य) अतितरुणावस्थायुक्त=अति तरुण अवस्था युक्त, (अग्ने) सर्वाग्रणीः सर्वाभिरक्षक=सबसे अग्रणी और सबके रक्षक, (सभाध्यक्ष)=सभाध्यक्ष, (महाराज)=महाराज, (त्वम्)=आप, (धूर्त्तेः) विश्वासघातिनः= विश्वास घातियों और (अराव्णः) राति ददाति स रावा न अरावा रावा तस्मात्कृपणाददानशीलात्=दान देने में कृपण आदि स्वभाव के, (रक्षसः) महादुष्टान्मनुष्यात्=महादुष्ट मनुष्य से, (नः) अस्मान्=हमारी, (पाहि) रक्ष=रक्षा करो।  (रिषतः) हिंसकाद्व्याघ्रादेः प्राणिनः=हिंसक व्याघ्र आदि  प्राणियों से, और (पापाचारात्)=पाप के आचरण से, (उत) अपि=भी, (जनात्)=लोगों की, (पाहि) रक्ष=रक्षा करो, (वा) पक्षान्तरे=अथवा, (जिघांसतः) हन्तुमिच्छतः शत्रोः=मारने की इच्छावाले शत्रु से, (पाहि) रक्ष=रक्षा करो ॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा सब प्रकार से रक्षा के लिये सर्वरक्षक धर्म की उन्नति की इच्छा करनेवाले सभाध्यक्ष की सर्वदा प्रार्थना करनी चाहिए। अपने भी दुष्ट स्वभाववाले मनुष्य आदि प्राणियों और सब पापों से, शरीर, वाणी और मन से दूर स्थापित करना चाहिए, इसके विना कोई मनुष्य सदा सुखी नहीं रह सकता है॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (बृहद्भानो) बड़े-बड़े विद्यादि ऐश्वर्य्य के तेजवाले सूर्य  को ऊपर उठाने के लिये (यविष्ठ्य) अति तरुण अवस्था युक्त (अग्ने) सबसे अग्रणी और सबके रक्षक (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष (महाराज) महाराज! (त्वम्) आप (धूर्त्तेः) विश्वासघातियों और (अराव्णः) दान देने में कृपण आदि स्वभाव के (रक्षसः) महादुष्ट मनुष्य से (नः) हमारी (पाहि) रक्षा करो। (रिषतः) हिंसक व्याघ्र आदि  प्राणियों से और (पापाचारात्) पाप के आचरण से (उत) भी (जनात्) लोगों की (पाहि) रक्षा करो (वा) अथवा, (जिघांसतः) मारने की इच्छावाले शत्रु से (पाहि) रक्षा करो ॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (अग्ने) सर्वाग्रणीः सर्वाभिरक्षक (रक्षसः) महादुष्टान्मनुष्यात् (पाहि) (धूर्त्तेः) विश्वासघातिनः। अत्र धुर्वी धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः। (अराव्णः) राति ददाति स रावा न अरावा रावा तस्मात्कृपणाददानशीलात् (पाहि) रक्ष (रिषतः) हिंसकाद्व्याघ्रादेः प्राणिनः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इतिदीर्घः। (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (जिघांसतः) हन्तुमिच्छतः शत्रोः (बृहद्भानो) बृहन्ति भानवो विद्याद्यैश्वर्य्यतेजांसि यस्य तत्संबुद्धौ (यविष्ठ्य) अतितरुणावस्थायुक्त ॥१५॥ 
    विषयः- पुनः तं प्रति प्रजासेनाजनाः किङ्किम्प्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे बृहद्भानो यविष्ठ्याग्ने सभाध्यक्ष महाराज त्वं धूर्तेरराव्णो रक्षसो नः पाहि। रिषतः पापाचाराज्जनात् पाहि। उत वा जिघांसतः पाहि ॥१५॥ 

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वतोभिरक्षणाय सर्वाभिरक्षको धर्म्मोन्नतिं चिकीर्षुर्दयालुः सभाध्यक्षः सदा प्रार्थनीयः स्वैरपि दुष्टस्वभावेभ्यो मनुष्यादिप्राणिभ्यः सर्वपापेभ्यश्च शरीरवचोमनोभिर्दूरे स्थातव्यं नैवं विना कश्चित्सदा सुखी भवितुमर्हति ॥१५॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    (अग्ने) हे सर्वशत्रुदाहकाग्ने परमेश्वर ! (रक्षसः) राक्षस, हिंसाशील, दुष्टस्वभाव देहधारियों से (नः) हमारी (पाहि) पालना और रक्षा करो। (धूर्तैरराव्णः)  कृपण, जो धूर्त्त उस मनुष्य से भी (पाहि) हमारी रक्षा करो। (रीषतः उत वा जिघांसतः)  जो हमको मारने लगे तथा जो मारने की इच्छा करता है, (बृहद्धानो यविष्ठ्य) हे महातेज, बलवत्तम! (पाहि) उन सबसे हमारी रक्षा करो ॥ १२ ॥

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    विषय

    अहिंसाव्रत

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! आप (नः) - हमें (रक्षसः) - अपने रमण के लिए औरों का क्षय करने की वृत्तिवाले पुरुषों से (पाहि) - बचाइए । इनके सम्पर्क में आकर हम भी ऐसे न बन जाएँ । 
    २. (अराव्णः) - न देनेवाले पुरुष की (धूर्तेः) - हिंसा से हमें (पाहि) - बचाइए ।
    ३. (रीषतः) - हिंसक व्याघ्र आदि पशुओं से भी (पाहि) - हमारा रक्षण कीजिए । प्रभुकृपा से हम इन व्याघ्रादि के उपद्रवों से बचे रहें ।
    ४. हे (बृहद् भानो) - महान् ज्ञान के प्रकाश करनेवाले प्रभो ! (यविष्ठा) - ज्ञान के द्वारा ही बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों का हमारे साथ सम्पर्क करनेवालों में उत्तम प्रभो ! (उत वा) - और निश्चय से (जिघांसतः) - हमारा हनन करने की इच्छावाली द्रोहवृत्तिवाले पुरुषों से भी हमें बचाइए । 
    ५. मन्त्र में 'इन - इनसे बचाइए' इस प्रकार प्रार्थना के द्वारा यही अभिप्रेत है कि हम वैसे न बन जाएँ, अर्थात् [क] (रक्षसः) - हम अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले न हों । [ख] (धूर्तेः) - हम हिंसक न हों । [ग] (अराव्णः) - न देने की वृत्तिवाले न हों । [घ] (रीषतः) - व्याघ्रादि की भाँति हानि पहुँचानेवाले न बनें । [ङ] (जिघांसतः) - हममें घातपात की वृत्ति न उत्पन्न हो जाए । ६. इस प्रकार का बनने के लिए हम प्रभु की उपासना से (बृहद् भानुः) - खूब ही ज्ञान - दीप्तिवाले बनें तथा (यविष्ठाः) - पाप से अमिश्रण व भद्र से मिश्रण करनेवालों में उत्तम हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से ज्ञान को बढ़ाकर हम हिंसकवृत्ति से अपने को ऊपर उठानेवाले हों, अहिंसाव्रत का पालन करें । 
     

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    विषय

    प्रजाभक्षकों का दमन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी! नायक! राजन्! हे (बृहद्-भानो) विशाल तेजों, विद्या, ऐश्वर्य आदि नाना प्रभावों वाले! हे (यविष्ट्य) हृष्ट पुष्ट, जवान के समान सदा बलशालिन्! (नः) हमें (रक्षसः) राक्षस, अति दुष्ट पुरुषों से (पाहि) बचा। और तू (अराव्णः) अदानशील, अति कृपण (धूर्त्तेः) विश्वासघाती, धूर्त्त, हिंसक पुरुष से भी (पाहि) बचा। (रिषतः) हिंसा करनेवाले व्याघ्र आदि पशु और आक्रमणकारी पुरुष से (उत वा) और (जिघांसतः) हमें घात करने की इच्छा करनेवाले से भी (पाहि) बचा। इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    पाहि नो अग्ने रक्षस:, पाहि धूर्तेरराव्णा:। 
    पाहि रीषत उत वा जिघांसतो, बृहदभानो यविष्ठ्य।। 
                                             ऋ॰१.३६.१५
                      वैदिक भजन ११६० वां
                               राग काफी
                गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
                  ‌‌‌‌  ‌‌ ताल कहरवा आठ मात्रा
                                  भाग १
    राक्षसों का उपद्रव जब कष्ट लाता है 
    सज्जनों का जीवन- संकट बढ़ जाता है 
    राक्षसों ....... 
    दुष्ट,दस्यु,पापात्मा तो हैं ही राक्षस
    हमको रक्षा की चिंता हो जाती है  तब 
    ये 'अरावा' दस्यु भय दिखाता है ।।
    राक्षसों........ 
    चोर, डाकू, लुटेरे, ठग, तस्करी लोग 
    है अदानी कृपण मन में है नित्य लोभ 
    धन का संचय ही इनको सठियाता है।। 
    राक्षसों......... 
    इसे आर्थिक विषमता हो जाती उत्पन्न 
    दानशीलता जग में हो जाती है कम 
    इनकी संख्या से जी भी घबराता है 
    राक्षसों......... 
    कुछ लोग हैं हिंसक प्रवृत्ति वाले 
    हत्या रूप महापाप है कर्म काले 
    मासूमों की हत्या को उकसाता है।।
    राक्षसों........ 
                                  ‌ भाग 2
    राक्षसों का उपद्रव जब कष्ट लाता है 
    सज्जनों का जीवन-संकट बढ़ जाता है 
    राक्षसों....... 
    बृहदभानु हे अग्ने बलदाता भगवन्! 
    अग्निज्वाला महातेज वाले प्रहण 
    राक्षसों को मिटाना भी आता है 
    राक्षसों....... 
    हम नहीं चाहते हाथ पे हाथ धरना 
    वरना सीखेंगे क्या अपनी रक्षा करना ?
    इसलिए तुमसे बल मांगा जाता है ।।
    राक्षसों,,,,,,,,, 
    हे ' यविष्ठ!' युवत्तम तरुण बलवत्तम 
    नित्य तरुण तेजस्वी बना दो प्रहण 
    रक्षा करना समाज की भाता है।। 
    राक्षसों....... 
    राक्षसी- वृत्ति वालों को नष्ट करें
    दिव्य शक्ति दो हमसे धर्मात्मा बनें
    सज्जन, दैत्य- समाज मिटाता है ।। 
    राक्षसों...... 
             २७.१०.२०२३   १२.५० दोपहर
                           शब्दार्थ :-
    दस्यु= डाकू, लुटेरा शत्रु
    अरावा= अदानशील, कृपण, कंजूस
    कृपण =कंजूस
    सठियाना= मानसिक शक्ति कमजोर होना
    विषमता=असमानता
    बृहद्भानु= महान तेज वाला
    प्रहण= बहुत दयालु और उदार
    यविष्ठ=तरुणतम

    🕉🧘‍♂️ द्वितीय श्रृंखला का १५३ वां  वैदिक भजन
    और अब तक का ११६० वां  वैदिक भजन,🎧🙏
    🕉🧘‍♂️ वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏

     

    Vyakhya

    रक्षा करो, रक्षा करो
    समाज में जब राक्षसों का उपद्रव बढ़ जाता है,तब सज्जनों का जीवन और उनके द्वारा किए जाने वाले धर्म- कर्म संकट में पड़ जाते हैं। वे दुष्ट दस्यु पाप-आत्मा लोग राक्षस कहाते हैं, जिनसे सबको अपनी रक्षा करने की चिन्ता हो जाती है, या तो एकान्त पाकर अपना घात लगाते हैं। चोर, डाकू, लुटेरे,गिरहकट, तस्कर-व्यापारी आदि इसी श्रेणी के लोग होते हैं। समाज में कुछ व्यक्ति अरावा अर्थात् अदानशील और कृपण प्रवृत्ति के होते हैं। ये लोग धन को अपने पास बटोरकर  रख लेते हैं जिससे समाज में अधिक विषमता उत्पन्न हो जाती है। आर्थिक विषमता को दूर करने का वैदिक उपाय दानशीलता ही है। पर जब कृपाण (अरावा) लोगों की संख्या बढ़ने लगती है, तब यह लोग देश और समाज के लिए हानिकर और अभिशाप रूप सिद्ध होते हैं। तीसरे कुछ लोग हिंसा की प्रवृत्ति वाले होते हैं, जो हत्या-रूप महापाप करने में आनन्द लेते हैं। यह धन आदि के लोभ में शिशुओं,तरुणों, युवतियों का वध कर देते हैं और एक हत्या करके दूसरी हत्या की योजना तैयार करते हैं। यह सब लोग समाज के वातावरण को दूषित करने वाले हैं। राज्यशास्त्रकारों ने इनके लिए राज दण्ड का विधान किया है । 
    हे अग्ने! अग्रणी परमात्मन् ! तुम बृहद्भानु हो, अग्नि- ज्वालाओं से भी अधिक महातेज है। तुम 'यविष्ठ्य' हो, युवतम हो,अतिशय तरुण एवं बलवत्तम हो। अतः तुम उपर्युक्त सब अवांछित लोगों से हमारी रक्षा करने में समर्थ हो। पर हम यह नहीं जानते कि हम हाथ पैर हाथ धरे बैठे रहें और तुम आकर हमारी रक्षा कर जाओ। जब हम तुमसे यह प्रार्थना करते हैं कि तुम ,' राक्षस ' से)अरावा) से हिंसक से और हिंसा का मन्सूबा बांधने वाले से हमारी रक्षा करो, तब हमारा यही आशय है कि तुम हमें भी अपने जैसा तेजस्वी और नित्य तरुण बना दो, जिससे हम दुर्जनों से अपनी और अपने समाज की रक्षा कर सकें। हमें तुम इनका प्रतिरोध करने की इन्हें पराजित करने की, और इनका समूल उन्मूलन करने की शक्ति दो। और इससे भी बड़ी वह दिव्य शक्ति दो कि हम इनकी राक्षसी वृत्ति को कृपणता को और हिंसा प्रवृत्ति को नष्ट कर इन्हें भी अपने जैसा धर्मात्मा बना लें जिससे दूसरा का नग्न ताण्डव हमारे समाज से सदा के लिए मिट जाए और पवित्रता के वातावरण में श्वास ले सकें। 

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी सर्व प्रकारच्या रक्षणासाठी सर्वरक्षक, धर्माच्या उन्नतीसाठी इच्छा बाळगणाऱ्या सभाध्यक्षाची सदैव प्रार्थना करावी व स्वतः सर्व पापांपासून मन, वाणी, शरीराने दूर राहून दुष्ट स्वभावाच्या मनुष्यप्राण्यांपासूनही दूर राहावे. कारण या प्रकारे वागल्याशिवाय माणूस नेहमी सुखी राहू शकत नाही. ॥ १५ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे सर्व शत्रूना दहन करणाऱ्या अग्ने! [परमेश्वरा] राक्षस हिंसक व दुष्ट स्वभावाच्या माणसांपासून (नः) आमचे (पाहि) रक्षण कर, (धूर्तेरराव्णः) धूर्त माणसांपासून आमचे रक्षण कर, जो आम्हाला मारील व मारण्याची इच्छा करीत आहे. त्या सर्वांपासून हे महातेजस्वी बलवान [ईश्वरा] ! आमचे रक्षण कर.॥१२॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Agni, lord of light and fire, youthful and blazing with mighty glory, save us from the destroyers. Protect us from the wicked and the ungenerous. Protect us from the cruel and the violent. Protect us from the killers. (Let these negative and destructive elements be eliminated.)

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    Purport

    Destroyer of all enemies, O self-effulgent Supreme Lord! Protect us from demons, hostiles, wicked persons and nourish us. Protect us from the fraudulent and miserly persons. O the Great and Divine Sun! The most Brilliant and Almighty God! Protect us from all those who persecute us and intend to injure us.

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    Subject of the mantra

    Then, what the people of the army should pray to that president of the assembly. This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (bṛhadbhāno)=To raise up the shining sun of great wisdom and majesty, (yaviṣṭhya)= very young, (agne)= foremost and protector of all, (sabhādhyakṣa)=President of the Assembly. (mahārāja)=sovereign power, (tvam)=you, (dhūrtteḥ)= of betrayers, [aura]=and, (arāvṇaḥ)= of miserly etc. nature in giving charity, (rakṣasaḥ)= from wicked man, (naḥ)=our, (pāhi)=protect, (riṣataḥ)= violent tigers etc., [aura]= and, (pāpācārāt)= by the conduct of sin, (uta)=also, (janāt)=of people, (pāhi)=protect, (vā)=in other words, (jighāṃsataḥ)= from an enemy who wants to kill, (pāhi)=protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the assembly, raising up the shining Sun of great wisdom and majesty, very young, foremost and protector of all sovereign power! You protect us from the treacherous and the wicked person of miserly nature in giving charity. Protect people from the violent tigers etc. and also from the conduct of sin, in other words, protect from enemy who wants to kill.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    One should always pray to the chairman, who desires the advancement of all protecting righteousness, to be protected by humans in all respects. From his own evil nature, human beings, etc. and from all sins, body, speech and should be established away from the mind, without it no man can remain happy forever.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly or great King, full of splendor of knowledge and wealth and most youthful, protect us from beings of wicked and harmful inclinations. Protect us from the miserly fraudulent person. Protect us from the wolf, tiger, lion and other beasts of violent nature. Protect us from that enemy who wants to kill us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [अग्ने] सर्वाग्रणी: सर्वाभिरक्षकः = Leader and Protector of all. [धूर्तेः] विश्वासघातिनः । अत्र धुर्वी धातोर्वा हुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः । = From a fraudulent person who betrays trust. [अराव्णः] राति ददाति स रावा न रावा अरावा तस्मात् कृपणात् अदानशीलात् [रा-दाने] = From miserly person. [रिषत:] हिंसका व्याघ्रादे: प्राणिनः = From a violent or ferocious animal like the wolf tiger, lion etc. अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा० ६.३.१३७] इति दीर्घः । [ यविष्ठ्य ] अतितरुणावस्थायुक्तः = Youthful.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should pray for protection to the kind-hearted President of the Assembly who desires the growth of righteousness and is the protector of all from all sides. Men should also keep themselves away from persons of wicked nature and all sins, in body, word and mind. Without doing so, none can remain ever happy.

    Translator's Notes

    This Mantra has also a spiritual meaning as explained by Rishi Dayananda Sarasvati in the Aryabhininaya in the following manner, in case of God. O Effulgent God, Protect us from beings of wicked and harmful inclinations. Protect us from the miserly fraudulent person. Protect us from him who prosecutes us, also from him who intends to harm us O Almighty Great and Divine Sun.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    পাহি নো অগ্নে রক্ষসঃ পাহি ধূর্তেররাব্ণঃ।

    পাহি রীষত উত বা জিঘাংসতো বৃহদ্ভানো যবিষ্ঠ্য।।৮২।।

    (ঋগ্বেদ ১।৩৬।১৫)

    পদার্থঃ হে (বৃহদ্ভানো) সর্বশ্রেষ্ঠ তেজস্বী (যবিষ্ঠ্য) সর্বশক্তিমান (অগ্নে) জ্ঞান স্বরূপ পরমাত্মা! (নঃ) আমাদের (রক্ষসঃ) অসৎ মানুষ হতে (পাহি) রক্ষা করো, (ধূর্তেঃ অরাব্ণ) ধূর্ত-ঠগ-কৃপণ স্বার্থান্বেষী হতে (পাহি) রক্ষা করো, (রীষতঃ) পীড়া প্রদানকারী (উত) ব্যক্তি (বা) অথবা (জিঘাংসতঃ) হনন করার ইচ্ছাকারী হতে (পাহি) রক্ষা করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে সর্বশক্তিমান, তেজস্বী, সকলের নেতা পরমাত্মন! রাক্ষস ধূর্ত কৃপণ প্রবৃত্তির স্বার্থান্ধ পুরুষ হতে আমাদেরকে রক্ষা করো এবং যে দুষ্ট আমাদের পীড়া প্রদানকারী তথা যে দুষ্ট শত্রু আমাদের নাশের ইচ্ছাকারী, এইরূপ পাপী ব্যক্তি হতে আমাদের সদা রক্ষা করো। আমরা তোমার কৃপা দ্বারা সুরক্ষিত হয়ে নিজের ও জগতের হিত সাধন করতে পারি।।৮২।।

     

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    अग्ने = हे सर्वशत्रुदाहकाग्ने परमेइश्वर ! रक्षसः = राक्षस, हिंसाशील, दुष्टस्वभाव देहधारी हरु बाट नः = हाम्रो पाहि = पालन र रक्षा गर्नुहोस् । धूर्तैरराव्णः = कृपणी र जुन  धूर्त छन् एस्ता मानिसहरु बाट पनि पाहि = हाम्रो रक्षा गर्नु होस् । रीषतः उत वा जिघां सतः=जो हामीलाई मार्न उद्यत् हुन्छ तथा मारिने इच्छा गर्दछ, बृहद्भानो यविष्ठ्य हे महातेज, बलवत्तम! ती सबैबाट हाम्रो पाहि = रक्षा गर्नु होस् ॥१२॥

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