ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
त्वे इद॑ग्ने सु॒भगे॑ यविष्ठ्य॒ विश्व॒माहू॑यते ह॒विः । स त्वं नो॑ अ॒द्य सु॒मना॑ उ॒ताप॒रं यक्षि॑ दे॒वान्त्सु॒वीर्या॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे । इत् । अ॒ग्ने॒ । सु॒भगे॑ । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । विश्व॑म् । आ । हू॒य॒ते॒ । ह॒विः । सः । त्वम् । नः॒ । अ॒द्य । सु॒ऽमनाः॑ । उ॒त । अ॒प॒रम् । यक्षि॑ । दे॒वान् । सु॒ऽवीर्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमाहूयते हविः । स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्त्सुवीर्या ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे । इत् । अग्ने । सुभगे । यविष्ठ्य । विश्वम् । आ । हूयते । हविः । सः । त्वम् । नः । अद्य । सुमनाः । उत । अपरम् । यक्षि । देवान् । सुवीर्या॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्वे) त्वयि (इत्) एव (अग्ने) सुखप्रदातः सभेश (सुभगे) शोभनमैश्वर्यं यस्मिँस्तस्मिन् (यविष्ठ्य) यो वेगेन पदार्थान् यौति संयुनक्ति संहतान् भिनत्ति वा स युवातिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (हूयते) दीयते (हविः) सुसंस्कृतं वस्तु (सः) त्वम् (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन्नहनि (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सः (उत) अपि (अपरम्) श्वोदिनं प्रति (यक्षि) संगमय। अत्र लडर्थे# लङडभावश्च। (देवान्) विदुषः (सुवीर्या) शोभनानि वीर्याणि येषां तान्। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः ॥६॥ #[लोडर्थे,। सं०]
अन्वयः
अथाग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणा उपदिश्यन्ते।
पदार्थः
हे यविष्ठ्याग्ने यथा होत्राग्नौ विश्वं हविराहूयते यस्मिन् सुभगे त्वे त्वयि सर्वो न्यायोस्माभिरधिक्रियते स सुमनास्त्वमद्योताप्यपरं दिनं प्रति नोस्मान् सुवीर्या श्रेष्ठपराक्रमयुक्तानि* देवान्यक्षि संगमय ॥६॥ *[पराक्रमयुक्त्तान्।सं०]
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो वन्हौ शुद्धं हव्यं द्रव्यं प्रक्षिप्य जगते सुखं जनयंति तथैव राजपुरुषा दुष्टान् कारागृहे प्रक्षिप्य धार्मिकेभ्य आनन्दं प्रादुर्भावयन्तु ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अग्नि के दृष्टान्त में राजपुरुषों के गुणों का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (यविष्ठ्य) पदार्थों के मेल करने में बलवान् (अग्ने) सुख देनेवाले राजन् ! जैसे होता (अग्नौ) अग्नि में (विश्वम्) सब (हविः) उत्तमता से संस्कार किया हुआ पदार्थ (आहूयते) डालाजाता है वैसे जिस (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्य युक्त (त्वे) आपमें न्याय करने का काम स्थापित करते हैं सो (सुमनाः) अच्छे मनवाले (त्वम्) आप (अद्य) आज (उत) और (अपरम्) दूसरे दिन में भी (नः) हम लोगों को (सुवीर्या) उत्तम वीर्यवाले (देवान्) विद्वान् (इत्) हो (यक्षि) कीजिये ॥६॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग वन्हि में पवित्र होम करके योग्य घृतादि पदार्थों को होम के संसार के लिये सुख उत्पन्न करते हैं वैसे ही दुष्टों को बन्दीघर में डाल के सज्जनों को आनन्द सदा दिया करें ॥६॥ राजपुरुष। सं०
विषय
अब अग्नि के दृष्टान्त में राजपुरुषों के गुणों का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे यविष्ठ्या अग्ने यथा होत्रा अग्नौ विश्वं हविः आहूयते यस्मिन् सुभगे त्वे त्वयि सर्वो न्यायः अस्माभिः अधिक्रियते स सुमनाः त्वम् अद्य उत् अपि अपरं दिन प्रति नः अस्मान् सुवीर्या श्रेष्ठपराक्रमयुक्त्तान् देवान् यक्षि संगमय ॥६॥
पदार्थ
हे (यविष्ठ्य)= यो वेगेन पदार्थान् यौति संयुनक्ति संहतान् भिनत्ति वा स युवातिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ=जो पदार्थों का पूरा उपयोग करने के लिए मिलाते हुए तेजी से तैयार करता है अथवा सब से कम उम्र का है, (अग्ने) सुखप्रदातः सभेश=सुख प्रदान करने वाला और सभेश है, (यथा)=जैसे, (होत्रा)=आहुति करते हुए, (अग्नौ)=अग्नि में, (विश्वम्) सर्वम्=सब, (हविः) सुसंस्कृतं वस्तु=अच्छी तरह से शुद्ध की हुई सामग्री, (आ) समन्तात्=अच्छी तरह से, (हूयते) दीयते=दी जाती हैं, (यस्मिन्)=जिस, (सुभगे) शोभनमैश्वर्यं यस्मिँस्तस्मिन्=शोभन ऐश्वर्य में, (त्वे) त्वयि=तुम्हारे द्वारा, (सर्वो)=सब जिस तरीके से, और (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (अधिक्रियते) अनुकूल किये जाते है, (सः) त्वम्=तुम, (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सः=वह जिसका मन का विशेष ज्ञान शोभन है, (त्वम्)=तुम, (अद्य) अस्मिन्नहनि=आज के ही दिन, (उत) अपि=भी, (अपरम्) श्वोदिनं प्रति=कल के दिन के प्रति, (नः) अस्मान्=हमें, (सुवीर्या) शोभनानि वीर्याणि येषां तान्=जिन के शोभन तेज हैं और जो, (श्रेष्ठपराक्रमयुक्त्तान्)=श्रेष्ठ पराक्रम युक्त्त, (देवान्) विदुषः=विद्वान् हैं, उनकी (यक्षि) संगमय (सङ्गच्छस्व)=संगति दीजिये ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग अग्नि में पवित्र होम करके योग्य घृतादि पदार्थों को होम के संसार के लिये सुख उत्पन्न करते हैं वैसे ही दुष्टों को बन्दीघर में डाल के सज्जनों को आनन्द सदा दिया करें ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (यविष्ठ्य) जो पदार्थों का पूरा उपयोग करने के लिए उन्हें मिलाते हुए तेजी से तैयार करता है (अग्ने) सुख प्रदान करने वाला और सभा का स्वामी है। (यथा) जैसे (होत्रा) आहुति करते हुए, (अग्नौ) अग्नि में (विश्वम्) सब (हविः) अच्छी तरह से शुद्ध की हुई सामग्री (आ) अच्छी तरह से (हूयते) दी जाती हैं। (यस्मिन्) जिस (सुभगे) शोभनीय ऐश्वर्य में (त्वे) तुम्हारे द्वारा (सर्वो) सब जिस तरीके से और (अस्माभिः) हमारे द्वारा (अधिक्रियते) अनुकूल किये जाते हैं। (सः) वह तुम (सुमनाः) जिसका मन विशेष ज्ञानवाला और शोभनीय है। (त्वम्) तुम (उत) भी (अद्य) आज ही के दिन (अपरम्) कल के दिन के लिये (नः) हमें (सुवीर्या) जिन के शोभनीय तेज हैं और जो (श्रेष्ठपराक्रमयुक्त्तान्) श्रेष्ठ पराक्रम युक्त्त, (देवान्) विद्वान् हैं, उनकी (यक्षि) संगति दीजिये ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वे) त्वयि (इत्) एव (अग्ने) सुखप्रदातः सभेश (सुभगे) शोभनमैश्वर्यं यस्मिँस्तस्मिन् (यविष्ठ्य) यो वेगेन पदार्थान् यौति संयुनक्ति संहतान् भिनत्ति वा स युवातिशयेन युवा यविष्ठो यविष्ठ एव यविष्ठ्यस्तत्सम्बुद्धौ (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (हूयते) दीयते (हविः) सुसंस्कृतं वस्तु (सः) त्वम् (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन्नहनि (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सः (उत) अपि (अपरम्) श्वोदिनं प्रति (यक्षि) संगमय। अत्र लडर्थे# लङडभावश्च। (देवान्) विदुषः (सुवीर्या) शोभनानि वीर्याणि येषां तान्। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः ॥६॥ #[लोडर्थे,। सं०]-
विषयः- अथाग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे यविष्ठ्याग्ने यथा होत्राग्नौ विश्वं हविराहूयते यस्मिन् सुभगे त्वे त्वयि सर्वो न्यायोस्माभिरधिक्रियते स सुमनास्त्वमद्योताप्यपरं दिनं प्रति नोस्मान् सुवीर्या श्रेष्ठपराक्रमयुक्तानि देवान्यक्षि संगमय ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो वन्हौ शुद्धं हव्यं द्रव्यं प्रक्षिप्य जगते सुखं जनयंति तथैव राजपुरुषा दुष्टान् कारागृहे प्रक्षिप्य धार्मिकेभ्य आनन्दं प्रादुर्भावयन्तु ॥६॥
विषय
सुभग - यविष्ठ्य
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - अग्नणी प्रभो ! हे (यविष्ठ्य) - बुराइयों को दूर करने और अच्छाइयों को हमारे जीवनों के साथ संगत करने में सर्वोत्तम प्रभो ! (सुभगे) - उत्तम भग - ऐश्वर्यवाले (त्वे इत्) - तुझमें ही (विश्वं हविः) - सम्पूर्ण हवि (आहूयते) - आहुत की जाती है, अर्थात् तेरी प्राप्ति के निमित्त ही कण्व, अर्थात् मेधावी लोग [प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि] दानपूर्वक अदन [हु] करते हैं । इस त्यागपूर्वक उपभोग से ही आपकी प्राप्ति होती है और आपको प्राप्त होनेवाला व्यक्ति आपकी कृपा से बुराइयों से दूर व अच्छाइयों से युक्त होता है तथा सुभग, अर्थात् उत्तम ऐश्वर्यवाला बनता है ।
२. हे प्रभो ! (सः त्वम्) - वे आप (सुमनाः) - [शोभनं मनो यस्मात्] हमारे मनों को उत्तम बनानेवाले हैं । (नः) - हमें (अद्य) - आज (उत) - और (अपरम्) - अगले, अगले दिन (सुवीर्या देवान्) - उत्तम शक्तिवाले सूर्यादि देवों के साथ (यक्षि) - संगत कीजिए । प्रत्येक देव हमारी शक्ति की वृद्धि का कारण बने । यह शक्ति - वृद्धि हमारे मनों को भी उत्तम बनानेवाली हो ।
भावार्थ
भावार्थ - त्यागपूर्वक उपभोग के द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करें । प्रभु - कृपा से सूर्यादि देव हमारी शक्ति का वर्धन करनेवाले हों ।
विषय
नायक, राजा, परमेश्वर का समान रूप से वर्णन
भावार्थ
हे (यविष्ठ्य) अति बलशालिन्! हे (अग्ने) ज्ञानवन्, नायक! सभापते राजन्! परमेश्वर! (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्यवान्, भजने, सेवने योग्य (त्वे) तुझमें, तेरे निमित्त ही (विश्वम् हविः) सब स्वीकार करने योग्य पदार्थ और स्तुति वचन भी (आ हूयते) प्रदान किये जाते हैं। (सः त्वम्) वह तू (अद्य) आज (नः) हमारे प्रति (सुमनाः) शुभ चित्त वाला, सुज्ञानी हो। और (सुवीर्या) उत्तम वीर्यवान् बलशाली (देवान्) युद्ध विजयी पुरुषों और विद्वानों को भी (यक्षि) वेतनादि प्रदान कर और राष्ट्र में सुसंगत कर। अग्नि में हवि देते हैं, वह बलशाली वायुओं में प्रदान करता है। परमात्मा में (विश्व) समस्त संसार हवि रूप से प्रलयाग्नि में आहुत होता है। वह सब अग्नि आदि तत्वों को सुसंगत करता और जगत् को रचता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक अग्नीत शुद्ध द्रव्य घालून होम करतात व जगात सुख निर्माण करतात तसेच दुष्टांना राजपुरुषांनी बंदीगृहात घालून धार्मिकांना सदैव आनंद द्यावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, fire and power of yajna, strongest catalyser and noblest creative and constructive agent, to you alone are offered all the inputs of yajna (for the sustenance and advancement of life). Right to-day and to-morrow and all through future, be good and kind to us, act with the generous powers of yajna and help us grow as brave and noble people.
Subject of the mantra
Now, by the illustration of Agni (Fire) the virtues of the royal persons have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (yaviṣṭhya)= One who prepares substances rapidly by blending them to make full use of, (agne)= is provider of happiness and chairman of the Assembly, (yathā)= like, (hotrā)=offering substances in yajna, (agnau)=in sacrificial fire, (viśvam)=all, (haviḥ)= thoroughly purified Ingredients, (ā)=Properly, (hūyate)=are offered, (yasmin)=which, (subhage)=in graceful majesty, (tve)=by you, (sarvo)=all by which way, [aura]=and, (asmābhiḥ)=by us, (adhikriyate)= are adapted, (saḥ)= that you, (sumanāḥ)= Whose mind is specially knowledgeable and graceful, (tvam)=you, (adya)= on this very day, (uta)=also, (aparam)= for tomorrow, (naḥ)=to us, (suvīryā)= who have graceful brilliance, [aura jo]=and who, (śreṣṭhaparākramayukttān)= with great valor, (devān)=learned person, (yakṣi)= give us the company.
English Translation (K.K.V.)
O One who prepares the substances rapidly by blending them to make full use of and provider of happiness and the chairman of the assembly! Like while making an offering, all the ingredients are thoroughly purified and offered well by you, in which graceful majesty and all are adapted in which way by us. That you, whose mind is specially knowledgeable and graceful! You also give us the company of those who have graceful brilliance and those who are scholars with great valour for tomorrow.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. Just as learned people, by performing holy yajan in the fire, give happiness to the gentlemen by putting the wicked ones in the prison and always giving pleasure to the gentlemen.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by the illustration of fire, the attributes of the officers of the State are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, giver of happiness, O most youthful and auspicious, as all oblations are put in sacrificial fire, we have put all right of dispensing justice in you who are external as well endowed with good wealth of all kinds internal in the form of wisdom. Be ever cheerful, having always noble thoughts in your mind and unite us today tomorrow and for ever with energetic enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) सुखप्रदातः सभेश = President of the Assembly, giver of happiness. (यविष्ठ्य) यो वेगेन पदार्थान् यौति संयुनक्ति संहतान् भिनत्ति वा स युवा प्रतिशयेन युवा यविष्ठ: यविष्ठ एव यविष्ठ्यः तत्सम्बुद्धौ = Most youthful or powerful and active. ( सुमना ) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सः = Possessing good knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned persons give happiness to the people of the world by putting pure oblation in the sacrificial fire, in the same. manner, the officers and workers of the State should put in prison wicked unrighteous persons and give delight to righteous persons.
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