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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    रा॒यस्पू॑र्धि स्वधा॒वोऽस्ति॒ हि तेऽग्ने॑ दे॒वेष्वाप्य॑म् । त्वं वाज॑स्य॒ श्रुत्य॑स्य राजसि॒ स नो॑ मृळ म॒हाँ अ॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒यः । पू॒र्धि॒ । स्वध॒ा॒ऽवः॒ । अ॒स्ति॒ । हि । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । दे॒वेषु॑ । आप्य॑म् । त्वम् । वाज॑स्य । श्रुत्य॑स्य । रा॒ज॒सि॒ । सः । नः॑ । मृ॒ळ्ह॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् । त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रायः । पूर्धि । स्वधावः । अस्ति । हि । ते । अग्ने । देवेषु । आप्यम् । त्वम् । वाजस्य । श्रुत्यस्य । राजसि । सः । नः । मृळ्ह । महान् । असि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (रायः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि (पूर्धि) पिपूर्धि। अत्र #बहुलंछन्दसि इति शपोलुक्। *श्रुशृणुपृ० इति हेर्धिः। (स्वधावः) स्वधा भोक्तव्या अन्नादिपदार्थाःसन्ति यस्य तत्संबुद्धौ (अस्ति) (हि) यतः (ते) तव (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् (देवेषु) विद्वत्सु (आप्यम्) आप्तुं प्राप्तुं योग्यं सखित्वम्। अत्र आप्लृव्याप्तावित्यस्मादौणादिको यत्। अत्र सायणाचार्य्येण प्रमादाददुपधत्वाभावेऽपि पोरदुपधात् इतिकर्मणि यत्। ¤यतो नाव इत्याद्यु दात्तत्वम् यच्चछान्दसमाद्यु दात्तत्वमित्यशुद्धमुक्तम्। औणादिकस्य यत्प्रस्ययस्य विद्यमानत्वात् (त्वम्) पुत्रवत्प्रजापालकः (वाजस्य) युद्धस्य (श्रुत्यस्य) श्रोतुं योग्यस्य। श्रुश्रवण इत्यस्मादौणादिकः कर्मणि क्यप् प्रत्ययः। (राजसि) प्रकाशितो भवसि (सः) (नः) अस्मान् (मृड) सुखय (महान्) बृहद्गुणाढ्यः (असि) वर्त्तसे ॥१२॥ #[अ० २।४।७३।] *[अ० ६।४।१०२।] ¤[अ० ६।१।२१०।]

    अन्वयः

    पुनश्च तेषामेव राजपुरुषाणां गुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे स्वधावोऽग्नेहि यतस्ते देवेष्वाप्यमस्ति रायस्पूर्धिं। यस्त्वं महानसि श्रुत्यस्य वाजस्य च मध्ये राजसि स त्वं नोऽस्मान् मृड सुखयुक्तान् कुरु ॥१२॥

    भावार्थः

    वेदवित्सु विद्यावृद्धिषु मैत्रीं भावयद्भिः सभाध्यक्षादिराजपुरुषैरन्नधनादि पदार्थागारान् सततं प्रपूर्य प्रसिद्धैर्दस्युभिस्सह युद्धाय समर्था भूत्वा प्रजायै महान्ति सुखानि दातव्यानि ॥१२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मंत्र में उन्हीं राजपुरुषों के गुणों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (स्वधावः) भोगने योग्य अन्नादि पदार्थों से युक्त (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी सभाध्यक्ष ! (हि) जिसकारण (ते) आपकी (देवेषु) विद्वानों के बीच में (आप्यम्) ग्रहण करने योग्य मित्रता (अस्ति) है इसलिये आप (रायः) विद्या, सुवर्ण और चक्रवर्त्ति राज्यादि धनों को (पूर्धि) पूर्ण कीजिये जो आप (महान्) बड़े-२ गुणों से युक्त (असि) हैं और (श्रुत्यस्य) सुनने के योग्य (वाजस्य) युद्ध के बीच में प्रकाशित होते हैं (सः) सो (त्वम्) पुत्र के तुल्य प्रजा की रक्षा करने हारे आप (नः) हम लोगों को (मृड) सुखयुक्त कीजिये ॥१२॥

    भावार्थ

    वेदों को जाननेवाले उत्तम विद्वानों में मित्रता रखते हुए सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को उचित है कि अन्नधन आदि पदार्थों के कोशों की निरन्तर भर और प्रसिद्ध डाकुओं के साथ निरन्तर युद्ध करने को समर्थ होके प्रजा के लिये बड़े-२ सुख देनेवाले होवें ॥१२॥

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    विषय

    फिर भी इस मंत्र में उन्हीं राजपुरुषों के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे स्वधावः अग्ने हि यतः ते देवेषु आप्यम् अस्ति रायः पूर्धिं। यः त्वं महान् असि श्रुत्यस्य वाजस्य च मध्ये राजसि स त्वं नःअस्मान् मृड सुखयुक्तान् कुरु ॥१२॥ 

    पदार्थ

    हे  (स्वधावः) स्वधा भोक्तव्या अन्नादिपदार्थाःसन्ति यस्य तत्संबुद्धौ=अग्नि में आहुति के रूप में अन्न आदि पदार्थ प्रयुक्त किये जानें चाहियें, ऐसे पदार्थ जिसमें हैं, (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन्=ऐसे अग्नि जैसे तेजस्वी, (हि) यतः=क्योंकि, (ते) तव=आपके, (देवेषु) विद्वत्सु=विद्वानों में, (आप्यम्) आप्तुं प्राप्तुं योग्यं सखित्वम्=प्राप्त करने योग्य मित्रता, (अस्ति)=है। (रायः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि=विद्या, सुवर्ण और, चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन हैं, जिसमे, (पूर्धि) पिपूर्धि=पूर्ण कीजिये (यः)=जो, (त्वम्)=आप, (महान्) बृहद्गुणाढ्यः=बृहत् गुणों से युक्त, (असि) वर्त्तसे=हो।   (श्रुत्यस्य) श्रोतुं योग्यस्य=श्रवण किये जाने योग्य, (च)=और, (वाजस्य) युद्धस्य=युद्ध के, (मध्ये)=बीच में, (राजसि) प्रकाशितो भवसि=प्रकाशित होते हो।  (सः)=वह, (त्वम्) पुत्रवत्प्रजापालकः=पुत्र के समान प्रजा का पालन करने वाले तुम, (नः) अस्मान्=हमें, (मृड) सुखय=सुख से युक्त, (कुरु)=कीजिये ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    वेदों को जाननेवालों में विद्या की वृद्धि में  जिस मित्रता के भाव से सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों के द्वारा अन्न, धन आदि पदार्थों के कोशों की निरन्तर पूर्ति करके और प्रसिद्ध डाकुओं के साथ निरन्तर युद्ध करने के लिए समर्थ हो करके प्रजा के लिये बड़े-बड़े सुख दिये जाने चाहिएँ ॥१२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (स्वधावः) अग्नि में आहुति के रूप में अन्न आदि पदार्थ प्रयुक्त किये जानें चाहियें, ऐसे पदार्थ जिसमें हैं, (अग्ने) ऐसे अग्नि जैसे तेजस्वी होवें ! (हि) क्योंकि (ते) आपकी (देवेषु) विद्वानों में (आप्यम्) प्राप्त करने योग्य मित्रता (अस्ति) है। (रायः) जिनके विद्या, सुवर्ण और चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन हैं, उनकी (पूर्धि) [निरन्तर] पूर्ति कीजिये। (यः) जो (त्वम्) आप (महान्) बृहत् गुणों से युक्त (असि) हो।   (श्रुत्यस्य) सुने जाने योग्य (च) और (वाजस्य) जो युद्ध के (मध्ये) बीच में (राजसि) प्रकाशित होते हो। ऐसे (त्वम्) पुत्र के समान प्रजा का पालन करने वाले (सः) वह तुम  (नः) हमें  (मृड) सुखी (कुरु) कीजिये ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    *श्रुशृणुपृ० इति हेर्धिः। (स्वधावः) स्वधा भोक्तव्या अन्नादिपदार्थाःसन्ति यस्य तत्संबुद्धौ (अस्ति) (हि) यतः (ते) तव (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् (देवेषु) विद्वत्सु (आप्यम्) आप्तुं प्राप्तुं योग्यं सखित्वम्। अत्र आप्लृव्याप्तावित्यस्मादौणादिको यत्। अत्र सायणाचार्य्येण प्रमादाददुपधत्वाभावेऽपि पोरदुपधात् इतिकर्मणि यत्। ¤यतो नाव इत्याद्यु दात्तत्वम् यच्चछान्दसमाद्यु दात्तत्वमित्यशुद्धमुक्तम्। औणादिकस्य यत्प्रस्ययस्य विद्यमानत्वात् (त्वम्) पुत्रवत्प्रजापालकः (वाजस्य) युद्धस्य (श्रुत्यस्य) श्रोतुं योग्यस्य। श्रुश्रवण इत्यस्मादौणादिकः कर्मणि क्यप् प्रत्ययः। (राजसि) प्रकाशितो भवसि (सः) (नः) अस्मान् (मृड) सुखय (महान्) बृहद्गुणाढ्यः (असि) वर्त्तसे ॥१२॥ #[अ० २।४।७३।] *[अ० ६।४।१०२।] ¤[अ० ६।१।२१०।]
    विषयः- पुनश्च तेषामेव राजपुरुषाणां गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे स्वधावोऽग्नेहि यतस्ते देवेष्वाप्यमस्ति रायस्पूर्धिं। यस्त्वं महानसि श्रुत्यस्य वाजस्य च मध्ये राजसि स त्वं नोऽस्मान् मृड सुखयुक्तान् कुरु ॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- वेदवित्सु विद्यावृद्धिषु मैत्रीं भावयद्भिः सभाध्यक्षादिराजपुरुषैरन्नधनादि पदार्थागारान् सततं प्रपूर्य प्रसिद्धैर्दस्युभिस्सह युद्धाय समर्था भूत्वा प्रजायै महान्ति सुखानि दातव्यानि ॥१२॥

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    विषय

    प्रशंसनीय धन व बल

    पदार्थ

    १. हे (स्व - धावः) - [धाव शुद्धौ] अपने मित्रभूत आत्मा का शोधन करनेवाले प्रभो ! (रायः पूर्धि) - धनों को हममें पूरित कीजिए, अर्थात् आवश्यक धनों की हमें कभी कमी न रहे । 
    २. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (ते) - आपकी (देवेषु) - दिव्य गुणोंवाले पुरुषों में (हि) - निश्चय से (आप्यम्) - मित्रता (अस्ति) - है । 
    ३. (त्वम्) - आप (श्रुत्यस्य) - प्रशंसनीय व महती वृद्धि के कारणभूत (वाजस्य) - धन व बल के (राजसि) - प्रभुत्व करनेवाले हैं । 'श्रुत्य वाज' के ईश आप ही है । आपकी कृपा से ही हमें यशस्वी बल व यशोवृद्धि का कारणभूत धन प्राप्त होता है । 
    ४. (सः) - वे आप (नः मृळ) - हमें सुखी कीजिए । आप सचमुच (महान्) - पूजनीय (असि) - हैं । हम आपकी पूजा करते हैं और आपकी कृपा से हम प्रशंसनीय धन व बल का लाभ करते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें धन प्राप्त कराते हैं । वे सब देवों के मित्र हैं, प्रशंसनीय बल के देनेवाले हैं । ये प्रभु महान् हैं और हमें सुखी करते हैं । 
     

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    विषय

    राजा का ऐश्वर्यं द्वारा प्रजा को सुखी करने का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (स्वधावः) अन्नादि ऐश्वर्य के स्वामिन्! तू हमें (रायः) ऐश्वर्य (पूर्धि) प्रदान कर। हे (अग्ने) तेजस्विन्! नायक! राजन्! (ते) तेरा (देवेषु) विद्वान्, युद्धविजयी पुरुषों पर (आप्यम्) बन्धुभाव और मित्रता (अस्ति हि) निश्चय से है। (त्वं) तू (श्रुतस्य) श्रवण करने योग्य, अति अद्भुत (वाजस्य) युद्ध और ऐश्वर्य का (राजसि) राजा है। (सः) वह तू (नः) हमें (मृळ) सुखी कर। तू (महान् असि) सबसे बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेद जाणणाऱ्या उत्तम विद्वानांबरोबर मैत्री ठेवणाऱ्या सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुषांनी अन्नधान्य इत्यादी पदार्थांचे कोश सदैव भरलेले ठेवावे व बलवान दस्यूबरोबर निरंतर युद्ध करण्यास समर्थ व्हावे व प्रजेला अत्यंत सुख द्यावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of power and wealth in your own right, fulfil our life with honour and prosperity, so friendly and accessible you are among the noble and the generous. You shine in battles and your fame resounds. Be good to us for our well-being. Great and glorious you are indeed.

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, in this mantra, the virtues of the same royal persons have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (svadhāvaḥ)=Offerings of substances In the form of things like food should be used of in the fire, (agne)= Be as bright and brilliant as fire! (hi)=because, (te)=your, (deveṣu)=in scholars, (āpyam)= achievable friendship. (asti)=is, (rāyaḥ)= Those who have knowledge, gold and Chakravarti kingdom etc. as wealth, to them, (pūrdhi)=supply them [nirantar]=contnuously, (yaḥ)=that, (tvam)=you, (mahān)= endowed with great qualities, (asi)=are, (śrutyasya)=be audible, (ca)=and, (vājasya+madhye)= which in the midst of war, (rājasi)= are revealed, (tvam)= protecting people like a father, (saḥ)=that you, (naḥ)=to us, (mṛḍa) =delightful, (kuru)=make.

    English Translation (K.K.V.)

    O offerings of the substances in the form of things like food which should be used in the fire! Be as bright and brilliant as fire, because you have an achievable friendship among scholars. Those who have knowledge, gold and Chakravarti kingdom* etc., supply them continuously. You are endowed with great qualities to be heard and which are revealed in the midst of war. Those who protect the people like a father. May you make us delightful.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In the growth of knowledge among those who know the Vedas, with the sense of friendship with which the councilors etc., by constantly filling the funds of food, money etc. and by being able to fight continuously with the famous bandits great pleasures should be given to the people.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti state has been explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of those persons of the State are taught further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, full of splendor like the fire and the food materials, as you have friendship with enlightened truthful persons and are great, you shine in the famous battles whose account is worth-hearing, make us happy. Make our wealth consisting of knowledge and gold and vast Government etc. perfect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (राय:) विद्यासुवर्णचक्रवर्ति राज्यादिधनानि Wealth in the form of knowledge, gold and vast but good Government. ( स्वधावः ) स्वधा भोक्तव्या अन्नादिपदार्थाः सन्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ ( स्वधा इति [अन्ननाम निघ० २.७ ) = Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the Assembly and other persons of the State should have friendship with the scholars of the Vedas and other highly learned persons. They should fill up continuously the stores of food and wealth and should be able to wage war against thieves and robbers. Thus they should give much happiness to the people.

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