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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    घ्नन्तो॑ वृ॒त्रम॑तर॒न्रोद॑सी अ॒प उ॒रु क्षया॑य चक्रिरे । भुव॒त्कण्वे॒ वृषा॑ द्यु॒म्न्याहु॑तः॒ क्रन्द॒दश्वो॒ गवि॑ष्टिषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घ्नन्तः॑ । वृ॒त्रम् । अ॒त॒र॒न् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पः । उ॒रु । क्षया॑य । च॒क्रि॒रे॒ । भुव॑त् । कण्वे॑ । वृषा॑ । द्यु॒म्नी । आऽहु॑तः । क्रन्द॑त् । अश्वः॑ । गोऽइ॑ष्टिषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घ्नन्तः । वृत्रम् । अतरन् । रोदसी इति । अपः । उरु । क्षयाय । चक्रिरे । भुवत् । कण्वे । वृषा । द्युम्नी । आहुतः । क्रन्दत् । अश्वः । गोइष्टिषु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (घ्नन्तः) शत्रुहननं कुर्वन्तो विद्युत्सूर्यकिरणा इव सेनापत्यादयः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (अतरन्) प्लावयन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपः) कर्माणि। अप इति कर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (चक्रिरे) कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (भुवत्) भवेत्लेट् प्रयोगो बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८। इति गुणप्रतिषेधः। (कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने (वृषा) सुखवृष्टिकर्त्ता (द्युम्नि) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन्। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः (क्रन्दत्) हेषणाख्यं शब्दं कुर्वन् (अश्वः) तुरङ्ग इव (गविष्टिषु) गवां पृथिव्यादीनामिष्टिप्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु ॥८॥

    अन्वयः

    पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    पदार्थः

    राजपुरुषाविद्युत्सूर्यकिरणा वृत्रमिव शत्रुदलं घ्नन्तोरोदसी अतरन्नपः कुर्युः तथा गविष्टिषु क्रन्ददश्व इवाहुतो वृषासन्नुरुक्षयाय कण्वे द्युम्नी दधद्भवत् ॥८॥

    भावार्थः

    यथा विद्युद्भौतिकसूर्याग्नयो मेघं छित्त्वा वर्षयित्वा सर्वान् लोकान् जलेन पूरयन्ति तत् कर्म प्राणिनां चिरसुखाय भवत्येवं सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः कण्टकरूपाञ्छत्रूञ् हत्वा प्रजाः सततं तर्पणीयाः ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी पूर्वोक्त विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    राजपुरुष जैसे बिजुली सूर्य्य और उसके किरण (वृत्रम्) मेघ का छेदन करते और वर्षावते हुए आकाश और पृथिवी को जल से पूर्ण तथा इन कर्मों को प्राणियों के संसार में अधिक निवास के लिये करते हैं वैसे ही शत्रुओं को (घ्नन्तः) मारते हुए (रोदसी) प्रकाश और अंधेरे में (अपः) कर्मको करें और सब जीवों को (अतरन्) दुःखों के पार करें तथा (गविष्टिषु) गाय आदि पशुओं के संघातों में (क्रन्दत्) शब्द करते हुए (अश्वः) घोड़े के समान (आहुतः) राज्याधिकार में नियत किया (वृषा) सुख की वृष्टि करनेवाला (उरुक्षयाय) बहुत निवास के लिये (कण्वे) बुद्धिमान् में (द्युम्नी) बहुत ऐश्वर्य को धरता हुआ सुखी (भुवत्) होवे ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे बिजुली, भौतिक और सूर्य यही तीन प्रकार के अग्नि मेघ को छिन्न-भिन्न कर सब लोकों को जल से पूर्ण करते हैं उनका युद्ध कर्म सब प्राणियों के अधिक निवास के लिये होता है वैसे ही सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि कण्टकरूप शत्रुओं को मारके प्रजा को निरन्तर तृप्त करें ॥८॥

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    विषय

    फिर भी पूर्वोक्त विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    राजपुरुषाः विद्युत् सूर्यकिरणाः वृत्रम् इव शत्रुदलं घ्नन्तः रोदसी अतरन् अपः कुर्युः तथा गविष्टिषु क्रन्दत् अश्वः इव आहुतः वृषा सन् उरु क्षयाय कण्वे द्युम्नी ददत् अभवत् ॥८॥

    पदार्थ

    (राजपुरुषाः)=राजपुरुष,  (विद्युत्)=बिजली (सूर्यकिरणाः)=सूर्य्य की किरण, (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम्=मेघ जैसे, (शत्रुदलम्)=शत्रुदल को, (घ्नन्तः) शत्रुहननं कुर्वन्तो विद्युत्सूर्यकिरणा इव सेनापत्यादयः=शत्रु को मारते हुए विद्युत् सूर्य की किरणों के समान सेनापति आदि, (रोदसी)=द्यावा और पृथिवी, (अतरन्) प्लावयन्तः=पार करते हुए, (अपः) कर्माणि=कर्मों को, (कुर्युः)=करें, (तथा)=वैसे ही, (गविष्टिषु) गवां पृथिव्यादीनामिष्टिप्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु=गाय, पृथिवी आदि को इष्ट की प्राप्ति की इच्छा में, (क्रन्दत्) हेषणाख्यं शब्दं कुर्वन्=हिनहिनाने का शब्द करते हुए (अश्वः) तुरङ्ग इव=घोड़े के समान, (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः=सभाध्यक्ष के द्वारा स्वीकृत, (वृषा+सन्) सुखवृष्टिकर्त्ता=जो सुख की वृष्टि करते हुए, (उरु) बहु=बड़े, (क्षयाय) निवासाय=निवास के लिये, (कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने=शिल्पविद्या के विद्वानों, (द्युम्नी) द्युम्नानि[द्युम्न- बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन्]=जिनके बहुत प्रकार के वैभव, ऐश्वर्य, शक्ति और धन होते हैं,  (अभवत्) भवेत् =ऐसे हों ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे बिजली, भौतिक और सूर्य, यही तीन प्रकार के अग्नि मेघ को छिन्न-भिन्न कर सब लोकों को जल से पूर्ण करते हैं और उनका युद्ध कर्म सब प्राणियों के बड़े  निवास के लिये होता है। वैसे ही सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों को चाहिये कि कण्टकरूप शत्रुओं को मारके प्रजा को निरन्तर तृप्त करें ॥८॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (राजपुरुषाः) राजपुरुष  (विद्युत्) बिजली (सूर्यकिरणाः) सूर्य्य की किरण, (वृत्रम्) मेघ जैसे (शत्रुदलम्) शत्रुदल को (घ्नन्तः) शत्रु को मारते हुए विद्युत् सूर्य की किरणों के समान सेनापति आदि (रोदसी) द्यावा और पृथिवी को (अतरन्) पार करते हुए (अपः) ऐसे कर्मों को (कुर्युः) करें। (तथा) वैसे ही, (गविष्टिषु) गाय, पृथिवी आदि को इष्ट की प्राप्ति की इच्छा में (क्रन्दत्) हिनहिनाने का शब्द करते हुए (अश्वः) घोड़े के समान (आहुतः) सभा के अध्यक्ष के द्वारा स्वीकृत (वृषा+सन्) जो सुख की वृष्टि करते हुए (उरु) बड़े (क्षयाय) निवास के लिये (कण्वे) शिल्पविद्या के विद्वानों, (द्युम्नी) जिनके बहुत प्रकार के वैभव, ऐश्वर्य, शक्ति और धन होते हैं,  (अभवत्) ऐसे हों ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (घ्नन्तः) शत्रुहननं कुर्वन्तो विद्युत्सूर्यकिरणा इव सेनापत्यादयः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (अतरन्) प्लावयन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपः) कर्माणि। अप इति कर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (चक्रिरे) कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (भुवत्) भवेत्लेट् प्रयोगो बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८। इति गुणप्रतिषेधः। (कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने (वृषा) सुखवृष्टिकर्त्ता (द्युम्नि) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन्। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः (क्रन्दत्) हेषणाख्यं शब्दं कुर्वन् (अश्वः) तुरङ्ग इव (गविष्टिषु) गवां पृथिव्यादीनामिष्टिप्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु ॥८॥ 
    विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    अन्वयः- राजपुरुषाविद्युत्सूर्यकिरणा वृत्रमिव शत्रुदलं घ्नन्तोरोदसी अतरन्नपः कुर्युः तथा गविष्टिषु क्रन्ददश्व इवाहुतो वृषासन्नुरुक्षयाय कण्वे द्युम्नी दधद्भवत् ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा विद्युद्भौतिकसूर्याग्नयो मेघं छित्त्वा वर्षयित्वा सर्वान् लोकान् जलेन पूरयन्ति तत् कर्म प्राणिनां चिरसुखाय भवत्येवं सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः कण्टकरूपाञ्छत्रूञ् हत्वा प्रजाः सततं तर्पणीयाः ॥८॥

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    विषय

    वृत्र - हनन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की सहायता से (घ्नन्तः) - वासनाओं पर प्रहार करते हुए देववृत्ति के मनुष्य (वृत्रम्) - ज्ञान पर परदा डालनेवाली इस वासना को (अतरन्) - तैर जाते हैं । वासना का विनाश कर देते हैं । 
    २. और (रोदसी) - द्यावापृथिवी को अर्थात् मस्तिष्क व शरीर को तथा (अपः) - हृदयान्तरिक्ष को [आपः अन्तरिक्षनामसु निघण्टौ] (क्षयाय) - उत्तम निवास व गति के लिए (उरु चक्रिरे) - विशाल बनाते हैं । विशालता ही इन सबको पवित्र व उत्तम बनाती है । 'संकुचित ज्ञान, संकुचित - सा शरीर व संकुचित हृदय' ये जीवन को संकुचित - सा कर देते हैं । 
    २. हे प्रभो ! आप (कण्वे) - मेधावी पुरुष में (वृषा) - सब सुखों की वर्षा करनेवाले (द्युम्नी) - ज्ञानवर्धन करनेवाले तथा (आहुतः) - सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करनेवाले (भुवत्) - होते हैं । आप उसी प्रकार हमें सब वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले होते हैं, जैसे कि (गविष्टिषु) - गौओं व भूमियों की प्राप्ति की इच्छावाले [गो - इष्टि] संग्रामों में (क्रन्दत् अश्वः) - हिनहिनाता हुआ घोड़ा विजय को प्राप्त करनेवाला होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से हम वासनाओं को तैर जाते हैं । शरीर, मन व मस्तिष्क को सुन्दर बनाते हैं । मेधावी पुरुष के लिए प्रभु 'वृषा , द्युम्नी व आहुत' होते हैं । 
     

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    विषय

    शत्रुओं का दमन ।

    भावार्थ

    (वृत्रम्) फैलते हुए मेघ को जिस प्रकार सूर्य की किरणें (घ्नन्तः) विनाश करती हुई (रोदसी अतरम्) आकाश और पृथिवी दोनों लोकों को पार कर जाती हैं उसी प्रकार (देवाः) विजयशील वीर, सैनिक गण (वृत्रम्) घेरा डालनेवाले शत्रु को नाश करते हुए (रोदसी) अपने और पराये दोनों राष्ट्रों को (अतरन्) अपने वश कर लेते हैं। और (क्षयाय) प्रजाओं के सुखपूर्वक निवास के लिये (उरु) बड़े राष्ट्र को और (अपः) नाना कर्मों को भी (चक्रिरे) करते हैं। (गविष्टिपु) भूमियों के प्राप्त करने के विजयादि संग्राम कार्यों में (क्रन्दत् अश्वः) हर्ष से हिनहिनाते हुए अश्व के समान् उत्साहपूर्वक सिंहनाद करता हुआ अश्वारोही, (वृषा) मेघ के समान शत्रुओं पर अस्त्र बरसाने वाला, (द्युम्नी) ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी, (आहुतः) सब वीरों द्वारा आदर से सेनाध्यक्ष रूप से स्वीकृत होकर (कण्वे) विद्वान् पुरुषों के बीच (भुवत्) विराजे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विद्युत, भौतिक अग्नी व सूर्य हे तीन प्रकारचे अग्नी मेघाला नष्ट करून सर्व लोकांना जलाने पूर्ण करतात, त्यांचे कर्म सर्व प्राण्यांच्या चिरकाल सुखासाठी असते. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुषांनी कंटकरूपी शत्रूंना मारून प्रजेला निरंतर तृप्त करावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as Indra, the sun, with its rays, strikes the cloud and fills the earth and heaven with light and waters, so does Agni, brilliant ruler and commander, with his forces, break through evil and darkness, filling heaven and earth with the light and fame of his actions. He works for the settlement of his people in spacious homes and, invited and celebrated among the intelligent, he shines as generous and prosperous, while his fame resounds like the roar of the victor in battle.

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    Subject of the mantra

    Even then, the preaching of his aforesaid subject has been done in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (rājapuruṣāḥ)=Person of the royal clan, (vidyut)=lightning,(sūryakiraṇāḥ) =Sun rays, (vṛtram) =like the cloud, (śatrudalam)=to the group of enemies, (ghnantaḥ)=Killing the enemy like electricity and the sun's ray, the commander etc. (rodasī)=heaven and earth, (ataran)=crossing over, (apaḥ)= to such deeds, (kuryuḥ)=do, (tathā)=in the same way, (gaviṣṭiṣu)= having desire to get cow, earth etc. (krandat)=neighing like a horse, (aśvaḥ)=like a horse, (āhutaḥ)=approved by the chairperson, (vṛṣā+san)=those showering happiness,(uru)=large, (kṣayāya)=for residence, (kaṇve)=experts of craftsmanship, (dyumnī)=who has many kinds of splendor, opulence, power and wealth, (abhavat)=should be like this.

    English Translation (K.K.V.)

    The persons of the royal clan should do such deeds, like the rays of the lightning Sun, like the clouds killing the enemy, like the Commander etc. crossing the heaven and earth. In the same way, with the desire of getting the help of the cow, earth etc., neighing like a horse, while saying the words of humiliation, accepted by the president of the assembly, who showers happiness for the large abode, the scholars of craftsmanship, who have many types of splendour; there is opulence, power and wealth, they should be like this.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Like lightning, material and the Sun, these three types of fires disintegrate the clouds and fill all the worlds with water and their fighting action is for the great abode of all living beings. In the same way, the councilors etc. should satisfy the subjects continuously by killing the enemies like a thorn.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As lightning and the rays of the sun smite and slay the cloud, in the same manner, the servants of the State and Commander-in-chief of the army and others should slay unrighteous enemies and should act making earth and heaven and the firmament the spacious dwelling place or wide abode of living creatures. May the Agni ( President of the Assembly or the Commander of the Army ) accepted as such, be bene factor to wise men like a horse that neighs in the battles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् = The enemy like the cloud. ( अपः ) कर्माणि अप इति कर्मनाम । अप इति कर्मनामसु पठितम् (निघ० २.१ ) ( कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने |= In a highly intelligent and learned person who is well-versed in arts and industries. (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः = Accepted as the President of the Assembly. ( गविष्टिषु ) गवां पृथिव्यादीनाम् इष्टिः प्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु = In the battles waged with the desire of acquiring land and wealth. (घुम्नी) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन् । अत्र भूम्यर्थ इनिः

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As lightning, fire and sun, cut into pieces the cloud and causing rain fill all worlds with water that gives happiness to all, in the same manner, the subjects should be gladdened by the President of the Assembly and other workers of the State by destroying enemies like the thorns.

    Translator's Notes

    वृत्र इति मेघनाम ( निघ० १.१० ) पाप्मा वै वृत्रः ( शत० ११.१.५.७ ) द्युम्नम् इति धननाम ( निघo १.१० ) कण्व इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५)

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