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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    दे॒वास॑स्त्वा॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा सं दू॒तं प्र॒त्नमि॑न्धते । विश्वं॒ सो अ॑ग्ने जयति॒ त्वया॒ धनं॒ यस्ते॑ द॒दाश॒ मर्त्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वासः॑ । त्वा॒ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । सम् । दू॒तम् । प्र॒त्नम् । इ॒न्ध॒ते॒ । विश्व॑म् । सः । अ॒ग्ने॒ । ज॒य॒ति॒ । त्वया॑ । धन॑म् । यः । ते॒ । द॒दाश॑ । मर्त्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते । विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवासः । त्वा । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । सम् । दूतम् । प्रत्नम् । इन्धते । विश्वम् । सः । अग्ने । जयति । त्वया । धनम् । यः । ते । ददाश । मर्त्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (देवासः) सभ्या विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (वरुणः) उत्कृष्टः (मित्रः) मित्रवत्प्राणप्रदः (अर्य्यमा) न्यायकारी (सम्) सम्यगर्थे (दूतम्) यो दुनोति सामादिभिः शत्रूँस्तम्। दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।८८#। (प्रत्नम्) कारणरूपेणानादिम्। नश्च पुराणे प्राद्वक्तव्याः*। अ० ५।४।३०। इति पुराणार्थे प्रशब्दात्त्नप् प्रत्ययः। (इन्धते) शुभगुणैः प्रकाशन्ते (विश्वम्) सर्वम् (सः) (अग्ने) धर्मविद्या श्रेष्ठगुणैः प्रकाशमानसभापते (जयति) उत्कर्षति (त्वया) (धनम्) विद्यासुवर्णादिकम् (यः) (ते) तव (ददाश) दाशति। अत्र लङर्थे लिट्। (मर्त्त्यः) मनुष्यः ॥४॥#[उ० ३।९०।] *[नैत्यदृशं कञ्चित् सूत्रं वार्त्तिकं वा० विद्यते। अतः ‘प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च’ अ० ४।३।२३ अनेन वार्त्तिकेन ‘प्रत्न’ शब्द सिद्धय्ति। सं०]

    अन्वयः

    पुनः स दूतः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अग्ने सभेश यस्ते दूतो मर्त्त्यो धनं ददाश यस्त्वया सह शत्रूञ्जयति मित्रो वरुणोर्यमा देवासो यं दूतं समिन्धते यस्त्वा त्वां प्रजाञ्च प्रीणाति स प्रत्नं विश्वं राज्यं रक्षितुमर्हति ॥४॥

    भावार्थः

    नहि केचिदपि सर्वशास्त्रविशारदै राजधर्मवित्तमैः परावरज्ञैर्धार्मिकैः प्रगल्भैः शूरैर्दूतैः सराजभिः सभासद्भिश्च विना राज्यं लब्धुं रक्षितुमुन्नेतुमुपकर्त्तुं शक्नुवंति तस्मादेवमेव सर्वैः सदा विधेयमिति ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह दूत कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) धर्म विद्या श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशमान सभापते ! (यः) जो (ते) तेरा (दूतः) दूत (मर्त्त्यः) मनुष्य तेरे लिये (धनम्) विद्या राज्य सुवर्णादि श्री को (ददाश) देता है तथा जो (त्वया) तेरे साथ शत्रुओं को (जयति) जीतता है (मित्रः) सबका सुहृद् (वरुणः) सबसे उत्तम (अर्यमा) न्यायकारी (देवासः) ये सब सभ्य विद्वान् मनुष्य जिसको (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रशंसित जानकर स्वीकार के लिये शुभगुणों से प्रकाशित करें जो (त्वा) तुझ और सब प्रजा को प्रसन्न रक्खे (सः) वह दूत (प्रत्नम्) जोकि कारणरूप से अनादि है (विश्वम्) सब राज्य को सुरक्षित रखने को योग्य होता है ॥४॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य सब शास्त्रों में प्रवीण राजधर्म को ठीक-२ जानने, पर अपर इतिहासों के वेत्ता, धर्मात्मा, निर्भयता से सब विषयों के वक्ता, शूरवीर दूतों और उत्तम राजा सहित सभासदों के विना राज्य को पाने, पालने, बढ़ाने और परोपकार में लगाने को समर्थ नहीं हो सकते इससे पूर्वोक्त प्रकार ही से राज्य की प्राप्ति आदि का विधान सब लोग सदा किया करें ॥४॥

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    विषय

    फिर वह दूत कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने सभेश यः ते दूतः मर्त्यः धनं ददाश यः त्वया सह शत्रून् जयति मित्रः वरुणः अर्यमा देवासः यं दूतं सम् इन्धते यः त्वा त्वां प्रजान् च प्रीणाति स प्रत्नं विश्वं राज्यं रक्षितुम् अर्हति ॥४॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) धर्मविद्या श्रेष्ठगुणैः प्रकाशमानसभापते=धर्म, विद्या, और श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशमान सभापते !  (यः)=जो, (ते) तव=आपका, (दूतः)= दूत, (मर्त्यः)=मरणशील, (धनम्) विद्यासुवर्णादिकम्=विद्या, सुवर्ण आदि धनों को, (ददाश) दाशति=देता है, और, (यः)=जो, (त्वया)=आपके, (सह)=साथ, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (जयति) उत्कर्षति=जीतता है, (मित्रः) मित्रवत्प्राणप्रदः=मित्र के समान और प्राण प्रदानकर्ता है, (वरुणः) उत्कृष्टः=उत्कृष्ट, (अर्य्यमा) न्यायकारी=न्यायकारी, (देवासः) सभ्या विद्वांसः=सभ्य और विद्वान् है, (यम्)=जिसको, (दूतम्) यो दुनोति सामादिभिः शत्रूँस्तम्=शत्रुओं को समान रूप से परेशान करता है, (सम्) सम्यगर्थे=समान रूप से, (इन्धते) शुभगुणैः प्रकाशन्ते=शुभगुण प्रकाशित होते हैं, (यः)=जिसके, उस, (त्वा) त्वाम्=आपकी, (प्रजान्)=प्रजायें, (च)=भी, (प्रीणाति)=सन्तुष्ट होती हैं, (सः)=वह, (प्रत्नम्) कारणरूपेणानादिम्=कारण रूप से आदि, और (विश्वम्) सर्वम्=समस्त,  (राज्यम्)=राज्य की, (रक्षितुम्)=रक्षा के, (अर्हति)=योग्य है ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    कोई भी मनुष्य सब शास्त्रों में प्रवीण राजधर्म [राजाओं से संबंधित नियम या कानून] को ठीक-ठीक जानने, पर अपर इतिहासों के वेत्ता, धर्मात्मा, निर्भयता से सब विषयों के वक्ता, शूरवीर दूतों और उत्तम राजा सहित सभासदों के विना राज्य को पाने, पालने, बढ़ाने और परोपकार में लगाने को समर्थ नहीं हो सकते इससे पूर्वोक्त प्रकार ही से राज्य की प्राप्ति आदि का विधान सब लोग सदा किया करें ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) धर्म, विद्या और श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशमान सभापते !  (यः) जो (ते) आपका (दूतः) दूत (मर्त्यः) मनुष्य (धनम्) विद्या, सुवर्ण आदि धनों को (ददाश) देता है और (यः) जो (त्वया) आपके (सह) साथ (शत्रून्) शत्रुओं को (जयति) जीतता है, वह (मित्रः) मित्र समान सुहृद और  प्रदानकर्ता है, (वरुणः) उत्कृष्ट (अर्य्यमा) न्यायकारी  (देवासः) सभ्य और विद्वान् है। (यम्) जो (दूतम्) शत्रुओं को समान रूप से परेशान करता है और  (सम्) समान रूप से (यः) जिसके  (इन्धते)  शुभगुण प्रकाशित होते हैं, उस (त्वा) आपकी (प्रजान्) प्रजायें (च) भी (प्रीणाति) सन्तुष्ट होती हैं। (सः) वह (प्रत्नम्) कारण रूप से आदि है और (विश्वम्) समस्त  (राज्यम्) राज्य की (रक्षितुम्) रक्षा के (अर्हति) योग्य है ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (देवासः) सभ्या विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (वरुणः) उत्कृष्टः (मित्रः) मित्रवत्प्राणप्रदः (अर्य्यमा) न्यायकारी (सम्) सम्यगर्थे (दूतम्) यो दुनोति सामादिभिः शत्रूँस्तम्। दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।८८#। (प्रत्नम्) कारणरूपेणानादिम्। नश्च पुराणे प्राद्वक्तव्याः*। अ० ५।४।३०। इति पुराणार्थे प्रशब्दात्त्नप् प्रत्ययः। (इन्धते) शुभगुणैः प्रकाशन्ते (विश्वम्) सर्वम् (सः) (अग्ने) धर्मविद्या श्रेष्ठगुणैः प्रकाशमानसभापते (जयति) उत्कर्षति (त्वया) (धनम्) विद्यासुवर्णादिकम् (यः) (ते) तव (ददाश) दाशति। अत्र लङर्थे लिट्। (मर्त्त्यः) मनुष्यः ॥४॥#[उ० ३।९०।] 
    *[नैत्यदृशं कञ्चित् सूत्रं वार्त्तिकं वा० विद्यते। अतः 'प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च' अ० ४।३।२३ अनेन वार्त्तिकेन 'प्रत्न' शब्द सिद्धय्ति। सं०]
    विषयः- पुनः स दूतः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे अग्ने सभेश यस्ते दूतो मर्त्त्यो धनं ददाश यस्त्वया सह शत्रूञ्जयति मित्रो वरुणोर्यमा देवासो यं दूतं समिन्धते यस्त्वा त्वां प्रजाञ्च प्रीणाति स प्रत्नं विश्वं राज्यं रक्षितुमर्हति ॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि केचिदपि सर्वशास्त्रविशारदै राजधर्मवित्तमैः परावरज्ञैर्धार्मिकैः प्रगल्भैः शूरैर्दूतैः सराजभिः सभासद्भिश्च विना राज्यं लब्धुं रक्षितुमुन्नेतुमुपकर्त्तुं शक्नुवंति तस्मादेवमेव सर्वैः सदा विधेयमिति ॥४॥

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    विषय

    धन - विजय

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (दूतम्) - कष्टों की अग्नि में सन्तप्त करके जीवनों को उज्ज्वल करनेवाले (प्रत्नम्) - सनातन - सदा से विद्यमान (त्वा) - आपको (देवासः) - दिव्यवृत्तिवाले लोग, (वरुणः) - द्वेष का निवारण करनेवाले, द्वेष से ऊपर उठनेवाले, (मित्रः) - सबसे स्नेह करनेवाले व सभी को पापों व मृत्युओं से बचानेवाले तथा (अर्यमा) - [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति] दान की वृत्तिवाले जितेन्द्रिय पुरुष (समिन्धते) - अपने हृदय में समिद्ध करते हैं, अर्थात् प्रभु को 'वरुण, मित्र, अर्यमा' की वृत्तिवाले देवलोग ही पाते हैं । 
    २. हे (अग्नेः) - सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! (यः मर्त्यः) - जो भी मरणधर्मा मनुष्य (ते ददाश) - तेरे प्रति अपना अर्पण करता है - तेरे चरणों में नतमस्तक होकर तेरी आज्ञा के अनुसार चलता है (सः) - वह (त्वया) - तुझ सहायक को प्राप्त करके (विश्वं धनम्) - सम्पूर्ण धन को (जयति) - जीतता है 'धनञ्जय' बनता है । आप सारथि होते हो तो यह 'धनञ्जय' अपने लक्ष्य को पा ही लेता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को पाने के लिए 'वरुण, मित्र व अर्यमा' बनना चाहिए, 'निद्वेष, स्नेही व दानशील' । प्रभु को अपना अर्पण करनेवाला सम्पूर्ण धनों का विजेता बनता है । 
     

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    विषय

    विद्वान् ज्ञानी का दूत और होता रूप से वरण । (

    भावार्थ

    (वरुणः) सबसे उत्कृष्ट, सबसे वरण करने योग्य, प्रजा के दुःखों का वारक, (मित्रः) स्नेही, मित्र राजा और (अर्यमा) न्यायकारी ये सब (देवासः) विद्वान् गण (त्वा) तुझ विद्वान् पुरुष को (दूतं) साम आदि उपायों से शत्रु के तापकारी जानकर ही दूत रूप से (सम् इन्धते) अग्नि के समान प्रज्वलित करते, अर्थात् उत्तम पदाधिकारों से सुशोभित करते हैं। (यः मर्त्यः) जो मनुष्य (ते) तेरे निमित्त (ददाश) आदर पूर्वक अधिकार प्रदान करता है, हे (अग्ने) विद्वन्! (सः) वह राजा (त्वया) तेरे द्वारा (विश्वं धनं) समस्त ऐश्वर्य और (प्रत्नं) प्राचीन काल से चले आये राज्य को भी (जयति) विजय कर लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणतीही माणसे सर्व शास्त्रात प्रवीण, राजधर्माला योग्यरीत्या जाणणारी, पर-अपर इतिहासाचे वेत्ते, धर्मात्मे, निर्भयतायुक्त सर्व विषयांचे वक्ते, शूरवीर दूत व उत्तम राजासहित सभासदाविना राज्य प्राप्त करणे, पालन करणे, वाढविणे व परोपकार करणे इत्यादींमध्ये समर्थ बनू शकत नाहीत. त्यामुळे पूर्वोक्त प्रकारानेच राज्याची प्राप्ती इत्यादीचे विधान सर्व लोकांनी करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, brilliant power of heat and light of yajna, harbinger of joy and inspiration, the noblest of the wise and generous people of the world and powers of nature, Varuna the high, Mitra the friendly, and Aryama the fair and just, all kindle and raise you high for the world’s yajna of growth and progress. The man who offers you the holy materials of yajna wins wealth of the world by virtue of your yajnic action.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that messenger is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)= Speaker of Assembly illuminated by knowledge of tenets and superior virtues! (yaḥ)=which, (te)=your, (dūtaḥ)= messenger, (martyaḥ)=men, (dhanam) =knowledge, gold etc., (dadāśa)=provides, [aura]=and, (yaḥ)=who, (tvayā)=your, (saha)=with, (śatrūn)=enemies, (jayati)= conquers, (mitraḥ)= is equallylike a friend, cordial and provider, (varuṇaḥ)=excellent, (aryyamā)= judge, (devāsaḥ)= He is polite and learned, (yam)=who, (dūtam)= harms enemies equally, [aura]= and, (sam)=equally, (yaḥ)=whose, (indhate)= good qualities are revealed, that (tvā)=you, (prajān)=subjects, (ca)=and, (prīṇāti)= are satisfied, (saḥ)=He,, (pratnam)=is causally primordial, [aura]=and, (viśvam)=all, (rājyam)=of the state, (rakṣitum)= to protect, (arhati)=is capable.

    English Translation (K.K.V.)

    O Speaker of the assembly! Illuminated by knowledge of the tenets and superior virtues! The one, who provides your messenger knowledge, gold etc. and who conquers enemies with you, is like a friend and provider, an excellent judge, civilized and scholar. Who harms enemies equally and whose, good virtues are revealed. Of that Your (God’s) subjects are also satisfied in that. He is causally primordial and is capable of protecting the entire state.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    No man, who is proficient in all the scriptures, knows the rājadharma [rules or laws relating to kings] precisely, but is a scholar of additional histories, a godly, fearlessly speaker of all subjects, without the brave messengers and councilors including the best king, to get, maintain, increase and devote the kingdom to charity. If you cannot be able to do this, everyone should always do the law of attainment of the state in the aforesaid way.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that ambassador or messenger is taught further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, shining on account of Dharma (righteousness) wisdom and other noble virtues, your messenger who is liberal in giving wealth of all kinds in charity and who conquers enemies with you, whom noble and most acceptable persons, friendly and life-givers to all and just enkindle or instruct, he who pleases you and the people, it is such a true messenger who makes enemies un-easy by adopting peaceful methods that can preserve the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मित्र:) मित्रप्रदः प्राणप्रद = Life giver like a friend. दूतम् । यो दुनोति सामादिभिः शत्रूंस्तम् । दूतनिभ्य दीर्घश्च । ( उणा० ३-८८) = A messenger.(अग्ने) धर्मविद्याश्रेष्ठगुणैः प्रकाशमान सभापते । = O President of the Assembly, shining on account of Dharma (righteousness), wisdom and noble virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can achieve, preserve and develop or prosper the State without the brave ambassadors or messengers who are well-versed in all Shastras, the best among the knowers of Political Science and History, righteous and clever. Therefore all should act as stated in these Mantras.

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