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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती स्वरः - मध्यमः

    यम॒ग्निं मेध्या॑तिथिः॒ कण्व॑ ई॒ध ऋ॒तादधि॑ । तस्य॒ प्रेषो॑ दीदियु॒स्तमि॒मा ऋच॒स्तम॒ग्निं व॑र्धयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अ॒ग्निम् । मेध्य॑ऽअतिथिः । कण्वः॑ । ई॒घे । ऋ॒तात् । अधि॑ । तस्य॑ । प्र । इषः॑ । दी॒दि॒युः॒ । तम् । इ॒माः । ऋचः॑ । तम् । अ॒ग्निम् । व॒र्ध॒या॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि । तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अग्निम् । मेध्यअतिथिः । कण्वः । ईघे । ऋतात् । अधि । तस्य । प्र । इषः । दीदियुः । तम् । इमाः । ऋचः । तम् । अग्निम् । वर्धयामसि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (यम्) (अग्निम्) दाहगुणविशिष्टं सर्वपदार्थछेदकं च (मेध्यातिथिः) पवित्रैः पूजकैः शिष्यवर्गैर्युक्तो विद्वान् (कण्वः) विद्याक्रियाकुशलः (ईधे) दीपयते। अत्र लङर्थे लिट्। इजादेश्चगुरुमतोनृच्छः। अ० ३।१।३६। इत्यमंत्र इतिप्रतिषेधा इदाम्# निषेधः। इन्धिभवतिभ्याञ्च। अ० १।२।६। इतिलिटः कित्त्वाद् अनिदिताम०* इति नलोपोगुणाऽभावश्च। (ऋतात्) मेघमण्डलादुपरिष्टादुदकात् (अधि) उपरिभावे (तस्य) अग्नेः (प्र) प्रकृष्टार्थे (इषः) प्रापिका दीप्तयो रश्मयः (दीदियुः) दीयन्ते दीदयतीति ज्वलतिकर्मसु पठितम्। निघं० १।१६। दीङ्क्षय इत्यस्माद्। व्यत्ययेन परस्मैपदमभ्यासस्य ह्रस्वत्वे वाच्छन्दसि सर्वेविधयो भवन्ती इत्यनभ्यासस्य ह्रस्वः। सायणाचार्येणेदं पदमन्यथा व्याख्यातम् (तम्) यज्ञस्य मुख्यं साधनम् (इमाः) प्रत्यक्षाः (ऋचः) वेदमंत्राः (तम्) विद्युदाख्यम् (अग्निम्) सर्वत्रव्यापकम् (वर्धयामसि) वर्धयामः ॥११॥ #[अमन्त्रे इति पूर्वसूत्रादनुवृत्तौ सत्यामाम् निषेधः, इत्यर्थः। सं०] *[अ० ६।४।२४]

    अन्वयः

    पुनरेतैरग्न्यादिपदार्थाः कथमुपकर्त्तव्याः।

    पदार्थः

    मेध्यातिथिः कण्व ऋतादधि यमग्निमीधे तस्येषो प्रदीदियुरिमा ऋचस्तं वर्णयन्ति तमेवाग्निं राजपुरुषा वयं शिल्पक्रियासिद्धये वर्धयामसि ॥११॥

    भावार्थः

    सभाध्यक्षादिराजपुरुषैर्होत्रादयो विद्वांसो वायुवृष्टिशुद्ध्यर्थहवनाय यमग्निं दीपयन्ति यस्य रश्मय ऊर्ध्वं प्रकाशन्ते यस्य गुणान् वेदमन्त्रा वदन्ति स राजव्यवहारसाधकशिल्पक्रियासिद्धय एव वर्द्धनीयः ॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सभाध्यक्षादि लोग अग्नि आदि पदार्थों से कैसे उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    (मेध्यातिथिः) पवित्र सेवक शिष्यवर्गों से युक्त (कण्वः) विद्यासिद्ध कर्मकाण्ड में कुशल विद्वान् (ऋतादधि) मेघमण्डल के ऊपर से सामर्थ्य होने के लिये (यम्) जिस (अग्निम्) दाहयुक्त सब पदार्थों के काटनेवाले अग्नि को (ईधे) प्रदीप्त करता है (तस्य) उस अग्नि के (इषः) घृतादि पदार्थों को मेघमण्डल में प्राप्त करनेवाले किरण (प्र) अत्यन्त (दीदियुः) प्रज्वलित होते हैं और (इमाः) ये (ऋचः) वेद के मंत्र जिस अग्नि के गुणों का प्रकाश करते हैं (तम्) उसी (अग्निम्) अग्नि को सभाध्यक्षादि राजपुरुष हम लोग शिल्प क्रियासिद्धि के लिये (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि होता आदि विद्वान् लोग वायु वृष्टि के शोधक हवन के लिये जिस अग्नि को प्रकाशित करते हैं जिसके किरण ऊपर को प्रकाशित होते और जिसके गुणों को वेदमंत्र कहते हैं उसी अग्नि को राज्य साधक क्रियासिद्धि के लिये बढ़ावें ॥११॥

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    विषय

    फिर सभाध्यक्षादि लोग अग्नि आदि पदार्थों से कैसे उपकार लेवें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मेध्यातिथिः कण्वः ऋतात् अधि यम् अग्निम् ईधे तस्य इषः प्रदीदियुः इमाः ऋचः तं वर्णयन्ति तम् एव अग्निं राजपुरुषा वयं शिल्पक्रियासिद्धये वर्धयामसि ॥११॥

    पदार्थ

    (मेध्यातिथिः) पवित्रैः पूजकैः शिष्यवर्गैर्युक्तो विद्वान्=शिष्य वर्गयुक्त पवित्र पूजक विद्वानों के द्वारा, (कण्वः) विद्याक्रियाकुशलः=विद्या को कुशलता से क्रिया में प्रयोग करने वाले, (ऋतात्) मेघमण्डलादुपरिष्टादुदकात्=मेघमण्डलात् उपरिष्टात् उदकात्=मेघमण्डल के उपर से उत्तर दिशा से, (अधि) उपरिभावे=उपर, (अग्निम्) दाहगुणविशिष्टं सर्वपदार्थछेदकं च=अग्नि के जलाने के गुण से सब पदार्थों का छेदन करने वाले, (अग्निम्) सर्वत्रव्यापकम्=सर्वत्र व्यापक अग्नि, (ईधे) दीपयते=प्रदीप्त करता है, (तस्य) अग्नेः=अग्नि में, (इषः) प्रापिका दीप्तयो रश्मयः=रखा गया किरणों से प्रदीप्त करता है, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (दीदियुः) दीयन्ते दीदयतीति=प्रज्वलित होते हैं, (इमाः) प्रत्यक्षाः=प्रत्यक्ष, [ऋचः तम् वर्णयन्ति तम् ] (ऋचः) वेदमंत्राः=वेदमंत्र, (तम्) यज्ञस्य मुख्यं साधनम्=वे यज्ञ के मुख्य साधन, (वर्णयन्ति)=वर्णित किये जाते हैं,  (तम्) विद्युदाख्यम्=उन विद्युत् नाम से कहे गये ये, (एव)=ऐसे (अग्निम्)=अग्नि को, (वयम्)=हम,  (राजपुरुषाः)= राजपुरुष, (शिल्पक्रियासिद्धये)=शिल्प क्रिया की सिद्धि के लिये, (वर्धयामसि) वर्धयामः=बढ़ाते हैं॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों को चाहिये कि होता आदि विद्वान् लोग वायु वृष्टि के शोधक हवन के लिये जिस अग्नि को प्रकाशित करते हैं। जिसके किरण ऊपर को प्रकाशित होते और जिसके गुणों को वेदमंत्र कहते हैं, उसी अग्नि को राज्य साधक क्रिया सिद्धि के लिये बढ़ावें ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मेध्यातिथिः) शिष्यों के समूह से युक्त पवित्र पूजक विद्वानों के द्वारा (कण्वः) विद्या को कुशलता से क्रियान्वित करने वाले और (ऋतात्) मेघमण्डल के उपर से उत्तर दिशा से (अग्निम्) अग्नि के जलाने के गुण से सब पदार्थों का छेदन करने वाले, (अग्निम्) सर्वत्र व्यापक अग्नि को (ईधे) प्रदीप्त करते हैं। (तस्य) उस अग्नि में (इषः) पहुँचाये गये किरणों से प्रदीप्त करते है। यह (प्र) श्रेष्ठ रूप से, (दीदियुः) प्रज्वलित होता है और (इमाः) जो प्रत्यक्ष (ऋचः) वेद मंत्र (तम्) यज्ञ के मुख्य साधन (वर्णयन्ति) वर्णित किये जाते हैं।  (तम्) उन विद्युत् नाम से कहे गये, (एव) ऐसे (अग्निम्) अग्नि को (वयम्) हम (राजपुरुषाः) राजपुरुष (शिल्पक्रियासिद्धये) शिल्प क्रिया की सिद्धि के लिये (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यम्) (अग्निम्) दाहगुणविशिष्टं सर्वपदार्थछेदकं च (मेध्यातिथिः) पवित्रैः पूजकैः शिष्यवर्गैर्युक्तो विद्वान् (कण्वः) विद्याक्रियाकुशलः (ईधे) दीपयते। अत्र लङर्थे लिट्। इजादेश्चगुरुमतोनृच्छः। अ० ३।१।३६। इत्यमंत्र इतिप्रतिषेधा इदाम्# निषेधः। इन्धिभवतिभ्याञ्च। अ० १।२।६। इतिलिटः कित्त्वाद् अनिदिताम०* इति नलोपोगुणाऽभावश्च। (ऋतात्) मेघमण्डलादुपरिष्टादुदकात् (अधि) उपरिभावे (तस्य) अग्नेः (प्र) प्रकृष्टार्थे (इषः) प्रापिका दीप्तयो रश्मयः (दीदियुः) दीयन्ते दीदयतीति ज्वलतिकर्मसु पठितम्। निघं० १।१६। दीङ्क्षय इत्यस्माद्। व्यत्ययेन परस्मैपदमभ्यासस्य ह्रस्वत्वे वाच्छन्दसि सर्वेविधयो भवन्ती इत्यनभ्यासस्य ह्रस्वः। सायणाचार्येणेदं पदमन्यथा व्याख्यातम् (तम्) यज्ञस्य मुख्यं साधनम् (इमाः) प्रत्यक्षाः (ऋचः) वेदमंत्राः (तम्) विद्युदाख्यम् (अग्निम्) सर्वत्रव्यापकम् (वर्धयामसि) वर्धयामः ॥११॥ #[अमन्त्रे इति पूर्वसूत्रादनुवृत्तौ सत्यामाम् निषेधः, इत्यर्थः। सं०] *[अ० ६।४।२४]
    विषयः- पुनरेतैरग्न्यादिपदार्थाः कथमुपकर्त्तव्याः।

    अन्वयः- मेध्यातिथिः कण्व ऋतादधि यमग्निमीधे तस्येषो प्रदीदियुरिमा ऋचस्तं वर्णयन्ति तमेवाग्निं राजपुरुषा वयं शिल्पक्रियासिद्धये वर्धयामसि ॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाध्यक्षादिराजपुरुषैर्होत्रादयो विद्वांसो वायुवृष्टिशुद्ध्यर्थहवनाय यमग्निं दीपयन्ति यस्य रश्मय ऊर्ध्वं प्रकाशन्ते यस्य गुणान् वेदमन्त्रा वदन्ति स राजव्यवहारसाधकशिल्पक्रियासिद्धय एव वर्द्धनीयः ॥११॥

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    विषय

    मेध्यातिथि

    पदार्थ

    १. (यम्) - जिस (अग्निम्) - अग्रणी प्रभु को (मेध्यातिथिः) - पवित्रता की ओर व पवित्र यज्ञादि कर्मों की ओर निरन्तर चलनेवाला (कण्वः) - मेधावी पुरुष (ऋतात् अधि ईथे) - ऋत के द्वारा, नियमित क्रियाओं के द्वारा आधिक्येन दीप्त करता है, (तस्य) - उस प्रभु को ही (इमाः) - ये सब (ऋचः) - ऋचाएँ बढ़ाती हैं - ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्, सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति', - सब ऋचाएँ उस व्यापक अविनाशी परमात्मा में ही स्थित हैं और सारे वेद उस प्राप्त करने योग्य प्रभु को ही प्रतिपादित कर रहे हैं । 
    ३. हम सब भी (तम् अग्निम्) - उस सर्वाग्रणी प्रभु को ही (वर्धयामसि) - बढ़ाते हैं, अर्थात् उस प्रभु का ही स्तवन करते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम कण्व बनकर ऋत का पालन करें । यह ऋत का पालन ही हमें प्रभु के प्रकाश को प्राप्त कराएगा । ये प्रभु ही सब छन्दों में प्रतिपाद्य हैं । 
     

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    विषय

    राजा को विद्वानों का साहाय्य ।

    भावार्थ

    १० वें मन्त्र में दोनों का संयुक्त भाष्य देखें.

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुष, होता इत्यादी विद्वान लोक वायू वृष्टीच्या शुद्धीसाठी हवन करून ज्या अग्नीला प्रकाशित करतात व ज्याचे किरण वर प्रकाशित होतात व ज्याच्या गुणांना वेदमंत्राद्वारे वर्णित केले जाते, त्या अग्नीला राज्यसाधक क्रियासिद्धीसाठी वृद्धिंगत करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The fire and energy which kanva, expert scholar of science and practical work, karma kanda, in company with his disciples of technical yajna, captured and lighted from the waves and waters over the sky, and whose flames reach beyond the sky over the clouds, these hymns of celebration illumine and the same we develop and augment.

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    Subject of the mantra

    Then, how the people of the assembly should take help from the fire etc. this subject has been preached in the mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (medhyātithiḥ)=By the sacred worship scholars consisting of a group of disciples, (kaṇvaḥ)= skillfully implementing the knowledge, [aura]=and, (ṛtāt)= from the north from the top of the cloud, (agnim)= The one who pierces all things with the burning quality of fire, (īdhe)=Illuminate, (tasya)= in that fire, (iṣaḥ)= Illuminate by the transmitted rays., [yaha]=this, (pra)= in a great way, (dīdiyuḥ)= ignites, [aura]= and, (imāḥ)=those evident, (ṛcaḥ)=mantras of Vedas, (tam)= principal means of Yajna, (varṇayanti)= are described, (tam)= called by the name of electricity, (eva)=such, (agnim)=fire, (vayam)=we, (rājapuruṣāḥ)=members of the royal family, (śilpakriyāsiddhaye)=to accomplish works of artifacts, (vardhayāmasi)=raise.

    English Translation (K.K.V.)

    By the sacred worship scholars consisting of a group of disciples, who skilfully execute the knowledge and who pierce all things with the quality of burning fire from the north direction from above the clouds, ignite the universal fire everywhere. Illuminate with the rays brought into that fire. It is the best ignited and which are described as the main means of evident mantras of Vedas. Illuminate with the rays brought into that fire. We raise such a fire, called by the name of lightning, for the accomplishment of craftsmanship of the members of royal family.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is Illuminated by the head of the assembly, the king, the learned people, the fire that they light for the offering for the purification of the wind rain, whose qualities are recited by the mantras of Vedas, the same deserves to be extended to the seeker of the state's practice and for the accomplishment of the craftsmanship.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We, workers of the State and others, extol for the accomplishment of the works of art and industry the fire (in the form of electricity) whom a wise man, expert in knowledge and action and surrounded by pure-minded pupils kindles from the water above the clouds and whose rays pre-eminently shine. These Vedic Mantras describe that Agni variously.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मेध्यातिथिः) पवित्रैः पूजकैः शिष्यवर्गेर्युक्तो विद्वान् = A learned person accompanied by pure and devoted pupils. ( कण्व:) विद्याक्रियाकुशल: = A highly intelligent expert in knowledge and action.[ कण्व इति मेधाविनाम निघ० ३.१५] [ऋतात् अघि] मेघमण्डलादुपरिष्टात् उदकात् = From the water above the clouds. ( इष:) प्रापिका दीप्तयो रश्मयः = Lustres or rays (इष-गतौ — गतेस्त्रयोऽर्था: शानं गमनं प्राप्तिश्च मन्त्र प्रकाशप्रापिका दीप्तय:)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the Assembly and other persons of the State should properly utilize the fire which is kindled by the priests and other learned men for the homa that is meant to purify the air and the rain and whose glows or lusters go upwards, whose properties are mentioned in the Vedic Mantras, for the accomplishment of the work of arts and industries that is helpful for administrative purposes.

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