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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते । होत्रा॑भिर॒ग्निं मनु॑षः॒ समि॑न्धते तिति॒र्वांसो॒ अति॒ स्रिधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । घ॒ । ई॒म् । इ॒त्था । न॒म॒स्विनः॑ । उप॑ । स्व॒ऽराज॑म् । आ॒स॒ते॒ । होत्रा॑भिः । अ॒ग्निम् । मनु॑षः । सम् । इ॒न्ध॒ते॒ । ति॒ति॒र्वांसः॑ । अति॑ । स्रिधः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । घ । ईम् । इत्था । नमस्विनः । उप । स्वराजम् । आसते । होत्राभिः । अग्निम् । मनुषः । सम् । इन्धते । तितिर्वांसः । अति । स्रिधः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (तम्) प्रधानं सभाध्यक्षं राजानम् (घ) एव (ईम्) प्रदातारम्। ईमिति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (इत्था) अनेन प्रकारेण (नमस्विनः) नमः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते येषां ते। अत्र प्रशंसार्थे विनिः। (उप) सामीप्ये (स्वराजम्) स्वेषां राजा स्वराजस्तम् (आसते) उपविशन्ति (होत्राभिः) हवनसत्यक्रियाभिः (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपम् (मनुषः) मनुष्याः। अत्र मनधातोर्बाहुलकादौणादिक उसिः प्रत्ययः। (सम्) सम्यगर्थे (इन्धते) प्रकाशयन्ते (तितिर्वांसः) सम्यक् तरन्तः। अत्र तॄधातोर्लिटः* स्थाने वर्त्तमाने क्वसुः। (अति) अतिशयार्थे (स्रिधः) हिंसकान क्षयकर्त्तृञ्च्छत्रून् ॥७॥*[लोटः। सं०]

    अन्वयः

    पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    पदार्थः

    ये नमस्विनो मनुषो होत्राभिस्तं स्वराजमग्निं सभाध्यक्षं घोपासते समिन्धते च तेऽतिस्रिधस्तितिर्वांसो भवेयुः ॥७॥

    भावार्थः

    न खलु सभाध्यक्षोपासकैः सभासद्भिर्भृत्यैर्विना कश्चिदपि स्वराजसिद्धिं प्राप्य शत्रून् विजेतुं शक्नोति ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी अर्थ का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    जो (नमस्विनः) उत्तम सत्कार करनेवाले (मनुषः) मनुष्य (होत्राभिः) हवनयुक्त सत्य क्रियाओं से (स्वराजम्) अपने राजा (अग्निम्) ज्ञानवान् सभाध्यक्ष को (घ) ही (उपासते) उपासना और (तम्) उसीका (समिन्धते) प्रकाश करते हैं वे मनुष्य (स्रिधः) हिंसा नाश करनेवाले शत्रुओं को (अति तितिर्वांसः) अच्छे प्रकार जीतकर पार हो सकते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य सभाध्यक्ष की उपासना करनेवाले भृत्य और सभासदों के विना अपने राज्य की सिद्धि को प्राप्त होकर शत्रुओं से विजय को प्राप्त नहीं हो सकता ॥७॥

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    विषय

    फिर उसी अर्थ का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये नमस्विनः मनुषः होत्राभिः तं स्वराजम् अग्निं सभाध्यक्षं घ उप आसते सम् इन्धते च ते अति स्रिधः तितिर्वांसः भवेयुः ॥७॥

    पदार्थ

    (ये)=जो, (नमस्विनः) नमः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते येषां ते=जिनके पास  शस्त्रों का समूह है, उनका सत्कार है,  (मनुषः) मनुष्याः= मनुष्य, (होत्राभिः) हवनसत्यक्रियाभिः=हवन की सत्य क्रिया के द्वारा, (तम्) प्रधानं सभाध्यक्षं राजानम्=उस प्रधान सभाध्यक्ष राजा को, (स्वराजम्) स्वेषां राजा स्वराजस्तम्= अपने इस राजा को, (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपम्=ज्ञानस्वरूप, (सभाध्यक्षम्)=सभाध्यक्ष, की (घ) एव=ही, (उप) सामीप्ये=समीपता से, (आसते) उपविशन्ति=बैठते हैं, (च)=और,  (सम्) सम्यगर्थे=सम्यक् रूप से, (इन्धते) प्रकाशयन्ते=प्रकाशित होते हैं। (ते)=आप, (अति) अतिशयार्थे=अतिशय, (स्रिधः) हिंसकान क्षयकर्त्तृञ्च्छत्रून्=क्षय करने वाले हिंसक शत्रुओं को,  (तितिर्वांसः) सम्यक् तरन्तः=अच्छे प्रकार से तैर कर पार,  (भवेयुः)=हो जावें॥७॥
     

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो लोग, (नमस्विनः) जिनके पास  शस्त्रों का समूह है, उनका सत्कार है। (मनुषः) मनुष्याः=मनुष्य,   (होत्राभिः) हवन की सत्य क्रिया के द्वारा (तम्) उस प्रधान सभाध्यक्ष (स्वराजम्) अपने इस राजा और (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप (सभाध्यक्षम्) सभाध्यक्ष की (घ) ही (उप) समीपता में (आसते) बैठते हैं, (च) और  (सम्) सम्यक् रूप से (इन्धते) प्रकाशित होते हैं। (ते) आप (अति) अतिशय  (स्रिधः) क्षय करने वाले हिंसक शत्रुओं को (तितिर्वांसः) अच्छे प्रकार तैर कर पार  (भवेयुः) हो जावें॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तम्) प्रधानं सभाध्यक्षं राजानम् (घ) एव (ईम्) प्रदातारम्। ईमिति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (इत्था) अनेन प्रकारेण (नमस्विनः) नमः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते येषां ते। अत्र प्रशंसार्थे विनिः। (उप) सामीप्ये (स्वराजम्) स्वेषां राजा स्वराजस्तम् (आसते) उपविशन्ति (होत्राभिः) हवनसत्यक्रियाभिः (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपम् (मनुषः) मनुष्याः। अत्र मनधातोर्बाहुलकादौणादिक उसिः प्रत्ययः। (सम्) सम्यगर्थे (इन्धते) प्रकाशयन्ते (तितिर्वांसः) सम्यक् तरन्तः। अत्र तॄधातोर्लिटः* स्थाने वर्त्तमाने क्वसुः। (अति) अतिशयार्थे (स्रिधः) हिंसकान क्षयकर्त्तृञ्च्छत्रून् ॥७॥*[लोटः। सं०]
    विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    अन्वयः- ये नमस्विनो मनुषो होत्राभिस्तं स्वराजमग्निं सभाध्यक्षं  घोपासते समिन्धते च तेऽतिस्रिधस्तितिर्वांसो भवेयुः ॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- न खलु सभाध्यक्षोपासकैः सभासद्भिर्भृत्यैर्विना कश्चिदपि स्वराजसिद्धिं प्राप्य शत्रून् विजेतुं शक्नोति ॥७॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- कोई भी मनुष्य सभाध्यक्ष की उपासना करने वाले भृत्य और सभासदों के विना अपने राज्य की सिद्धि को प्राप्त होकर शत्रुओं से विजय को प्राप्त नहीं हो सकता ॥७॥

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    विषय

    प्रभु - प्राप्ति के साधन व फल तं

    पदार्थ

    १. (तम्) - उस (स्वराजम्) - स्वयं देदीप्यमान प्रभु को (घ) - निश्चय से (ईम्) - सचमुच (इत्था) - इस प्रकार से, अर्थात् गतमन्त्र के अनुसार हवि की आहुति देने से, त्यागपूर्वक उपभोग करने से (नमस्विनः) - उत्तम अन्नोंवाले होते हुए [नमः अन्न - नि०] अथवा नमस्कारयुक्त होते हुए (उपासते) - उपासित करते हैं, एवं प्रभु की उपासना के लिए आवश्यक है कि हम [क] हवि का स्वीकार करें, यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें । [ख] उत्तम सात्विक अन्न का प्रयोग करें । [ग] नमस्कारयुक्त हों, नम्रतावाले हों । 
    २. उस (अग्नि) - अग्रणी प्रभु को (होत्राभिः) - दानपूर्वक अदन की क्रियाओं से, त्याग से (मनुषः) - विचारशील पुरुष (समिन्धते) - अपने हृदयों में दीप्त करते हैं और इस प्रभु - दीप्ति का परिणाम यह होता है कि ये (स्त्रिधः) - हिंसक शत्रुओं को विनाशकारी काम, क्रोध, लोभादि वासनाओं को (तितिर्वांसः) - तैर जाते हैं । प्रभु की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम [क] त्यागशील बनें, यज्ञशेष का सेवन करें । [ख] विचारशील स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान को बढ़ानेवाले हों । प्रभुप्राप्ति का लाभ यह होगा कि हम कामादि शत्रुओं को पराजित कर सकेंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुप्राप्ति के प्रमुख साधन नम्रता, त्याग व विचार [ज्ञान] हैं । प्रभुप्राप्ति का लाभ 'काम, क्रोध, लोभादि' का संहार है । 
     

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    विषय

    स्वराट् की उपासना ।

    भावार्थ

    (इत्था) इस प्रकार से (नमस्विनः) शत्रु को नमाने वाले, शस्त्रास्त्र बल को धारण करने वाले राष्ट्रवासी जन (तम् घ इम) उस वीर नायक पुरुष को ही (स्वराजम्) अपना राजा बना कर (उप आसते) उसका आश्रय लेते हैं। और (होत्राभिः) उत्तम २ पदार्थों को आदरपूर्वक देने आदि क्रियाओं से भी (मनुषः) वे मननशील पुरुष (अग्निम्) अग्रणी पुरुष को ही हवन आदि यज्ञाहुतियों से अग्नि के समान (सम् इन्धते) अच्छी प्रकार प्रज्वलित, तेजस्वी और बलशाली करते हैं। तभी वे (स्त्रिधः) अपने हिंसक शत्रुओं को (अति तितिर्वांसः) पार कर जाते हैं, उनको विजय करने में समर्थ होते हैं। परमेश्वर स्वप्रकाश होने से स्वराट् है, भक्तिपूर्वक जन उसकी उपासना करते हैं। योग यज्ञाहुतियों से उसी को प्रज्वलित करते और दुःख बन्धनों से पार तर जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणतीही माणसे सभाध्यक्षाची भक्ती करणारी, सेवक व सभासद यांच्याशिवाय आपले राज्य प्राप्त करून शत्रूंवर विजय मिळवू शकत नाहीत. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Surely men of faith and reverence wielding power and weapons sit and abide by the brilliant sovereign ruler. They kindle the fire and do homage to Agni with sacrificial offers and, wishing to get over the violent and destructive forces, win the battles of life.

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    Subject of the mantra

    Then, again for the same purport preaching has been done.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (namasvinaḥ) jinake pāsa śastroṃ kā samūha hai, unakā satkāra hai| (manuṣaḥ) manuṣyāḥ= manuṣya, (ye)=Those people, (namasvinaḥ)=those who have a set of weapons are honoured, (manuṣaḥ)=men, (hotrābhiḥ)= through the true action of Yajna, (tam)=that president of the Assembly, (svarājam)=their kthis king, [aur]=and, (agnim)=knowledgeable, (sabhādhyakṣam)=of president of the Assembly, (gha)=only, (upa)= closely, (āsate)=sit, (ca)=and, (sam)= in the proximity, (indhate)=are illuminated, (te)=you, (ati)= excessive, (sridhaḥ)= to violent enemies who destroy, (titirvāṃsaḥ+bhaveyuḥ)=may you swim well.

    English Translation (K.K.V.)

    Those who have a set of weapons are honoured. Human beings sit in the proximity of that principal councilor, their king and the president of the assembly in the form of knowledge, through the true action of the Havana (offering of ghee and food etc. substances into the sacred fire) and are properly illuminated. You can swim well over the violent enemies that destroy you very much. (Here swimming is meant for winning over the enemies.)

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    No man can achieve the accomplishment of his kingdom without the devotees and councilors who worship the president.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who possess weapons to destroy their enemies and who with Haven (daily Yajna) and other noble acts approach and enkindle (support ) the King or President of the Assembly who is bright with his radiance, are victorious over their foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ईम् ) प्रदातारम् । ईम् इति पदनामसु पठितम् । ( निघ० ४.२) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते = Liberal donor. (नमस्विनः ) नमः प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते येषां ते । अत्र प्रशंसार्थे विनिः । = Possessing good weapons. ( स्त्रिधः) हिंसकान् क्षयकर्तन् शत्रून् = Violent enemies.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can overcome his enemies without the members of the Assembly and servants of the State, who are devoted to the liberal President of the Assembly or the council of ministers) having attained Swarajya.

    Translator's Notes

    ईम्-पद-गतौ, गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थेमादाय प्रदातारम् इत्यर्थः कृतः = Literarily he who causes to attain, donor. नमस्विनः नम इति वज्रनाम ( निघ० २.२० )

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