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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    जना॑सो अ॒ग्निं द॑धिरे सहो॒वृधं॑ ह॒विष्म॑न्तो विधेम ते । स त्वं नो॑ अ॒द्य सु॒मना॑ इ॒हावि॒ता भवा॒ वाजे॑षु सन्त्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जना॑सः । अ॒ग्निम् । द॒धि॒रे॒ । स॒हः॒ऽवृध॑म् । ह॒विष्म॑न्तः । वि॒धे॒म॒ । ते॒ । सः । त्वम् । नः॒ । अ॒द्य । सु॒ऽमनाः॑ । इ॒ह । अ॒वि॒ता । भव॑ । वाजे॑षु । स॒न्त्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते । स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनासः । अग्निम् । दधिरे । सहःवृधम् । हविष्मन्तः । विधेम । ते । सः । त्वम् । नः । अद्य । सुमनाः । इह । अविता । भव । वाजेषु । सन्त्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (जनासः) विद्यासु प्रादुर्भूता मनुष्याः (अग्निम्) सर्वाभिरक्षकमीश्वरम् (दधिरे) धरन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (सहोवृधम्) सहोबलं वर्धयतीति सहोवृत्तम् (हविष्मन्तः) प्रशस्तानि हवींषि दातुमादातुमर्हाणि वस्तूनि विद्यन्ते येषां ते। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (विधेम) सेवेमहि (ते) तव। अत्र सायणाचार्य्येण ते त्वामित्युक्तं तन्न संभवति द्वितीयैकवचने त्वाऽऽदेशविधानात् (सः) ईश्वरः (त्वम्) सर्वदाप्रसन्नः (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (सुमनाः) शोभनं मनोज्ञानं यस्य सः (इह) अस्मिन् संसारे (अविता) रक्षको ज्ञापकः सर्वासु विद्यासु प्रवेशकः (भवा) अत्र द्वचोतस्तिङ् इति दीर्घः। (वाजेषु) युद्धेषु (संत्य) सन्तौ दाने साधुस्तत्संबुद्धौ। अत्र षणुदानइत्यस्माद्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययस्ततः साध्वर्थे यच्च ॥२॥

    अन्वयः

    पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे सन्त्येश्वर यथा हविष्मन्तो जनासो यस्य ते तवाश्रयं दधिरे तथा तं सहोवृधमग्निं त्वां वयं विधेम स सुमनास्त्वमद्य नोस्माकमिह वाजेषु चाविता भव ॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरेकस्याद्वितीयपरमेश्वरस्योपासनेनैव संतोषितव्यं नहि विद्वांसः कदाचिद् ब्रह्मस्थानेऽन्यद्वस्तूपास्यत्वेन स्वीकुर्वन्ति। अत एव तेषां युद्धेष्विह कदाचित् पराजयो न दृश्यते। एवं नहि कदाचिदनीश्वरोपासकास्तान् विजेतुं शक्नुवन्ति येषामीश्वरो रक्षकोस्ति कुतस्तेषां पराभवः ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में उक्त विषय का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (सन्त्य) सब वस्तु देनेहारे ईश्वर ! जैसे (हविष्मन्तः) उत्तम देने लेने योग्य वस्तुवाले (जनासः) विद्या में प्रसिद्ध हुए विद्वान् लोग जिस (ते) आपके आश्रय का (दधिरे) धारण करते हैं वैसे उन (सहोवृधम्) बल को बढ़ानेवाले (अग्निम्) सबके रक्षक आपको हम लोग (विधेम) सेवन करें (सः) सो (सुमनाः) उत्तम ज्ञानवाले (त्वम्) आप (अद्य) आज (नः) हम लोगों के (इह) इस संसार और (वाजेषु) युद्धो में (अविता) रक्षक और सब विद्याओं में प्रवेश करानेवाले (भव) हूजिये ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को एक अद्वितीय परमेश्वर की उपासना ही से संतुष्ट रहना चाहिये क्योंकि विद्वान् लोग परमेश्वर के स्थान में अन्य वस्तु को उपासना भाव से स्वीकार कभी नहीं करते इसी कारण उनका युद्ध वा इस संसार में कभी पराजय दीख नहीं पड़ता क्योंकि वे धार्मिक ही होते हैं और इसीसे ईश्वर की उपासना नहीं करनेवाले उनके जीतने को समर्थ नहीं होते, क्योंकि ईश्वर जिनकी रक्षा करनेवाला है उनका कैसे पराजय हो सकता है ॥२॥

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में उक्त विषय का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सन्त्य ईश्वर यथा हविष्मन्तः जनासः यस्य ते तव आश्रयं दधिरे तथा तं सहोवृधम् अग्निं त्वां वयं विधेम स सुमनाः त्वम् अद्य नः अस्माकम् इह वाजेषु च अविता भव ॥२॥

    पदार्थ

    हे  (संत्य) सन्तौ दाने साधुस्तत्सम्बुद्धौ=अच्छे व्यवहार वाले को देने हेतु पूर्ण ज्ञान रखने वाले, (ईश्वर)= ईश्वर, (यथा)=जैसे, (हविष्मन्तः) प्रशस्तानि हवींषि दातुमादातुमर्हाणि वस्तूनि विद्यन्ते येषां ते= घृत, अन्न आदि वस्तुओं को देने और लेने के योग्य, (जनासः) विद्यासु प्रादुर्भूता मनुष्याः=विद्या में प्रसिद्ध हुए विद्वान् लोग, (यस्य)=जिस, (ते) तव=आपका, (आश्रयम्)=आश्रय,   (दधिरे) धरन्ति=धारण करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (तम्)=उस, (सहोवृधम्) सहोबलं वर्धयतीति सहोवृधम्=बल को बढ़ानेवाले, (अग्निम्) सर्वाभिरक्षकमीश्वरम्=सबकी रक्षा करने वाले ईश्वर, (त्वाम्)=आपका, (वयम्)=हम, (विधेम) सेवेमहि=सेवन करें, (सः) ईश्वरः=ईश्वर,  (सुमनाः) शोभनं मनोज्ञानं यस्य सः=जिसका मनोज्ञान शोभन है, ऐसे (त्वम्) सर्वदाप्रसन्नः=सर्वदा प्रसन्न रहने वाले, (अद्य) अस्मिन्नहनि=आज के ही दिन, (नः) अस्माकम्=हमें, (इह) अस्मिन् संसारे=इस  संसार में, (च)=और, (वाजेषु)=युद्धों में, (अविता) रक्षको ज्ञापकः सर्वासु विद्यासु प्रवेशकः=रक्षक के रूप में जानी गई सब विद्याओं में प्रवेश करानेवाले, (भव)=हूजिये ॥२॥  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को एक अद्वितीय परमेश्वर की उपासना ही से सन्तुष्ट रहना चाहिये क्योंकि विद्वान् लोग परमेश्वर के स्थान में अन्य वस्तु को उपासना भाव से स्वीकार कभी नहीं करते इसी कारण उनका युद्ध वा इस संसार में कभी पराजय दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि वे धार्मिक ही होते हैं और इसी से ईश्वर की उपासना नहीं करने वाले उनको जीतने में समर्थ नहीं होते हैं,  क्योंकि ईश्वर जिनकी रक्षा करने वाला है उनका कैसे पराजय हो सकता है ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (संत्य) अच्छे व्यवहार वाले को देने हेतु पूर्ण ज्ञान रखने वाले (ईश्वर) ईश्वर!  (यथा) जैसे (हविष्मन्तः) घृत, अन्न आदि वस्तुओं को देने और लेने के योग्य (जनासः) विद्या में प्रसिद्ध हुए विद्वान् लोग (यस्य) जिस (ते) आपका (आश्रयम्) आश्रय (दधिरे) धारण करते हैं, (तथा) वैसे ही (तम्) उस (सहोवृधम्) बल को बढ़ानेवाले (अग्निम्) सबकी रक्षा करने वाले,  ईश्वर (त्वाम्) आपका (वयम्) हम (विधेम) सेवन करें।  (सः) ईश्वर (सुमनाः) जिसका मनोज्ञान शोभन है, ऐसे (त्वम्) सर्वदा प्रसन्न रहने वाले (अद्य) आज के ही दिन (नः) हमें (इह) इस  संसार में (च) और (वाजेषु) युद्धों में (अविता) रक्षक के रूप में जानी गई सब विद्याओं में प्रवेश करानेवाले (भव) हूजिये ॥२॥   

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (जनासः) विद्यासु प्रादुर्भूता मनुष्याः (अग्निम्) सर्वाभिरक्षकमीश्वरम् (दधिरे) धरन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (सहोवृधम्) सहोबलं वर्धयतीति सहोवृत्तम् (हविष्मन्तः) प्रशस्तानि हवींषि दातुमादातुमर्हाणि वस्तूनि विद्यन्ते येषां ते। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (विधेम) सेवेमहि (ते) तव। अत्र सायणाचार्य्येण ते त्वामित्युक्तं तन्न संभवति द्वितीयैकवचने त्वाऽऽदेशविधानात् (सः) ईश्वरः (त्वम्) सर्वदाप्रसन्नः (नः) अस्माकम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (सुमनाः) शोभनं मनोज्ञानं यस्य सः (इह) अस्मिन् संसारे (अविता) रक्षको ज्ञापकः सर्वासु विद्यासु प्रवेशकः (भवा) अत्र द्वचोतस्तिङ् इति दीर्घः। (वाजेषु) युद्धेषु (संत्य) सन्तौ दाने साधुस्तत्संबुद्धौ। अत्र षणुदानइत्यस्माद्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययस्ततः साध्वर्थे यच्च ॥२॥ 
    विषयः- पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सन्त्येश्वर यथा हविष्मन्तो जनासो यस्य ते तवाश्रयं दधिरे तथा तं सहोवृधमग्निं त्वां वयं विधेम स सुमनास्त्वमद्य नोस्माकमिह वाजेषु चाविता भव ॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरेकस्याद्वितीयपरमेश्वरस्योपासनेनैव संतोषितव्यं नहि विद्वांसः कदाचिद् ब्रह्मस्थानेऽन्यद्वस्तूपास्यत्वेन स्वीकुर्वन्ति। अत एव तेषां युद्धेष्विह कदाचित् पराजयो न दृश्यते। एवं नहि कदाचिदनीश्वरोपासकास्तान् विजेतुं शक्नुवन्ति येषामीश्वरो रक्षकोस्ति कुतस्तेषां पराभवः ॥२॥

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    विषय

    सुमनाः - अविता

    पदार्थ

    १. (अग्निम्) - उस उन्नति के साधक प्रभु को (सहोवृधम्) - जो कि हमारे "सहस् - बल" को बढ़ानेवाले हैं, (जनासः) - अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले लोग (दधिरे) - धारण करते हैं । वस्तुतः प्रभु को प्राप्त करने के अधिकारी वे ही होते हैं जो कि अपनी शक्तियों को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं । आलसी व निर्बल मनुष्यों को प्रभु की प्राप्ति नहीं होती । 
    २. शक्तियों का विस्तार करनेवाले हम (हविष्मन्तः) - हविवाले होकर, अर्थात् त्यागपूर्वक उपभोग का व्रत लेकर (ते विधेम) - आपका पूजन करते हैं । प्रभु का आदेश है 'त्यक्तेन भुञ्जीथाः ' त्यागपूर्वक उपभोग करना । इस आदेश का पालन करने से प्रभु का सच्चा पूजन होता है । 
    ३. हे प्रभो ! (सः त्वम्) - वे आप (अद्य) - आज (इह) - प्रलोभनों से परिपूर्ण इस जगत् में (नः) - हमारे (समनाः) - [शोभनं मनो यस्मात्] मनों को उत्तम बनानेवाले तथा (अविता) - सब बुराइयों से रक्षण व बचाव करनेवाले (भव) - होओ । प्रभुकृपा से ही हम अपने मनों को अशुभ भावों से बचा सकेंगे । इन आसुर प्रवृत्तियों के आक्रमण को जीतना सुगम नहीं है । 
    ४. हे प्रभो ! आप ही (वाजेषु) - युद्धों में आसुरभावों के साथ संग्राम में (सन्त्य) - [सन्तौ दाने साधुः] शक्तियों के देनेवालों में उत्तम हैं । प्रभु - स्मरण से ही वह शक्ति प्राप्त होती है जो हमें इन संग्रामों में विजयी बनाती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - वे प्रभु हमारे सहस् - बल को बढ़ानेवाले हैं । संग्रामों में विजयी होने के लिए हमें उस प्रभु से शक्ति प्राप्त होती है । 
     

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    विषय

    अग्नि, अग्रणी नायक

    भावार्थ

    (जनासः) विद्याओं में विशेष रूप से प्रकट होने वाले विद्वान् जन (सहः-वृधं) कष्टों के सहने और शत्रुओं के पराजय करनेवाले बल को बढ़ाने वाले, (अग्निम्) ज्ञानवान् परमेश्वर और अग्रणी नायक को (दधिरे) धारण करते हैं, अपने में बलवान् को नायक रूप से नियत करते हैं। हे (सन्त्य) ऐश्वर्य प्रदान करने में कुशल ईश्वर! राजन्! हम (हविष्मन्तः) उत्तम देने और स्वीकार करने योग्य अन्न, रत्नादि पदार्थों को प्राप्त कर (ते विधेम) तेरी सेवा करें। (सः त्वं) वह तू (सुमनाः) उत्तम चित्तवाला और उत्तम ज्ञानवान् होकर (अद्य) आज से (इह) इस राष्ट्र में, इस लोक में और (वाजेषु) युद्धों में और ऐश्वयों के निमित्त (अविता भव) हमारा रक्षक हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी एका अद्वितीय परमेश्वराच्या उपासनेनेच संतुष्ट राहिले पाहिजे. कारण विद्वान लोक परमेश्वराऐवजी दुसऱ्या वस्तूची उपासना करीत नाहीत. त्यामुळेच त्यांचा युद्धात व या संसारात कधी पराजय होत नाही. कारण ते धार्मिक असतात. म्हणून नास्तिक लोक त्यांना जिंकू शकत नाहीत. ईश्वर ज्यांचा रक्षक असतो त्यांचा पराजय कसा होऊ शकेल? ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The ancient people of vision and wisdom hold on to Agni, Lord of light and knowledge. We have the will and devotion, and we have the offerings, with these we worship you, lord giver of strength and courage more and ever more. Lord of wealth and generosity, we pray, be good and kind to us here and now, be our saviour and protector in the battles of life.

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    Subject of the mantra

    Then, again in this verse same subject has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (saṃtya)= who has full knowledge to give good conduct, (īśvara)=God, (yathā)=like, (haviṣmantaḥ)= Able to give and take things like ghee, food etc. (janāsaḥ)= scholars who became famous in knowkdge, (yasya)=whose, (te)=your, (āśrayam)=shelter, (dadhire)=take shelter, (tathā)=in the same way, (tam)=to that, (sahovṛdham)= boosting force, (agnim)=God who protects all, (tvām)=you, (vayam)=we, (vidhema)=must attend, (saḥ)=god, (sumanāḥ)= whose inner knowledge is graceful, such, (tvam)= forever happy, (adya)=on to day itself, (naḥ)=to us, (iha)=in this world, (ca)=and, (vājeṣu)=in wars, (avitā)= The one who enters into all the disciplines known as the protector, (bhava)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! Who has perfect knowledge to give to the one having good conduct. Like the learned people who are famous for the knowledge of giving and taking things like ghee, food etc., whose you take shelter, in the same way, God who increases that strength and protects everyone, may we attend Him. May God, whose mind is full of glory, who is always happy, on this very day, be the one to enter into all the disciplines known to us as a protector in this world and in the wars.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Human beings should be satisfied with the worship of a unique God, because the learned people never accept other things in the place of God with the spirit of worship, that is why they never see war or defeat in this world because they are righteous and that's why, those who do not worship God are not able to win them. Because, how can they be defeated by those, whom God is supposed to protect.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is taught further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, the most Liberal Donor, as worshippers offering oblations and possessing and giving good articles, take recourse to Thee, so we also worship Thee who art the augmenter of vigor. So O Omniscient Lord, be our Gracious Helper in all deeds of might, be Thou, O Excellent, our Protector this day and for ever.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अग्निम् ) सर्वाभिरक्षकमीश्वरम् = To God who is the Protector of all. ( हविष्मन्तः ) प्रशस्तानि हवींषि दातुम् आदातुम् अर्हाणि वस्तूनि विद्यन्ते येषां ते । अत्र प्रशंसार्थे मतुप् । = Those who have got admirable or good things to give 1 and to take. ( सुमना:) शोभनं मनो ज्ञानं यस्य सः = Whose knowledge is good and pure-Omniscient in the case of God. ( सन्त्य ) सन्ती दाने साधुस्तत् सम्बुद्धौ । अत्र षणु-दाने इत्यस्माद् बाहुलकात औणादिकः तिः प्रत्ययः ततः साध्वर्ये यच्च || = liberal Donor.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should remain contented with the Communion with or contemplation upon One God only. Wise learned persons never accept anything else as Adorable in the place of God, therefore they can not be defeated. Thus those who are atheists can never overcome them. How can they be defeated who have God as their Protector ?

    Translator's Notes

    For the meaning of Agni as God, the passages like the following have already been quoted. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः । क० १.१६४.६, ब्रह्म वा अग्निः ॥ कौषीतकी ब्रा० ९/१/५ ।। १२।८, शतपथ २.५.४.८ ।। ५.३.५.३२ तैत्तिरीय ३.९.१६.३ ब्रह्माग्निः (शतपथ १.३.३.१९ ) हु-दानादनयोः On this basis is Rishi Dayananda's interpretation of हवींषि as प्रशस्तानि दातुम् आदातुमर्हाणि वस्तूनि ।

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