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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    म॒न्द्रो होता॑ गृ॒हप॑ति॒रग्ने॑ दू॒तो वि॒शाम॑सि । त्वे विश्वा॒ संग॑तानि व्र॒ता ध्रु॒वा यानि॑ दे॒वा अकृ॑ण्वत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्द्रः । होता॑ । गृ॒हऽप॑तिः । अग्ने॑ । दू॒तः । वि॒शाम् । अ॒सि॒ । त्वे इति॑ । विश्वा॑ । सम्ऽग॑तानि । व्र॒ता । ध्रु॒वा । यानि॑ । दे॒वाः । अकृ॑ण्वत ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि । त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्द्रः । होता । गृहपतिः । अग्ने । दूतः । विशाम् । असि । त्वे इति । विश्वा । सम्गतानि । व्रता । ध्रुवा । यानि । देवाः । अकृण्वत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (मन्द्रः) पदार्थप्रापकत्वेन हर्षहेतुः (होता) सुखानां दाता (गृहपतिः) गृहकार्याणां पालयिता (अग्ने) शरीरबलेन देदीप्यमान (दूतः) यो दुनोत्यपतप्य भिनत्ति दुष्टान् शत्रन् सः (विशाम्) प्रजानाम् (असि) (त्वे) त्वयि राज्यपालके सति (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (संगतानि) धर्म्यव्यवहारसंयुक्तानि (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि कर्माणि। व्रतमितिकर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (ध्रुवा) निश्चलानि। अत्र त्रिषु शेश्छन्दसि बहुलम्# इतिशेर्लोपः। (यानि) (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वत) कृण्वन्ति कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लङ् व्यत्ययेनात्मनेपदञ्च ॥५॥ #[अ० ३।१।७०।]

    अन्वयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अग्ने यतस्त्वं मन्द्रो होता गृहपतिर्दूतो विशांपतिरसि तस्मात्सर्वा प्रजा यानि विश्वा ध्रुवा संगतानि व्रता धर्म्याणि कर्माणि देवा अकृण्वत तानि त्वे सततं सेवन्ते ॥५॥

    भावार्थः

    सुराजदूतसभासद एव राज्यं रक्षितुमर्हन्ति न विपरीताः॥५॥ इत्यष्टमो वर्गः ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) शरीर और आत्मा के बल से सुशोभित जिससे आप (मन्द्रः) पदार्थों की प्राप्ति करने से सुख का हेतु (होता) सुखों के देने (गृहपतिः) गृहकार्यों का पालन (दूतः) दुष्ट शत्रुओं को तप्त और छेदन करनेवाले (विशाम्) प्रजाओं के (पतिः) रक्षक (असि) हैं इससे सब प्रजा (यानि) जिन (विश्वा) सब (ध्रुवा) निश्चल (संगतानि) सम्यक् युक्त समयानुकूल प्राप्त हुए (व्रता) धर्मयुक्त कर्मों को (देवाः) धार्मिक विद्वान् लोग (अकृण्वत) करते हैं उनका सेवन (त्वे) आपके रक्षक होने से सदा कर सकती हैं ॥५॥

    भावार्थ

    जो प्रशस्त राजा, दूत और सभासद् होते हैं वे ही राज्य को पालन कर सकते हैं इनसे विपरीत मनुष्य नहीं कर सकते ॥५॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने यतः त्वं मन्द्रः होता गृहपतिः दूतः विशां पतिः असि तस्मात् सर्वा प्रजा यानि विश्वा ध्रुवा संगतानि व्रता धर्म्याणि कर्माणि देवा अकृण्वत तानि त्वे सततं सेवन्ते ॥५॥

    पदार्थ

    हे  (अग्ने) शरीरबलेन देदीप्यमान=शरीर के बल से तीव्रता से चमकनेवाले, (यतः)=जिससे, (त्वम्)=आप, (मन्द्रः) पदार्थप्रापकत्वेन हर्षहेतुः=पदार्थों की प्राप्ति करने से सुख का हेतु, (होता) सुखानां दाता=सुखों के दाता, (गृहपतिः) गृहकार्याणां पालयिता=गृह कार्यों का पालन करनेवाले,   (दूतः) यो दुनोत्यपतप्य भिनत्ति दुष्टान् शत्रन् सः=दुष्ट शत्रुओं को तप्त और छेदन करनेवाले, (विशाम्) प्रजानाम्=प्रजाओं के, (पतिः)=स्वामी, (असि)=हो,  (तस्मात्)=इसलिये, (सर्वा)=समस्त, (प्रजा)=प्रजा, (यानि)=जो, (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि=सब,  (ध्रुवा) निश्चलानि=निश्चल, (संगतानि) धर्म्यव्यवहारसंयुक्तानि=धर्म के व्यवहार में लगे हुए, (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि कर्माणि=सत्य आचरण के कर्मों को, (धर्म्याणि)=धर्म के, (कर्माणि)=कर्मों के, (देवाः) विद्वांसः=विद्वान् लोग, (अकृण्वत) कृण्वन्ति कुर्वन्ति=करते हैं, (तानि)=उनके, (त्वे) त्वयि राज्यपालके सति=आपके राज्य पालक होने पर, (सततम्)=निरन्तर,  (सेवन्ते)=पूजन करते हैं ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो प्रशस्त राजा, दूत और सभासद् होते हैं वे ही राज्य का पालन कर सकते हैं इनसे विपरीत मनुष्य नहीं कर सकते ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (अग्ने) शरीर के बल से तीव्रता से चमकनेवाले! (यतः) जिससे (त्वम्) आप (मन्द्रः) पदार्थों की प्राप्ति करने से सुख के हेतु हैं, (होता) सुखों के दाता, (गृहपतिः)  गृह कार्यों का पालन करने वाले,   (दूतः) दुष्ट शत्रुओं को तप्त और छेदन करनेवाले  (विशाम्) और प्रजाओं के (पतिः) स्वामी (असि) हो। (तस्मात्) इसलिये (सर्वा) समस्त (प्रजा) प्रजा (यानि) जिन (विश्वा) सब  (ध्रुवा) निश्चल (संगतानि) धर्म के व्यवहार में लगे हुए, (व्रता) सत्य आचरण के कर्मों को (धर्म्याणि) धर्म और (कर्माणि) कर्म करने वाले (देवाः) जो विद्वान् लोग (अकृण्वत) करते हैं। (तानि) उन (त्वे) आपके राज्य पालक होने पर (सततम्) निरन्तर  (सेवन्ते) पूजन करते हैं ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मन्द्रः) पदार्थप्रापकत्वेन हर्षहेतुः (होता) सुखानां दाता (गृहपतिः) गृहकार्याणां पालयिता (अग्ने) शरीरबलेन देदीप्यमान (दूतः) यो दुनोत्यपतप्य भिनत्ति दुष्टान् शत्रन् सः (विशाम्) प्रजानाम् (असि) (त्वे) त्वयि राज्यपालके सति (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (संगतानि) धर्म्यव्यवहारसंयुक्तानि (व्रता) व्रतानि सत्याचरणानि कर्माणि। व्रतमितिकर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (ध्रुवा) निश्चलानि। अत्र त्रिषु शेश्छन्दसि बहुलम्# इतिशेर्लोपः। (यानि) (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वत) कृण्वन्ति कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लङ् व्यत्ययेनात्मनेपदञ्च ॥५॥ #[अ० ३।१।७०।]
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे अग्ने यतस्त्वं मन्द्रो होता गृहपतिर्दूतो विशांपतिरसि तस्मात्सर्वा प्रजा यानि विश्वा ध्रुवा संगतानि व्रता धर्म्याणि कर्माणि देवा अकृण्वत तानि त्वे सततं सेवन्ते ॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सुराजदूतसभासद एव राज्यं रक्षितुमर्हन्ति न विपरीताः॥५॥ इत्यष्टमो वर्गः ॥८॥

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    विषय

    मन्द्रो होता

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - सब प्रजाओं की उन्नति के साधक प्रभो ! आप (मन्द्रः) - अपने भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं, (होता) - सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाले हैं । (गृहपतिः) - इस शरीररूप गृह की रोगादि के आक्रमण से रक्षा करनेवाले हैं, तथा (विशाम्) - संसार में प्रविष्ट सब प्रजाओं को (दूतः) - कष्टों की तपस्या में तपाकर उनके जीवनों को उज्ज्वल बनानेवाले हैं । 
    २. यद्यपि सामान्य दृष्टि से देखने पर प्रतीत तो यह होता है कि सूर्य हमें प्रकाश व प्राणशक्ति देता है, पर्जन्य वृष्टि के द्वारा अन्नादि प्राप्त कराता है, वायु जीवन शक्ति दे रही है, परन्तु वस्तुतः गम्भीर विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि (यानि) - जिन (ध्रुवा व्रता) - ध्रुवव्रतों को [अग्नि जलती ही है, सूर्य तपता ही है, बादल बरसता ही है, वायु बहती ही है] (देवाः) - ये वायु आदि देव (अकृण्वत) - पालन कर रहे हैं, वे (विश्वा) - सब व्रत (त्वे) - हे प्रभो ! आपमें ही संगतानि - संगत होते हैं, अर्थात् इन देवों को वह देवत्व आपने ही प्राप्त कराया है । 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' उस प्रभु की दीप्ति से यह सब दीप्त हो रहा है । 'तेन देवा देवतामग्र आयन्' उस प्रभु ने ही इन देवों को देवत्व प्राप्त कराया है । ' भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ' इसी के भय से अग्नि तप रही है और इसी के भय से सूर्य चमक रहा है, एवं इन देवताओं के द्वारा परम्परया वे प्रभु ही हमें पाल रहे हैं, वास्तविक होता - दाता प्रभु ही हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - वे प्रभु ही आनन्दित करनेवाले, सब - कुछ देनेवाले गृहपति हैं । देवों के द्वारा वे ही हमारा पालन कर रहे हैं । 
     

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    विषय

    गृहपति और राजा की तुलना । राजा में सब देवांशों की सत्ता ।

    भावार्थ

    हे राजन्! परमेश्वर! तू (मन्द्रं) सबको सुखी, आनन्द प्रसन्न करने हारा, सबके हर्ष का कारण, (होता) सुखप्रद, (गृहपतिः) गृहों का पालक, (विशाम्) प्रजाओं के बीच (दूतः) शत्रुतापक अग्नि के समान प्रतापी, एवं स्तुतियोग्य है। (त्वे) तेरे ही आश्रय पर, अग्नि के आश्रय पर संस्कार दीक्षा आदि के समान (विश्वा) समस्त (व्रता) राज प्रजा के वे सब धर्म कर्त्तव्य (संगतानि) ध्रुव, स्थिर, आश्रित हैं (यानि) जिनको (देवाः) विद्या, धन आदि देने वाले गुरु आचार्य तथा व्यापारी जन (अकृण्वत) करते हैं। विद्वान् जन जिस प्रकार सब दीक्षा, आदि कर्म और व्रत, संस्कार यज्ञ आदि कर्म अग्नि को साक्षी करके करते हैं उसी प्रकार (देवाः) व्यवहार में सब लेन देन राजा के साक्षी से होते हैं। स्टाम्प, टिकट, सिक्के आदि सब राजा की साक्षिता के चिह्न हैं। अथवा—(यानि व्रता) जिन कर्त्तव्यों को (देवाः) देव, पृथिवी, सूर्य, वायु आदि पालन करते हैं वे सब राजा में संगत हैं।

    टिप्पणी

    जैसा मनुने लिखा है। सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोर्कः सोमः स धर्मराट् । स कुवेरः सः वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः । मनु० ७ । ७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्वोत्तम राजा, दूत व सभासद असतात तेच राज्याचे पालन करू शकतात. त्यांच्या विपरीत असलेली माणसे करू शकत नाहीत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, deep and grave and joyous, giver of peace and prosperity, protector and promoter of home and family, you are the fighter and ambassador of the people. In you abide all those steady laws and discipline which go with the observance of Dharma and good conduct and which the noblest in nature and humanity observe and have observed.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of he (sun) is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=Shining intensely by the strength of the body! (yataḥ)=by which, (tvam)=you, (mandraḥ)= are cause of happiness in obtaining substances, (hotā)=provider of happiness, (gṛhapatiḥ)= having patronage of house hold works, (dūtaḥ)= Heating and piercing evil enemies, (viśām)= of the peoples, [aura]= and, (patiḥ)= owner, (asi)=are, (tasmāt)= Therefore, (sarvā)=all, (prajā)=people, (yāni)=those, (viśvā)=all, (dhruvā)= quiescent, (saṃgatāni)= engaged in the practice of duty, (vratā)= deeds of true conduct, (dharmyāṇi)= engaged in the practice of righteousness, [aura]=and, (karmāṇi)=performing deeds, (devāḥ)= learned people, [jo]=those, (akṛṇvata)=perform, (tāni) (tve)= you being protector of the kingdom, (satatam)= continuously, (sevante)=worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O shining intensely by the strength of the body! By which you are cause of happiness in obtaining substances provider of delight, having patronage of house hold works, heating and piercing evil enemies and are owner of the peoples. Therefore, all the people, quiescent and engaged in the practice of righteousness, the deeds of true conduct and the learned people; continuously worship You, like being the protector of the kingdom.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Only those who are exalted kings, messengers and councilors can protect the state, unlike them humans cannot do it.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he ( messenger) is taught further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President shining with your physical power like the fire, because you are giver of delight, the giver of pleasures and discharger of your domestic duties, subduer of enemies, therefore whatever inviolable noble deeds ordinary people do and enlightened persons perform, all are aggregated and harmonized in you who protect the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only the members of the Assemblies along with good ambassadors and messengers who can preserve the State and none else.

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