ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
हं॒साइ॑व कृणुथ॒ श्लोक॒मद्रि॑भि॒र्मद॑न्तो गी॒र्भिर॑ध्व॒रे सु॒ते सचा॑। दे॒वेभि॑र्विप्रा ऋषयो नृचक्षसो॒ वि पि॑बध्वं कुशिकाः सो॒म्यं मधु॑॥
स्वर सहित पद पाठहं॒साःऽइ॑व । कृ॒णु॒थ॒ । श्लोक॑म् । अद्रि॑ऽभिः । मद॑न्तः । गीः॒ऽभिः । अ॒ध्व॒रे । सु॒ते । सचा॑ । दे॒वेभिः॑ । वि॒प्राः॒ । ऋ॒ष॒यः॒ । नृ॒ऽच॒क्ष॒सः॒ । वि । पि॒ब॒ध्व॒म् । कु॒शि॒काः॒ । सो॒म्यम् । मधु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हंसाइव कृणुथ श्लोकमद्रिभिर्मदन्तो गीर्भिरध्वरे सुते सचा। देवेभिर्विप्रा ऋषयो नृचक्षसो वि पिबध्वं कुशिकाः सोम्यं मधु॥
स्वर रहित पद पाठहंसाःऽइव। कृणुथ। श्लोकम्। अद्रिऽभिः। मदन्तः। गीःऽभिः। अध्वरे। सुते। सचा। देवेभिः। विप्राः। ऋषयः। नृऽचक्षसः। वि। पिबध्वम्। कुशिकाः। सोम्यम्। मधु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे कुशिका नृचक्षस ऋषयो विप्रा ! यूयं सुतेऽध्वरेऽद्रिभिर्मदन्तः सन्तो देवेभिः सह श्लोकं हंसाइव कृणुथ सत्यस्य सचा वर्त्तध्वं सोम्यं मधु विपिबध्वम् ॥१०॥
पदार्थः
(हंसाइव) (कृणुथ) (श्लोकम्) सुलक्षणां वाचम्। श्लोक इति वाङ्नाम निघं० । १। ११। (अद्रिभिः) मेघैः (मदन्तः) प्राप्तानन्दाः (गीर्भिः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः (अध्वरेः) अहिंसनीयेऽध्ययनाऽध्यापनीये व्यवहारे (सुते) निष्पन्ने (सचा) समूहे (देवेभिः) विद्वद्भिः (विप्राः) मेधाविनः (ऋषयः) मन्त्रार्थवेत्तारः (नृचक्षसः) मनुष्याणां विद्यादृष्ट्या परीक्षकाः (वि) (पिबध्वम्) (कुशिकाः) विद्यासिद्धान्तनिष्कर्षकाः (सोम्यम्) सोम ऐश्वर्ये साधु (मधु) मधुरादिगुणं द्रव्यम् ॥१०॥
भावार्थः
परमविद्वांसो विदुषः प्रति जितेन्द्रियतां धर्मात्मतां सुशीलतां सभ्यतां च ग्राहयेयुर्यतस्तेऽप्याप्ता भूत्वा जगत्कल्याणं कुर्युः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (कुशिकाः) विद्याओं के सिद्धान्तों के जानने (नृचक्षसः) मनुष्यों की विद्यादृष्टि से परीक्षा करने और (ऋषयः) मन्त्रों के अर्थों को जाननेवाले (विप्राः) बुद्धिमान् ! आप लोग (सुते) उत्पन्न (अध्वरे) नहीं हिंसा करने योग्य पढ़ने और पढ़ाने रूप व्यवहार में (अद्रिभिः) मेघों से (मदन्तः) आनन्द को प्राप्त होते हुए (देवेभिः) विद्वानों के साथ (श्लोकम्) उत्तम स्वरूप वाणी को (कृणुथ) करो और सत्य के (सचा) समूह में वर्त्तमान (सोम्यम्) ऐश्वर्य्य में श्रेष्ठ (मधु) मधुर आदि गुण युक्त द्रव्य का (वि, पिबध्वम्) पान कीजिये ॥१०॥
भावार्थ
अत्यन्त विद्वान् जन विद्वानों के प्रति जितेन्द्रियता धर्मात्मता सुशीलता और सभ्यता को ग्रहण करावें कि जिससे वे भी श्रेष्ठ होकर संसार के कल्याण को करें ॥१०॥
विषय
विप्र-ऋषि-नृचक्षाः
पदार्थ
[१] (हंसाः इव) = जैसे हंस (अद्रिभि) = मेघों सहित (मदन्तः) = प्रसन्न होते हुए (श्लोकं कृणुथ) = शब्द करते हैं। (सोम्यं मधु पिबन्ति) = मीठा सोम पीते हैं वैसे ही (विप्रः) = हे विद्वानों (ऋषयः) तत्त्व ज्ञानियों नृचक्षसः=निरीक्षकों कुशिका:- ज्ञानियों आप हंस के समान गीर्भिः - वेदवाणियों अध्वरे से सुते हिंसा रहित यज्ञ में सोम ब्रह्मज्ञानरूपी मधु का देवेभिः सचा- विद्वानों सहित पिबध्वम्-पान करो ।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् पुरुषों को हंस के समान सोम ब्रह्म चिन्तन करना चाहिए।
विषय
परमहंस विद्वानों का कर्त्तव्य । हंस का रहस्य।
भावार्थ
जिस प्रकार (हंसाः इव) हँस व पक्षिगण (अद्रिभिः) पर्वतों, मेघों सहित (मदन्तः) अति हर्षित होते हुए (श्लोकं कृण्वन्ति) उत्तम शब्द करते हैं और (सोम्यं मधु पिबन्ति) उत्तम मधुर जल को पान करते हैं उसी प्रकार हे (हंसाः) परमहंसो ! ज्ञानी पुरुषो! हे (विप्राः) मेधावी विद्वान् पुरुषो ! हे (ऋषयः) अतीन्द्रिय तत्वों के भी दर्शन करने वाले (नृचक्षसः) और सब पुरुषों पर चक्षु रखने वाले सबके निरीक्षक, (कुशिकाः) सिद्धान्त निष्कर्ष निकालने वाले विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (हंसाः) अहंभाव का नाश करने हारे होकर (अद्रिभिः) अपने अविनाशी आत्माओं सहित या मेघ तुल्य सुखवर्षक आत्माओं सहित और (गीर्भिः) वाणियों से (मदन्तः) खूब प्रसन्न होते हुए (अध्वरे सुते) परस्पर के घात प्रतिघात या हिंसादि से रहित यज्ञ के निप्पन्न होने पर उसमें (सोम्यं मधु) सोम ओषधि के रस से युक्त मधुर दुग्धादि के समान (सोम्यं मधु) सोम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के परम ब्रह्मज्ञान रूप मधुर मधु का (देवेभिः सचा) देव, विद्वान् दानशीलों सहित (पिबध्वम्) पान करो। (२) राष्ट्रपक्ष में—(हंसाः) शत्रुओं को हनन करने वाले वीर पुरुष। विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
अत्यंत विद्वानांनी इतर विद्वानांना जितेन्द्रियता, धार्मिकता, सुशीलता, सभ्यता शिकवावी. ज्यामुळे त्यांनीही श्रेष्ठ बनून जगाचे कल्याण करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like hansa birds singing and rejoicing by the beauty and majesty of cloud showers, O Kushikas, vibrant sages and scholars, seers of nature and divinity, divining into the mysteries of omniscience, watching the ways of vast humanity, joining together with the divinities of nature and brilliancies of humanity, in the non-violent yajnas of love and faith enacted and conducted, sing songs of Divinity in celebrative words of holy joy and drink the nectar sweets of soma replete with the power of peace and divine ecstasy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the enlightened persons are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you draw the essence of the fundamental principles of all sciences. you seers by nature examine many knowers of the meaning of all mantras, geniuses, rejoicing in the non-violent Yajnas (in the form of the study and teaching the enlightened men). You utter noble and sweet words like the swans. You behave truthfully and drink the sweet juice and enjoy prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of great scholars to urge all learned persons to inculcate self-control, righteousness, good conduct and civilized behavior, so that there may be born among them absolutely truthful and most reliable persons. They would bring about the welfare of the world.
Foot Notes
(कुशिका:) विद्यासिद्धान्तनिष्कर्षकाः = Drawers of the essence of the fundamental principles of all sciences, (सोम्यम् ) सोम ऐश्वर्ये साधु = Good in the cause of prosperity.
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