ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 24
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मे इ॑न्द्र भर॒तस्य॑ पु॒त्रा अ॑पपि॒त्वं चि॑कितु॒र्न प्र॑पि॒त्वम्। हि॒न्वन्त्यश्व॒मर॑णं॒ न नित्यं॒ ज्या॑वाजं॒ परि॑ णयन्त्या॒जौ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । इ॒न्द्र॒ । भ॒र॒तस्य॑ । पु॒त्राः । अ॒प॒ऽपि॒त्वम् । चि॒कि॒तुः॒ । न । प्र॒ऽपि॒त्वम् । हि॒न्वन्ति॑ । अश्व॑म् । अर॑णम् । न । नित्य॑म् । ज्या॒ऽवाज॑म् । परि॑ । न॒य॒न्ति॒ । आ॒जौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्वं चिकितुर्न प्रपित्वम्। हिन्वन्त्यश्वमरणं न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ॥
स्वर रहित पद पाठइमे। इन्द्र। भरतस्य। पुत्राः। अपऽपित्वम्। चिकितुः। न। प्रऽपित्वम्। हिन्वन्ति। अश्वम्। अरणम्। न। नित्यम्। ज्याऽवाजम्। परि। नयन्ति। आजौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 24
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! तव सेनाया भरतस्य चिकितुर्न य इमे पुत्रा इवाऽपपित्वं प्रपित्वमश्वमरणं न हिन्वन्त्याजौ ज्यावाजं नित्यं परिणयन्ति ताँश्च त्वं स्वात्मवद्रक्ष ॥२४॥
पदार्थः
(इमे) (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययोजक (भरतस्य) सेनाया धर्त्तू रक्षकस्य (पुत्राः) सुशिक्षितास्तनया इव भृत्याः (अपपित्वम्) अपचयम् (चिकितुः) विज्ञातुः (न) इव (प्रपित्वम्) प्रकृष्टं प्रापणम् (हिन्वन्ति) वर्धयन्ति (अश्वम्) तुरङ्गम् (अरणम्) प्रेरितम् (न) इव (नित्यम्) (ज्यावाजम्) ज्यायाः शब्दम् (परि) सर्वतः (नयन्ति) (आजौ) सङ्ग्रामे ॥२४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये राजादयः स्वह्रासवृद्धी जानन्ति सेनास्थान् साध्यक्षान् भृत्यान् युद्धकर्मणि कुशलाननुरक्तान् पुत्रवत्पालयन्ति तेषां सदैव वृद्धिर्भवति पराजयः कुतो भवेदिति ॥२४॥ अत्र विद्युन्मेघविद्वद्राजप्रजासेनाकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गस्तृतीये मण्डले चतुर्थोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त करनेवाले ! आपकी सेना के (भरतस्य) रक्षा करने और (चिकितुः) जाननेवाले के (न) तुल्य (इमे) ये मेरे (पुत्राः) उत्तम प्रकार शिक्षा को प्राप्त सन्तानों के सदृश सेवक लोग (अपपित्वम्) नाश और (प्रपित्वम्) उत्तम प्रकार प्राप्त कराने को (अश्वम्) घोड़े को (अरणम्) प्रेरणा किये हुए के (न) तुल्य (हिन्वन्ति) बढ़ाते हैं और (आजौ) संग्राम में (ज्यावाजम्) धनुष् की ताँत के शब्द को (नित्यम्) नित्य (परि) सब प्रकार (नयन्ति) प्राप्त करते हैं, उसकी और उनकी आप अपने आत्मा के सदृश रक्षा करो ॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा आदि अपने नाश और वृद्धि को जानते हैं, सेना में वर्त्तमान साध्यक्ष सेवकों को युद्ध कर्म में चतुर और अनुरक्तों का पुत्र के सदृश पालन करते हैं, उनकी सदा ही वृद्धि होती है, पराजय कहाँ से होवे ॥२४॥। इस सूक्त में बिजुली, मेघ, विद्वान्, राजा, प्रजा और सेना के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह तिरपनवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग तीसरे मण्डल में चौथा अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
अपपित्व, न कि प्रपित्व
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (इमे) = ये (भरतस्य पुत्राः) = अपना उत्तम भरण करनेवाले [भरत=भरण करनेवाला । उसका पुत्र, अर्थात् अत्यन्त भरण करनेवाला] पुरुष (अपपित्वम्) = [separation] विषयों से पृथक्ता को (चिकितुः) = जानते हैं, (प्रपित्वं न) = मेल को नहीं। ये सदा इस बात का ध्यान करते हैं कि कहीं विषयों में फँस न जाएँ। विषयों से दूर रहना ही इन्हें अभीष्ट होता है। [२] ये लोग (अश्वम्) = इन्द्रियाश्व को (नित्यम्) = सदा (अरणं न) = शत्रु की तरह (हिन्वन्ति) = प्रेरित करते हैं। इन्हें यह भूलता नहीं कि सामान्यतः 'पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः ' प्रभु ने इन्द्रियों को बाह्य विषयों के चरने के स्वभाववाला बनाया है। इन्हें काबू रखा जाए तो ये मित्र हैं, वेकाबू हुई- हुई ये भयंकर शत्रु हैं। ये लोग (आजौ) = इन वासनाओं के साथ संग्राम में (ज्यावाजम्) = ज्या [डोरी] के बलवाले धनुष को (परिणयन्ति) = सर्वतः प्राप्त करते हैं। 'प्रणव' ही इनका धनुष होता है। इस द्वारा ये शत्रुओं का संहार करनेवाले होते हैं। प्रभुस्मरण से इन्द्रियों को ये वशीभूत करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – विषयों से व्यावृत्त होते हुए हम अपना उत्तम भरण करें। इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करें। सूक्त का मुख्य विषय इन्द्रियों का वशीकरण ही है। इस द्वारा ही हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं। प्रभु का स्मरण व स्तवन करनेवाला 'वाच्य' अगले सूक्त का ऋषि है। यह स्तवन करता हुआ कहता है-
विषय
राज पुरुषों, सैनिकों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (इमे) ये (भरतस्य) अपने भरण पोषण करने वाले स्वामी के (पुत्राः) पुत्र के समान भृत्य, सैनिक लोग (चिकितुः न) ज्ञानवान् पुरुष के समान (अपपित्वम्) दूर हो जाना, भागना या पीछे हटना और (प्रपित्वम्) आगे बढ़ना, अपयान और प्रयाण (हिन्वन्ति) करते हैं। और वे (अरणं) प्रेरित (अश्वं न) अश्व के समान (नित्यं) नित्य (आजौ) संग्राम-काल में (ज्यावाजं) धनुष की डोरी का घोष (परि नयन्ति) आगे पहुंचाते हैं। अथवा वे प्रयाण और अपयान, आगे बढ़ना और पीछे हटना दोनों कार्य (चिकितुः) ज्ञानें। (अश्वं हिन्वन्ति) अश्व-सैन्य को आगे बढ़ावें और (ज्यावाजं) शत्रुओं को मारने वाली धनुष की डोरी वा सेना के द्वारा किये जाने वाले बल-कार्य, संग्राम को आगे बढ़ावें। इति त्रयोविंशो वर्गः॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी आपला नाश व वृद्धी जाणतात, (युद्ध कर्मातील चतुर) सेनेतील सेवकांचे पुत्राप्रमाणे पालन करतात त्यांची सदैव वृद्धी होते. (त्यांचा) पराजय कसा होणार? ॥ २४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, these boys, followers of the veteran commander, know retreat as well as advance, spur on the horse like a spirit inspired and send out the twang of the bow string in battles and contests always without exception.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of duties of rulers is highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (tool of great prosperity)! these attendants of mine who are like the trained sons of the learned commander and are upholder of your army know the ups and downs of the life. When they are in the battle-field, when they are hear the sound of a bow string of the foe, they urge their steads to proceed in that direction. You should protect and safeguard them like yourselves.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The kings and officers who know the nature and cause of advancement and deterioration, who feed (nourish) the officers of the army and their attendants, who are well-versed in the art of fighting and are faithful as their own children, they always prosper. How can they be defeated in the battle-field?
Foot Notes
(भरतस्य ) सेनाया धर्त् रक्षकस्य । = Of the commander of the army who is its protector and upholder. (हिन्वन्ति) वर्धयन्ति। = Increase, multiply. (आजौ) सङ्ग्रामे। = In the battle.
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