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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॒ प्रेत॑ कुशिकाश्चे॒तय॑ध्व॒मश्वं॑ रा॒ये प्र मु॑ञ्चता सु॒दासः॑। राजा॑ वृ॒त्रं ज॑ङ्घन॒त्प्रागपा॒गुद॒गथा॑ यजाते॒ वर॒ आ पृ॑थि॒व्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । प्र । इ॒त॒ । कु॒शि॒काः॒ । चे॒तय॑ध्वम् । अश्व॑म् । रा॒ये । प्र । मु॒ञ्च॒त॒ । सु॒ऽदासः॑ । राजा॑ । वृ॒त्रम् । ज॒ङ्घ॒न॒त् । प्राक् । अपा॑क् । उद॑क् । अथ॑ । य॒जा॒ते॒ । वरे॑ । आ । पृ॒थि॒व्याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्रेत कुशिकाश्चेतयध्वमश्वं राये प्र मुञ्चता सुदासः। राजा वृत्रं जङ्घनत्प्रागपागुदगथा यजाते वर आ पृथिव्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। प्र। इत। कुशिकाः। चेतयध्वम्। अश्वम्। राये। प्र। मुञ्चत। सुऽदासः। राजा। वृत्रम्। जङ्घनत्। प्राक्। अपाक्। उदक्। अथ। यजाते। वरे। आ। पृथिव्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे कुशिकाः यः सुदासो राजा प्रागपागुदग्वृत्रं जङ्घनदथ पृथिव्या वरे आ यजाते तस्य राये प्रमुञ्चताश्च चेतयध्वमुप प्रेत ॥११॥

    पदार्थः

    (उप) (प्र) (इत) प्राप्नुत (कुशिकाः) ये कुर्वन्त्युपदिशन्ति ते कुशाः प्रशस्ताः कुशा विद्यन्ते येषु ते कुशिकाः (चेतयध्वम्) ज्ञापयध्वम् (अश्वम्) तुरङ्गमिवाऽऽशुगामिनीं विद्युतम् (राये) श्रिये (प्र) (मुञ्चत) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुदासः) शोभनदानः (राजा) प्रकाशमानः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (जङ्घनत्) भृशं हन्यात् (प्राक्) पूर्वम् (अपाक्) पश्चिमतः (उदक्) उत्तरतः (अथ)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यजाते) यजेत (वरे) उत्तमे देशे (आ) (पृथिव्याः) ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ये वीराः शत्रून् हन्युस्तेभ्यः पुष्कलं धनं प्रतिष्ठां च दद्युः। येन सर्वासु दिक्षु विजयः प्रकाशेत ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (कुशिकाः) जो करते और उपदेश देते वे कुश वे श्रेष्ठ विद्यमान हैं जिनमें वे कुशिक और जो (सुदासः) उत्तम दान देनेवाला (राजा) प्रकाशमान (प्राक्) प्रथम (अपाक्) पश्चिम और (उदक्) उत्तर से (वृत्रम्) मेघ के सदृश शत्रु का (जङ्घनत्) अत्यन्त नाश करैं (अथ) इसके अनन्तर (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरे) उत्तम स्थान में (आ, यजाते) यज्ञ करे उसका (राये) लक्ष्मी के लिये (प्र) (मुञ्चत) त्याग करो और उस (अश्वम्) घोड़े के सदृश शीघ्र चलनेवाली बिजुली को (चेतयध्वम्) जनाओ और (उप, प्र, इत) प्राप्त होओ ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानों ! जो वीर लोग शत्रुओं का नाश करें, उनके लिये बहुत धन और प्रतिष्ठा को देवें, जिससे सम्पूर्ण दिशाओं में विजय प्रकाशित होवे ॥११॥

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    विषय

    अश्व मोचन

    पदार्थ

    [१] हे (कुशिकाः) = प्रभु के स्तुति-शब्दों का उच्चारण करनेवाले पुरुषो ! (उप प्रेत) = प्रभु के समीप प्राप्त होओ। (चेतयध्वम्) = चेतनावाले बनो, 'हम कौन हैं, क्यों आये हैं ?' इन प्रश्नों को उत्पन्न करते हुए सदा सचेत बने रहो। हे (सुदास:) = उत्तम दान देनेवाले पुरुषो! (राये) = वास्तविक ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (अश्वम्) = अपने इन्द्रियाश्व को (प्रमुञ्चत) = विषयों से मुक्त करो। विषय-विमुक्ति ही ज्ञानैश्वर्य की प्राप्ति का साधन बनती है। [२] (राजा) = अपने जीवन को व्यवस्थित करनेवाला पुरुष (प्राग् अपाक् उदग्) = अग्रगति करता हुआ [प्र अञ्च्] इन्द्रियों को विषय-व्यावृत्त करता हुआ [अप अञ्च्] और उन्नत होता हुआ [उद् अञ्च्] (वृत्रं जङ्घनत्) = वासना को अत्यन्त ही विनष्ट करता है। (अथा) = और (पृथिव्याः) - इस पृथिवी के (वरे) = श्रेष्ठ स्थान में (आयजाते) = सर्वथा यज्ञशील होता है। घर में अग्निहोत्र का कमरा ही सर्वश्रेष्ठ कमरा है 'अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तुरस्मिन्' । यह वासना को विनष्ट करनेवाला पुरुष उस उत्कृष्ट स्थान में यज्ञशील होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तवन करते हुए प्रभु के समीप हों। दानवृत्तिवाले बनकर इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करें। वासना को विनष्ट करके यज्ञशील हों।

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    विषय

    वीरों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (कुशिकाः) परराष्ट्र को पीड़ित करने हारे उत्तम कुशल पुरुषो ! आप लोग (उप प्र इत) समीप २ रहकर आगे बढ़ते जाओ। (चेतयध्वम्) स्वयं खूब सावधान होकर रहो और (राये) ऐश्वर्य की वृद्धि करने के लिये (अश्वं) शीघ्र चलने हारे अश्व को (प्र मुञ्चत) आगे २ छोड़ो। और (सुदासः) उत्तम शत्रुनाशक और उत्तम दानशील (राजा) राजा (प्राग्, अपाग्, उदग्) पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में स्थित (वृत्रं) बढ़ते शत्रु को, मेघ को सूर्यवत् (जंघनत्) दण्ड दे। (अथ) अनन्तर (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरे) सर्वश्रेष्ठ भाग में (आ जाते) सब ओर से सबको एकत्र कर यज्ञ करे। सर्वश्रेष्ठ पद पर स्थित होकर सबसे मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करे। अश्व-मेध द्वारा विजय करके बलवान् राजा सबका मित्र होकर रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जे वीर लोक शत्रूंचा नाश करतात त्यांना पुष्कळ धन देऊन मान द्यावा. ज्यामुळे त्यांना सर्वत्र विजय प्राप्त व्हावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O brilliant scholars and sages, teachers and preachers, heroes of action, dedicated to Divinity, yajnic charity and fraternal expansion, go forward together, awake and awaken the community, release vibrant energy and motive powers for the attainment of wealth, honour and excellence. Let the refulgent ruler break the clouds of rain, dispel the darkness all round, east, west, north, south, up and down below, and then perform the yajna of unison on the wide earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of enlightened are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O good preachers of truth! in fact, liberal king destroys clouds like enemies, maintains others a happiness from all directions-the cast, west, north and south. Having conquered his enemies, he performs Yajna (non-violent sacrifice) at some good place on earth, sacrifices your comforts in order to make him attain prosperity, and trains your people with the use of electricity like horse for the speedy locomotion and advancement.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned men! it is your duty to give honor and sufficient wealth to those brave warriors who destroy enemies, so that you may achieve victory on all fronts.

    Foot Notes

    (कुशिका:) ये कुर्कन्त्युपदिशन्ति ते कुशाः प्रशस्ताः। कुशा विद्यन्ते येषु ते कुशिकाः =Those who have among them good preachers of truth. (अश्वम्) तुरङ्गमिवाऽऽशुगामिनीं विद्यतम् = Electricity which is like a speedy horse. (वृत्रम् ) मेघमिव शत्रुम्। = An enemy who is like a cloud, coverer of happiness.

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