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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - वाक् छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒स॒र्प॒रीरम॑तिं॒ बाध॑माना बृ॒हन्मि॑माय ज॒मद॑ग्निदत्ता। आ सूर्य॑स्य दुहि॒ता त॑तान॒ श्रवो॑ दे॒वेष्व॒मृत॑मजु॒र्यम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒स॒र्प॒रीः । अम॑तिम् । बाध॑माना । बृ॒हत् । मि॒मा॒य॒ । ज॒मद॑ग्निऽदत्ता । आ । सूर्य॑स्य । दु॒हि॒ता । त॒ता॒न॒ । श्रवः॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒मृत॑म् । अ॒जु॒र्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय जमदग्निदत्ता। आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ससर्परीः। अमतिम्। बाधमाना। बृहत्। मिमाय। जमदग्निऽदत्ता। आ। सूर्यस्य। दुहिता। ततान। श्रवः। देवेषु। अमृतम्। अजुर्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या या जमदग्निदत्ता ससर्परीर्वागजुर्य्यं सूर्य्यस्य दुहिता तमो बाधमानोषा इव बृहदमतिं मिमाय देवेष्वजुर्य्यममृतं श्रव आ ततान तां वाचं सर्वथोन्नयत ॥१५॥

    पदार्थः

    (ससर्परीः) भृशं सर्पणशीला (अमतिम्) रूपम् (बाधमाना) निवारयन्ती (बृहत्) (मिमाय) मिमीते (जमदग्निदत्ता) चक्षुषा प्रत्यक्षेण दत्ता। चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिः। शतपथब्राह्मणे। (आ) (सूर्य्यस्य) (दुहिता) दुहितेव वर्त्तमानोषा (ततान) तनुते विस्तृणोति (श्रवः) श्रवणम् (देवेषु) विद्वत्सु (अमृतम्) अमृतात्मकम् (अजुर्य्यम्) हानिरहितम् ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि ब्रह्मचर्य्यधर्मानुष्ठानपुरुषार्थैराप्तानां सकाशाद्विद्यासुशिक्षे मनुष्या गृह्णीयुस्तर्हि तेषां किमपि सुखमप्राप्तं न स्यात् ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (जमदग्निदत्ता) नेत्र से प्रत्यक्ष दी गई (ससर्परीः) अत्यन्त चलनेवाली वाणी (अजुर्य्यम्) हानि से रहित (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (दुहिता) कन्या के सदृश वर्त्तमान अन्धकार को नाश करते हुए प्रातःकाल के सदृश (बृहत्) बड़े (अमतिम्) रूप को (मिमाय) नापती है और (देवेषु) विद्वानों में हानिरहित (अमृतम्) अमृत स्वरूप (श्रवः) सुनने का (आ, ततान) विस्तार करती है, उस वाणी की सब प्रकार वृद्धि करो ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो ब्रह्मचर्य धर्म का अनुष्ठान और पुरुषार्थों से श्रेष्ठ पुरुषों के समीप से विद्या और उत्तम शिक्षा को मनुष्य ग्रहण करें तो उनको कुछ भी सुख अप्राप्त न होवे ॥१५॥

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    विषय

    अमति का बाधन

    पदार्थ

    [१] (जमदग्निदत्ता) = [जम to eat] जिसकी अग्नि ठीक खाती है, अर्थात् जो पूर्ण स्वस्थ है, ऐसे. आचार्य से दी गई (ससर्परी:) = आचार्य से विद्यार्थी की ओर सर्पणशील यह ज्ञान की वाणी (अमतिं बाधमाना) = अज्ञान को विनष्ट करती हुई (बृहत्) = अत्यन्त ही (मिमाय) = ज्ञान के शब्दों का उच्चारण करती है, अर्थात् स्वस्थ जीवनवाला आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त कराता है, यह ज्ञान विद्यार्थी में अमति को अविचार को बाधित करता है और उसे सुमतिवाला बनाता है। [२] (सूर्यस्य दुहिता) = ज्ञान का पूरण करनेवाली [दुह प्रपूरणे] श्रद्धा [सूर्यस्य दुहिता - श्रद्धा] (देवेषु) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों में उस (श्रवः) = ज्ञान को (आततान) = विस्तृत करती है, जो कि (अमृतम्) = अमृत है और (अजुर्यम्) = कभी जीर्ण नहीं होता 'पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति'। श्रद्धा सत्य ज्ञान के धारण का कारण बनती ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – स्वस्थ आचार्य ज्ञान देकर हमारी अमति को दूर करते हैं। श्रद्धा उस ज्ञान का हमारे में पूरण करती है, जो कि अजरामर है ।

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    विषय

    उषावत् वाणी और भूमि का रूप।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (सूर्यस्य दुहिता) सूर्य से उत्पन्न कन्यावत् उषा (ससर्परीः) सर्वत्र व्यापने वाली (जमदग्निदत्ता) प्रज्वलित अग्नि वाली किरणों से प्रदान की हुई (बाधमाना) अन्धकार को दूर करती हुई (बृहत् अमतिम् मिमाय) बड़े भारी उत्तम रूप को प्रकट करती है। उसी प्रकार (जमदग्निदत्ता) जमदग्नि अर्थात् चक्षु द्वारा प्राप्त ज्ञान को अपने भीतर धारने वाली, (ससर्परीः) सर्वत्र दूर तक व्यापने वाली, (अमतिं) अज्ञान का नाश करने वाली वाणी (बृहत्) बड़े भारी ज्ञान को (मिमाय) शब्द द्वारा उत्पन्न करती है। वह (सूर्यस्य दुहिता) सूर्य के समान प्रकाशक तेजस्वी पुरुष की सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली वाणी (देवेषु) ज्ञान की कामना करने वाले पुरुषों में (अमृतम्) अमृत, अविनश्वर (अजुर्यम्) कभी हानि को प्राप्त न होने वाले (श्रवः) श्रवण करने योग्य ज्ञान को (आततान) विस्तृत करती है। (२) इसी प्रकार सूर्यवत् तेजस्वी राजा की सब कामना को पूर्ण करने वाली भूमि वा भूमिवासिनी प्रजा (देवेषु) ऐश्वर्य के इच्छुक वीर विजिगीषुओं में अक्षय (अमृतं श्रवः) अन्न और जल प्रदान करती है। वह (जम-दग्निदत्ता) प्रज्वलित तेजस्वी अग्निनायक या आग्नेयास्त्रादि के प्रज्वलित करने वाले वीरों से दी गई भूमि (अमतिं बाधमाना) दारिद्र्य को नाश करती हुई (बृहत्) बड़े भारी ऐश्वर्य को प्रदान करती है। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्याचे अनुष्ठान करून पुरुषार्थाने श्रेष्ठ पुरुषांकडून विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करतात तेव्हा त्यांना नेहमी सुख मिळते. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Living knowledge and language flowing from Eternity given through direct experience of the eye, physical, mental and spiritual, preventing ignorance and superstition, is daughter of the sun, gift of the omniscient lord, which, like the dawn, revealing the vast reality of existence, brings in and extends an immortal and imperishable stream of awareness and experience among the brilliant devotees of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of enlightened persons are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! use always that noble speech given by the thoughtful (expressing ideas after seeing with the eyes). It is full of knowledge and illuminates a splendid great form like the USHA (Dawn), daughter of the Sun, dispels all darkness and extends undecaying and harmless nectar, like the fame among the enlightened persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men receive wisdom and good education, sitting at the feet of the absolutely truthful reliable and enlightened persons, observing Brahamcharya (continence) Dharma (righteousness) and industriousness, there is no such happiness which they can not attain.

    Foot Notes

    (अमतिम् ) रूपम् । अमतिरिति रूपनाम (NG 3,7) = Form. (जमदग्निदत्ता) = वक्षुषा प्रत्यक्षेण दत्ता । चक्षुवै जमदग्निऋषिः । यदनेन जगत् पश्यति अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निऋषिः (Stph Brahman 8.1.1.3) (अजुर्य्यम् ) हानिरहितम् । = Harmless.

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