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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 20
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - रथाङ्गानि छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒यम॒स्मान्वन॒स्पति॒र्मा च॒ हा मा च॑ रीरिषत्। स्व॒स्त्या गृ॒हेभ्य॒ आव॒सा आ वि॒मोच॑नात्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒स्मान् । वन॒स्पतिः॑ । मा । च॒ । हाः । मा । च॒ । रि॒रि॒ष॒त् । स्व॒स्ति । आ । गृ॒हेभ्यः॑ । आ । अ॒व॒सै । आ । वि॒ऽमोच॑नात् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमस्मान्वनस्पतिर्मा च हा मा च रीरिषत्। स्वस्त्या गृहेभ्य आवसा आ विमोचनात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। अस्मान्। वनस्पतिः। मा। च। हाः। मा। च। रिरिषत्। स्वस्ति। आ। गृहेभ्यः। आ। अवसै। आ। विऽमोचनात्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजपुरुषविषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथाऽयं वनस्पतिरस्मान्न त्यजति तथाऽस्मान्मा हा यथा सूर्य्यश्चाऽस्मान्न हिनस्ति तथैव भवान् मा च रीरिषत्। आवसै आ गृहेभ्यः स्वस्त्या विमोचनात् सुखमागच्छतु ॥२०॥

    पदार्थः

    (अयम्) (अस्मान्) (वनस्पतिः) वनस्य पालकः (मा) (च) (हाः) त्यजेः (मा) (च) (रीरिषत्) हिंस्यात् (स्वस्ति) सुखम् (आ) (गृहेभ्यः) (आ) (अवसै) निश्चयाय। अत्र षो धातोः क्विप् वाच्छन्दसीत्याकारलोपाभावः। (आ) (विमोचनात्) विमोचनमारभ्य ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्नादीनि वस्तूनि सर्वेषां रक्षकाणि स्युस्तथा राजपुरुषाश्च सर्वेषां पालकाः सन्तु न्यायं विहायाऽन्यायं कदाचिन्मा कुर्युः ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के पुरुष के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (अयम्) यह (वनस्पतिः) वन का पालन करनेवाला (अस्मान्) हम लोगों का त्याग नहीं करता है वैसे हम लोगों का (मा) मत (हाः) त्याग करिये (च) और जैसे सूर्य्य हम लोगों की हिंसा नहीं करता है वैसे ही आप (मा, च) नहीं (रीरिषत्) नाश कीजिये। और (आ, अवसै) अच्छे निश्चय के लिये (आ, गृहेभ्यः) सब प्रकार गृहों से (स्वस्ति) सुख हो (आ, विमोचनात्) त्याग तक सुख प्राप्त होवे ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्न आदि वस्तु सबके रक्षक होवें, वैसे राजा के पुरुष सबके पालनकर्त्ता हों और न्याय का त्याग करके अन्याय कभी न करें ॥२०॥

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    विषय

    'वानस्पतिक भोजनों से बना हुआ' शरीर-रथ

    पदार्थ

    [१] जैसे बाह्यरथ वनस्पति लकड़ी का बना होता है, उसी प्रकार यह शरीर रथ भी वानस्पतिक भोजनों का ही बना हो । (अयम्) = यह (वनस्पतिः) = वानस्पतिक भोजनों से बना हुआ शरीर-रथ [अस्मान्] = हमें (च) = [certainty] निश्चय से (मा हाः) = मत छोड़ जाए, (च) = और (मा रीरिषत्) = हिंसित न हो, अर्थात् हमारा यह शरीररथ ठीकठाक बना रहे इसमें किसी प्रकार की कमी न आ जाए। [२] यह (आगृहेभ्यः) - जब तक हम अपने ब्रह्मलोकरूप गृह में नहीं पहुँचते, तब तक (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति में बना रहे [सु अस्ति] (आ अवसा) = [अवसै] यात्रा के (अवसान) = [=अन्त] तक यह ठीक रहे। (आ विमोचनात्) = इन्द्रियरूप अश्वों के विमोचन तक [खोलने तक] यह ठीक ही बना रहे। यहाँ अश्वों के विमोचन में 'इन्द्रियाश्वों के विषयों से मुक्त करने' का संकेत बड़ा स्पष्ट है। जब तक हमारी साधना विषय-विमुक्ति तक नहीं पहुँच जाती, तब तक यह शरीररथ ठीक-ठाक बना ही रहे।

    भावार्थ

    भावार्थ– शरीर-रथ का निर्माण हम वानस्पतिक भोजनों से ही करें। यह शरीर-रथ हमें ब्रह्मलोकरूप घर में पहुँचाने तक बड़ा ठीक बना रहे।

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    विषय

    रथवत् और तरुवत् स्वामी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ‘वनस्पति’ काष्ठ का विकार रथ घर पहुंचने, यात्रा समाप्ति और अश्वादि मोचन तक साथ नहीं छोड़ता है उसी प्रकार (अयम्) यह (वनस्पतिः) महावृक्ष के समान किरणों के पालक सूर्य के समान ‘वना’ अर्थात् धन में समान भाग लेने वाले वा सेवा करने वालों का पालक, अध्यक्ष, स्वामी (अस्मान्) हमें (मा हाः) कभी त्याग न करे। (मा च रीरिषत्) कभी विनाश न करे। वह (आ अवसे) कार्य समाप्ति तक और (आ विमोचनात्) अवकाश या छुट्टी के अवसर तक भी (आ गृहेभ्यः) घरों तक पहुंच जाने तक भी हमारा साथ त्याग न करे। चाहे सेवक का कार्य समाप्त हो जाय, अवकाश पर हो या घरों में बैठा हो तो भी स्वामी सेवक को न त्यागे और न दण्ड दे। (२) विद्यासेवी शिष्यों का पालक आचार्य गृह पहुंचने, विद्यावसान और गुरु-गृह त्याग तक शिष्य को न त्याग करे, न पीड़ित या दण्डित करे। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा अन्न इत्यादी वस्तू सर्वांचे रक्षण करणाऱ्या असतात तसे राजपुरुषांनी सर्वांचे पालनकर्ता व्हावे व न्यायाचा त्याग करू नये. अन्याय कधी करू नये. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Vanaspati, lord of the light of life, never forsake us. May the chariot of life never hurt us. May the lord and life be good and kind to us and our homes while we are riding the chariot until we reach the terminal and the horses are released.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the officers of the State are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king, as the protector of the forest does not leave us, or as the sun does not harm us, in the same manner you should also not desert us. May we travel back home with prosperity till the goal is reached, and thereafter the horses be unharnessed.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the food and other things are protectors of all, in the same manner, the officers of the State should be protectors or guardians of all. They should never give up justice, having given up injustice.

    Foot Notes

    (रीरिषत्) हिस्यात् । रिष हिंसायाम् (दिवा० ) = May perish. (वनस्पतिः) वनस्य पालकः । वनमिति रश्मिनाम (NG 1, 5 ) = The protector of the forest. 2 = The protector of rays-sun.

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