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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    परा॑ याहि मघव॒न्ना च॑ या॒हीन्द्र॑ भ्रातरुभ॒यत्रा॑ ते॒ अर्थ॑म्। यत्रा॒ रथ॑स्य बृह॒तो नि॒धानं॑ वि॒मोच॑नं वा॒जिनो॒ रास॑भस्य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । या॒हि॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । आ । च॒ । या॒हि॒ । इन्द्र॑ । भ्रा॒तः॒ । उ॒भ॒यत्र॑ । ते॒ । अर्थ॑म् । यत्र॑ । रथ॑स्य । बृ॒ह॒तः । नि॒ऽधान॑म् । वि॒ऽमोच॑नम् । वा॒जिनः॑ । रास॑भस्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा याहि मघवन्ना च याहीन्द्र भ्रातरुभयत्रा ते अर्थम्। यत्रा रथस्य बृहतो निधानं विमोचनं वाजिनो रासभस्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा। याहि। मघऽवन्। आ। च। याहि। इन्द्र। भ्रातः। उभयत्र। ते। अर्थम्। यत्र। रथस्य। बृहतः। निऽधानम्। विऽमोचनम्। वाजिनः। रासभस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र त्वमितः परा याहि। हे भ्रातस्त्वं तस्मादायाहि यत्र बृहतो रथस्य रासभस्येव वाजिनो निधानं च विमोचनं स्यात्तत्रोभयत्र तेऽर्थं वयं प्राप्नुयाम ॥५॥

    पदार्थः

    (परा) (याहि) दूरं गच्छ (मघवन्) (आ) (च) (याहि) आगच्छ (इन्द्र) मृदूग्रस्वभाव (भ्रातः) बन्धो (उभयत्र) गमनाऽऽगमनयोः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तव (अर्थम्) (यत्र)। अत्रापि ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (रथस्य) रमणीययानस्य (बृहतः) महतः (निधानम्) स्थापनम् (विमोचनम्) पृथक्करणम् (वाजिनः) वेगवतः (रासभस्य) विद्युदादिसम्बन्धिन इव ॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वत्र भ्रमणं कार्य्यसिद्धये कर्त्तव्यं न सदा भ्रमणमेव किन्तु गृहेऽपि स्थित्वा सर्वैर्बन्धुभिः सह सङ्गत्य पुनरप्यैश्वर्य्यप्राप्तये देशान्तरे गन्तव्यमागन्तव्यञ्च ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) धनयुक्त और (इन्द्र) सज्जनों के प्रति कोमल और दुष्टों के प्रति उग्र स्वभाववाले ! आप यहाँ से (परा) (याहि) दूर जाइये। हे (भ्रातः) बन्धु जन आप उससे प्राप्त होइये (यत्र) जहाँ (बृहतः) बड़े (रथस्य) सुन्दर वाहन के (रासभस्य) बिजुली आदि के सम्बन्धी के सदृश (वाजिनः) वेगयुक्त के (निधानम्) स्थापन (च) और (विमोचनम्) पृथक् करना होवे (यत्र) जहाँ (उभयत्र) गमन और आगमन में (ते) आपके (अर्थम्) प्रयोजन को हम लोग प्राप्त होवें ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सर्वत्र भ्रमण कार्य्यसिद्धि के लिये करें और नहीं सदा भ्रमण ही करना किन्तु गृह में स्थित हो सम्पूर्ण बन्धुओं के साथ मेल करके फिर भी ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये एक देश से दूसरे देश में जावें और आवें ॥५॥

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    विषय

    घर में तथा घर से बाहिर

    पदार्थ

    [१] पर्वत ने घर के पालन के लिए आवश्यक धन कमाना है। अतः यहाँ पति को 'मघवन्' शब्द से सम्बोधित किया है इस धन को उसने सुपथ से ही कमाना है [मा+अघ] । अजितेन्द्रिय बनकर विलासी जीवनवाला नहीं बनना, अत: उसे 'इन्द्र' कहा गया है। घर का भार उठाने के कारण उसे 'भ्रातः' कहा गया है। सदा घर पर बैठे रहने से कमाया नहीं जा सकता और क्लबों में फिरने से घर बरवाद हो जाता है । सो कहते हैं कि हे (मघवन्) = सुपथ से धनार्जन करनेवाले पति! तू (परा याहि) = घर से बाहर दूर-दूर स्थानों पर जानेवाला हो (च) = और धनार्जन के लिए आवश्यक गति की समाप्ति पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पति! तू (आयाहि) = सर्वथा घर पर आनेवाला हो। हे (भ्रातः) घर के बोझ को उठानेवाले पति! (उभयत्रा) = घर के बाहर भी और अन्दर भी (ते अर्थम्) = तेरा प्रयोजन है। बाहर जाकर तूने धनार्जन करना है, अन्दर आकर घर का रक्षण करना है, सन्तानों की शक्तियों के सन्तान के लिए (फैलाव) यत्नशील होना है। (२) इस प्रकार घर के अन्दर व बाहर दोनों स्थानों में ठीक प्रकार कार्य करना ही वह मार्ग है, यत्रा जिसमें बृहतः = वृद्धिशील (रथस्य) = शरीर-रथ का (निधानम्) = स्थापन होता है तथा (रासभस्य) = प्रभु के नामों का उच्चरण करनेवाले (रासृ शब्दे) वाजिनः शक्तिशाली इन्द्रियाश्व का विमोचनम् विषयों से छुड़ाना होता है। अन्दर व बाहर के कार्यों को ठीक से करने पर शरीरूप रथ वृद्धिशील व सुन्दर बनता है तथा इन्द्रियाँ विषयासक्त नहीं होतीं।

    भावार्थ

    भावार्थ - पति ने धनार्जन के लिए घर से बाहर जाना है घर पर ही नहीं बैठे रहना। तदनन्तर घर पर ही आना है - इधर-उधर सैर नहीं करनी, ताकि घर का समुचित ध्यान किया जा सके। यही वृद्धि व विषय-विमुक्ति का मार्ग है।

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    विषय

    ऐश्वर्य के वृद्धयर्थ देश-देशान्तर में यातायात करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! हे पूजनीय धन के स्वामिन् ! तू (परा याहि) दूर देश में गमन कर (च) और (आ याहि च) अपने देश में भी आ। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! तू (ते) तेरे (उभयत्र) दोनों ही स्थानों में (अर्थम्) स्थित प्रयोजन को प्राप्त कर (यत्र) जहां (बृहतः रथस्य) बड़े भारी रमण करने योग्य ऐश्वर्य का (निधानं) ख़ज़ाना हो वहां (रासभस्य वाजिनः) अति हेषा रव करने वाले वेगवान् अश्व का (विमोचनम्) रथ से पृथक् करना या ढीली वागों से जाना उचित है, ऐश्वर्यवान् पुरुषों का दूर या समीप जहां भी ऐश्वर्य प्राप्त हो वहीं प्रसन्न अश्वों द्वारा जाना चाहिये। (२) इसी प्रकार गृहस्थ में जाने वाला पुरुष भी चाहे इह लोक में गृहस्थ होकर रहे या परम- पद की ओर जावे दोनों ओर ही पुरुषार्थ है। उत्तम सुख की जहां स्थिति हो वहां ही इस उपदेष्टव्य ज्ञानवान् आत्मा की बन्धन से विशेष मुक्ति होती है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी कार्यसिद्धीसाठी सर्वत्र भ्रमण करावे. केवळ भ्रमण करणेच नव्हे तर घरातील सर्व बंधूंनी एकत्रितपणे ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी एका देशातून दुसऱ्या देशामध्ये गमनागमन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maghavan, lord of power and prosperity, go far, and come back home. Brother, both ways there is a meaning and purpose for you, here as well as there, where there is the start (with harnessing of the horses) or the finish of your grand chariot of power and speed (with unharnessing of the horses at the terminal).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of learned persons are state.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wealthy Indra (king) ! you are of mild and fierce temper. In ease you may require to go to distant place brother! come from there. There is a purpose for you, both in going and coming. Where there is the place for yoking your horses in the charming speedy chariot, or electricity etc, and when there is the place of loosening of the reins for holding, let us know your purpose and co-operate with you,

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should go to distant places for the accomplishment of their works. But they should not always be on the move. They should come back home, should meet their kith and kin and then again go to distant lands for the acquirement of wealth and return.

    Foot Notes

    (रासभस्य) द्यिद्युदादिसंबन्धिन इव। = Regarding electricity etc. (इन्द्र) मृदूग्रस्वभाव । = Man of mild and fierce temperament as the case may be.

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