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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 22
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प॒र॒शुं चि॒द्वि त॑पति शिम्ब॒लं चि॒द्वि वृ॑श्चति। उ॒खा चि॑दिन्द्र॒ येष॑न्ती॒ प्रय॑स्ता॒ फेन॑मस्यति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒शुम् । चि॒त् । वि । त॒प॒ति॒ । शि॒म्ब॒लम् । चि॒त् । वि । वृ॒श्च॒ति॒ । उ॒खा । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ येष॑न्ती । प्रऽय॑स्ता । फेन॑म् । अ॒स्य॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परशुं चिद्वि तपति शिम्बलं चिद्वि वृश्चति। उखा चिदिन्द्र येषन्ती प्रयस्ता फेनमस्यति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परशुम्। चित्। वि। तपति। शिम्बलम्। चित्। वि। वृश्चति। उखा। चित्। इन्द्र येषन्ती। प्रऽयस्ता। फेनम्। अस्यति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 22
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! या ते सेना अयस्कारः परशुं चिच्छत्रून् वि तपति शिम्बलं चिद्वि वृश्चति प्रयस्ता येषन्त्युखा चित् फेनमिव शत्रूनस्यति सा त्वया सदैव सत्कर्त्तव्या ॥२२॥

    पदार्थः

    (परशुम्) कुठारम् (चित्) इव (वि) (तपति) विशेषेण सन्तापयति (शिम्बलम्) शल्मलीपुष्पम् पत्रं वा (चित्) इव (वि) विशेषेण (वृश्चति) छिनत्ति (उखा) पाकस्थाली (चित्) इव (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (येषन्ती) स्रवन्ती (प्रयस्ता) प्रेरिता (फेनम्) (अस्यति) प्रक्षिपति ॥२२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये राजानः प्रशस्तां वीरसेनां रक्षन्ति त एव विजयं प्राप्य विराजन्ते ॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! जो आपकी सेना लोहार (परशुम्) परशारूप शस्त्र को (चित्) जैसे वैसे शत्रुओं को (वि, तपति) विशेष करके सन्ताप देती है (शिम्बलम्) शेमर वृक्ष के पुष्प वा पत्र को (चित्) जैसे (वि, वृश्चति) विशेष करके काटता है (प्रयस्ता) प्रेरित हुई (येषन्ती) वहता तथा प्राप्त हुआ (उखा) पाक करनेका पात्र (चित्) जैसे (फेनम्) फेने को वैसे शत्रुओं को (अस्यति) फेंकती है उसका आपसे सदा सत्कार करने योग्य है ॥२२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा लोग श्रेष्ठ वीरों की सेना की रक्षा करते हैं, वे ही विजय को प्राप्त होकर शोभित होते हैं ॥२२॥

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    विषय

    परशु से शत्रुछेदन

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार प्रभु से रक्षित हुआ हुआ व्यक्ति (चित्) = निश्चय से परशुम् शत्रुओं को तनूकृत [Thin] करनेवाले कुल्हाड़े को (वितपति) = दीप्त करता है। मन ही वह परशु है, जो कि आसुरवृत्तिरूप शत्रुओं को काट डालता है। यह उन शत्रुओं को (शिम्बलं चित्) = शाल्मली कुसुम के समान (विवृश्चति) = छिन्न कर देता है। सेमल के फूल को जैसे सुगमता से काट दिया जाता है, उसी प्रकार यह वासनारूप शत्रुओं को आसानी से काटनेवाला होता है । [२] (उखा) [चित्] = देगची भी [चित्] = निश्चय से, इन्द्र हे जितेन्द्रिय पुरुष ! [येषन्ती] = उबलती हुई [to bubble] उबलने के कारण जिसमें बुलबुले उठ रहे हैं, (प्रयस्ता) = पीड़ित हुई हुई (फेनम्) = झाग को (अस्यति) = फेंकती है। इसी प्रकार यह शरीररूपी देगची भी यदि सदा वासनाओं के उबालवाली होगी, तो इससे शक्ति की झाग गिरेगी ही। इसलिए इसे वासनाओं से सदा उबलने न देना चाहिए। वासनारूप शत्रुओं को तो विनष्ट करना ही ठीक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वासनारूप शत्रुओं के लिए परशु के समान हों। वासना का उबाल दूर करके शक्ति का रक्षण करें।

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    विषय

    उबलती हांडी के दृष्टान्त से सेना के कर्त्तव्य का उपदेश।

    भावार्थ

    (उखा चित्) जिस प्रकार डेगची (येषन्ती) उबलती हुई (प्रयस्ता) खूब सन्तप्त होकर (फेनम् अस्यति) फेन बाहर फेकती है उसी प्रकार हे (इन्द्र) सेनापते ! (उखा) शत्रुको उखाड़ कर फेंकने वाली सेना (येषन्ती) आगे बढ़ती हुई और (प्रयस्ता) अच्छी प्रकार को सुख से प्रयास, उद्यम या प्रहार करती हुई (फेनम्) शत्रु हिंसक शस्त्र को (अस्यति) शत्रु पर फेंके और (परशुं चित्) लोहार या अग्नि जिस प्रकार फरसे को तपाता है उसी प्रकार वह (परशुं) दूसरे शत्रु की शीघ्रगामिनी सेना को (वि तपति) विविध उपायों से पीड़ित सन्तप्त करे। (शिम्बलं चित्) सेमर के वृक्ष, शाखा पुष्प वा पत्र के समान शत्रु (विवृश्चति) विविध उपायों से काटदे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे लोक श्रेष्ठ वीरांच्या सेनेचे रक्षण करतात तेच विजय प्राप्त करून सुशोभित होतात. ॥ २२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler of the realm, just as the arm- smith heats the steel and tempers the axe, or the gardener plucks off the shimbala flower, or the boiling pan, bubbling over, throws out the froth and foam, so does the commander of the army throw out the enemies.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you possess abundant wealth and your army tortures the enemies like a blacksmith heats his axe. It cuts into pieces the foes easily like the Simal flower, The heavily heated cauldron leaks and boils over foam, so may mine enemy perish.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings who protect and safe-guard their brave army, achieve victory and shine in the world.

    Foot Notes

    (शिम्बलम् ) शाल्मलीपुष्पम् पत्रं वा। Simal flower or leaf. (वृश्चति) छिनत्ति । ओव्रश्च-छंदने (तुदा० ) = Cuts down. (उखा) पाकस्थाली । परमं वा एतत् पात्रं यत् उखा (Maitrāyanisamhita 3, 1,8) = Cauldron. (येषन्ती) स्रवन्ती = Leaking.

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