ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 23
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न साय॑कस्य चिकिते जनासो लो॒धं न॑यन्ति॒ पशु॒ मन्य॑मानाः। नावा॑जिनं वा॒जिना॑ हासयन्ति॒ न ग॑र्द॒भं पु॒रो अश्वा॑न्नयन्ति॥
स्वर सहित पद पाठन । साय॑कस्य । चि॒कि॒ते॒ । ज॒ना॒सः॒ । लो॒धम् । न॒य॒न्ति॒ । पशु॑ । मन्य॑मानाः । न । अवा॑जिनम् । वा॒जिना॑ । हा॒स॒य॒न्ति॒ । न । ग॒र्द॒भम् । पु॒रः । अश्वा॑त् । न॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः। नावाजिनं वाजिना हासयन्ति न गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति॥
स्वर रहित पद पाठन। सायकस्य। चिकिते। जनासः। लोधम्। नयन्ति। पशु। मन्यमानाः। न। अवाजिनम्। वाजिना। हासयन्ति। न। गर्दभम्। पुरः। अश्वात्। नयन्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 23
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे राजन् ! ये ते जनासो लोधं न नयन्ति पशु मन्यमाना वाजिना अवाजिनं न हासयन्ति। अश्वात्पुरो गर्द्दभं न नयन्ति ता सायकस्य दानेन युक्तान् कर्त्तुं भवान् चिकिते ॥२३॥
पदार्थः
(न) निषेधे (सायकस्य) शस्त्रसमूहस्य (चिकिते) जानातु (जनासः) वीराः (लोधम्) लोब्धारम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन भस्य धः। (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (पशु) पशुमिव। अत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लुक्। (मन्यमानाः) विजानन्तः (न) निषेधे (अवाजिनम्) अविद्यमाना वाजिनो यत्र सङ्ग्रामे तम् (वाजिना) अश्वेन (हासयन्ति) (न) (गर्दभम्) लम्बकरणं खरम् (पुरः) (अश्वात्) (नयन्ति) ॥२३॥
भावार्थः
त एव राज्ञो वीरा वराः स्युर्ये युद्धविद्यां विज्ञाय सेनाङ्गानि यथावद्रक्षितुं संस्थापयितुं योधयितुं जानन्ति ॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे राजन् ! जो वे (जनासः) वीरपुरुष (लोधम्) प्राप्त होनेवाले को (न) नहीं (नयन्ति) प्राप्त होते हैं (पशु) पशु के सदृश (मन्यमानाः) जानते हुए (वाजिना) घोड़े से (अवाजिनम्) घोड़े जिसमें नहीं ऐसे सङ्ग्राम को (न) नहीं (हासयन्ति) हराते हैं और (अश्वात्) घोड़े से (पुरः) प्रथम (गर्दभम्) लम्बे कानवाले गदहे को (न) नहीं (नयन्ति) प्राप्त कराते हैं उनको (सायकस्य) शस्त्रसमूह के दान से युक्त करने को आप (चिकिते) जानिये ॥२३॥
भावार्थ
वे ही राजा के वीर श्रेष्ठ होवें कि जो युद्धविद्या को जान के सेनाओं के अङ्गों की यथावत् रक्षा स्थिर करने और युद्ध कराने को जानते हैं ॥२३॥
विषय
'सायक' प्रभु का स्मरण
पदार्थ
[१] 'षो अन्तकर्मणि' से 'सायक' शब्द बना है। यहाँ सबका अन्त करनेवाले प्रभु का वाचक यह शब्द है । हे (जनासः) = लोगो ! (सायकस्य न चिकिते) = उस अन्त करनेवाले प्रभु का तुम्हें ज्ञान नहीं। उसके उग्ररूप का ज्ञान न होने के कारण ही (मन्यमानाः) =' आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया' 'मैं धनी हूँ, कुलीन हूँ, मेरे समान और कोई है ही कौन ?' इस प्रकार अभिमान करते हुए लोग (लोधं पशु) = लुब्ध पशु के समान (नयन्ति) = जीवन को बिताते हैं । वस्तुत: आसुरवृत्ति में 'ईश्वरोऽहम्' अपने को ही ईश्वर मानकर चलते हैं। लोभ का वहाँ अन्त नहीं होता। इन्हें ईश्वर का स्मरण होता ही नहीं। ये पाशविक [= भोगप्रधान] ही जीवन बिताते हैं । [२] इनकी आवृत्तचक्षु विषयव्यावृत्त पुरुषों से तुलना हो ही क्या सकती है? (अवाजिनम्) = शक्तिरहित पुरुष को (वाजिना) = शक्तिशाली पुरुष से (न हासयन्ति) = स्पर्धा नहीं कराया करते। तुलना के लिए (गर्दभम्) = गधे को (अश्वात् पुरः) = घोड़े से पहले (न नयन्ति) = नहीं ले चलते । निर्बल की शक्तिशाली से क्या तुलना ! और गधे-घोड़े का क्या मुकाबिला ! इसी प्रकार अभिमानी आसुरी सम्पत्तिवाले का दैवी संपत्वाले के साथ कोई साम्य नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के रुद्र स्वरूप का स्मरण करते हुए पशुवत् जीवन न बिता कर अभिमानशून्य पवित्र जीवनवाले हों।
विषय
मूर्ख और विवेकी का भेद।
भावार्थ
(जनासः) जो मनुष्य (सायकस्य) शस्त्रांदि के समान प्राणों का अन्त कर देने वाले विनाशक के सम्बन्ध में (न चिकिते) कुछ भी नहीं जानते। वे (मन्यमानाः) अभिमान करते हुए अपने आपको (लोधं पशु) लोभवश हुए पशु के समान आगे लेजाते हैं। (वाजिना) ज्ञानैश्वर्य से युक्त पुरुष से कभी (अवाजिनत्) अज्ञानी पुरुष को लाकर (न हासयन्ति) हँसी नहीं कराते। और बुद्धिमान् पुरुष (अश्वात् पुरः) घोड़े के समक्ष (गर्दभं न नयन्ति) गधे को उसके मुकाबले पर नहीं लाते। युद्ध में जिस प्रकार प्राणान्तकारी शस्त्र बल को न जानकर भी अभिमानी सैनिक अपने स्वामी के वेतन के लोभ में पड़कर अपने आपको आगे बढ़ाते हैं। उसी प्रकार मनुष्य प्रायः अपने अन्तकारी मृत्यु के विषय में वे कुछ न जान कर केवल अभिमान से अपने को भावी लोभ में पड़ कर आगे बढ़ाते हैं, परन्तु इतने से भी वे अज्ञानी को ज्ञानी के बराबर नहीं कर सकते अर्थात् वे अभिमान पूर्वक आगे बढ़ने से ज्ञानी नहीं हो जाते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
तेच राजाचे वीर श्रेष्ठ असतात जे युद्ध विद्या जाणून सेनेच्या अंगांचे यथावत् रक्षण करणे व युद्ध करविणे जाणतात. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The brave take no cognition of the pain of arrows. They lead the greedy opponent anywhere, feeling that he is just a human animal. They do not demean the weak foot-soldier by a bold horse-warrior, nor do they lead the horses by an ass in the forefront.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! your men who while fighting do not mind the trouble caused by arrows and arms, and drive away a greedy enemy deeming him like an animal. They do not fight in the battle while riding on the horse back with those who have no horses, and do not lead an ass (inferior horse) in preference to a good horse. Such people should be supplied with good arrows and other weaponry arms.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those are to be considered as the best in the army of a king, who know well the science of warfare and who know how to preserve and firmly keep and urge to fight various parts of th army.
Translator's Notes
Here Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have meant that Vishvämitra while preforming austerities was captivated by the men employed by Vasishtha and taken away like an animal. Vishvămitra ridicules the rivalry of Vasishtha with himself in this mantra. In fact, it is an absurd interpretation, as it brings the Vedas and the Vedic sage, both, like Vishvāmitra and Vasishtha into contempt. Dayananda Sarasvati has interpreted it straightforward by overlooking the absurd myths connected with it. He has taken the words वाजिना -अवाजिनम् in their simple and direct sense.
Foot Notes
(लोधम् ) लोब्धारम् । अत्र वणव्यत्ययेन भस्य ध:। = Greedy enemy. (अवाजिनम्) अविद्यमाना वाजिनो यत्र साङ्ग्रामे तम्। = In the battle with those who have no horses. Editor's Note-In accordance with the established norms of warfare, as indicated in the Mahabharat also a horse-rider would never fight a soldier not riding on the horse. It is like this in Mahabharata- रथी च रथिना योध्यो गजेन गजधूर्गतः। अश्वेनाश्वी, पदातिस्च पादातेनैव नैव भारत ।
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