ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तिष्ठा॒ सु कं॑ मघव॒न्मा परा॑ गाः॒ सोम॑स्य॒ नु त्वा॒ सुषु॑तस्य यक्षि। पि॒तुर्न पु॒त्रः सिच॒मा र॑भे त॒ इन्द्र॒ स्वादि॑ष्ठया गि॒रा श॑चीवः॥
स्वर सहित पद पाठतिष्ठ॑ । सु । क॒म् । म॒घ॒ऽव॒न् । मा । परा॑ । गाः॒ । सोम॑स्य । नु । त्वा॒ । सुऽसु॑तस्य । य॒क्षि॒ । पि॒तुः । न । पु॒त्रः । सिच॑म् । आ । र॒भे॒ । ते॒ । इन्द्र॑ । स्वादि॑ष्ठया । गि॒रा । श॒ची॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिष्ठा सु कं मघवन्मा परा गाः सोमस्य नु त्वा सुषुतस्य यक्षि। पितुर्न पुत्रः सिचमा रभे त इन्द्र स्वादिष्ठया गिरा शचीवः॥
स्वर रहित पद पाठतिष्ठ। सु। कम्। मघऽवन्। मा। परा। गाः। सोमस्य। नु। त्वा। सुऽसुतस्य। यक्षि। पितुः। न। पुत्रः। सिचम्। आ। रभे। ते। इन्द्र। स्वादिष्ठया। गिरा। शचीऽवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
हे मघवन्निन्द्र ! त्वं सुषुतस्य सोमस्य सकाशात्कं सुतिष्ठ। हे शचीवो यथा ते स्वादिष्ठया गिरा सिचमा रभे त्वा नु पुत्रः पितुर्नाऽऽरभे स त्वमस्मान्यक्ष्यस्मन्मा परा गाः ॥२॥
पदार्थः
(तिष्ठ)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सु) (कम्) सुखम् (मघवन्) पुष्कलधनवन् (मा) निषेधे (परा) (गाः) दूरं गच्छेः (सोमस्य) महौषधिगणस्यैश्वर्यस्य (नु) सद्यः (त्वा) त्वाम् (सुषुतस्य) यथावत्सिद्धस्य (यक्षि) सङ्गच्छस्व (पितुः) जनकस्य (न) इव (पुत्रः) (सिचम्) (आ) (रभे) (ते) तव (इन्द्र) ऐश्वर्यकारक (स्वादिष्ठया) अतिशयेन मधुरादिरसयुक्तया (गिरा) वाण्या (शचीवः) प्रशस्ताः शचीः प्रजा विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा पुत्रः पितरं सेवते तथैव वृद्धान् विदुषः सेवस्व। कदाचिद्धर्मात्पृथग् न भवेरन्यान् सुखिनः कृत्वा सुखी भव ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (मघवन्) बहुत धनयुक्त (इन्द्र) ऐश्वर्य के करनेवाले ! आप (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार सिद्ध (सोमस्य) बड़ी ओषधियों के समूहरूप ऐश्वर्य्य के समीप के (कम्) सुख को (सु, तिष्ठ) करिये। और हे (शचीवः) उत्तम प्रजाओं से युक्त जैसे (ते) आपकी (स्वादिष्ठया) अत्यन्त मधुर आदि रस से युक्त (गिरा) वाणी से (सिञ्चनम्) सिंचन का (आ, रभे) प्रारम्भ करें (त्वा) आपको (नु) शीघ्र (पुत्रः) पुत्र (पितुः) पिता से (न) नहीं (आ, रभे) प्रारम्भ करते हैं, वह आप हम लोगों को (यक्षि) प्राप्त होइये और हम लोगों से (मा) नहीं (परा, गाः) दूर जाइये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे पुत्र पिता की सेवा करता है, वैसे ही वृद्ध विद्वानों की सेवा करो और कभी धर्म से पृथक् न होओ, अन्य जनों को सुखी करके सुखी होओ ॥२॥
विषय
मैं पुत्र बनूँ और प्रभु मेरे पिता हों
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! यहाँ हमारे जीवनयज्ञ में (कम्) = सुख से (सुतिष्ठ) = सम्यक् स्थित होइये। (मा परा गाः) = हमारे जीवन से आप दूर न होइये। (नु) = अब (सुषुतस्य) = उत्तमता से उत्पन्न किये गये (सोमस्य) = इस सोम द्वारा (त्वा यक्षि) = मैं आपका यजन करता हूँ। वस्तुतः प्रभु का सम्पर्क इस सोम के रक्षण से ही प्राप्त होता है । [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (शचीवः) = शक्तिशालिन् प्रभो ! मैं (स्वादिष्ठया गिरा) = अत्यन्त मधुर स्तुति वाणियों द्वारा (ते सिचम्) = आपके वस्त्र प्रान्त को इस प्रकार (आरभे) = पकड़ता हूँ (न) = जैसे कि (पुत्रः) = पुत्र (पितुः) = पिता के वस्त्र प्रान्त को पकड़ता है, अर्थात् मैं अत्यन्त मधुर स्तुति-वचनों का उच्चारण करता हुआ आपका ही आश्रय करता हूँ। आपका ही तो पुत्र हूँ । पुत्र ने पिता को छोड़कर कहाँ जाना ?
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा हम जीवन-यज्ञ में प्रभु को आमन्त्रित करें। प्रभु का ही हमें आश्रय हो !
विषय
प्रजा द्वारा राजा की वृद्धि।
भावार्थ
हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! धनों के स्वामिन् ! तू (कं) सुख पूर्वक और (सु) आदर से (तिष्ठ) स्थिर होकर खड़ा रह। (मा परागाः) दूर मत जा, (त्वा नु) तुझे मैं (सुषुतस्य सोमस्य) उत्तम रीति से उत्पादित, पुत्रवत् प्रिय, सोम अर्थात् ओषधि रस के समान उत्साहवर्धक ऐश्वर्य का (यक्षि) प्रदान करूं। (पुत्रः पितुः न) जिस प्रकार पुत्र पिता के (सिचम् आरभते) वस्त्र का स्पर्श करता है वा निषेक आदि द्वारा उत्पन्न सन्तान भाव का प्रारम्भ करता है। उसी प्रकार हे (शचीवः) शक्ति, सेना और उत्तम वाणी के स्वामिन् ! (इन्द्र) शत्रुहन्तः एवं विद्वन् ! मैं प्रजाजन भी (स्वादिष्टया) अति अधिक स्वादु, मधुर (गिरा) वाणी से (ते सिचम्) तेरा राज्यपदाभिषेक (आर) करूं। (ते) तेरे (सिचम् आरभे) उज्ज्वल वस्त्र का स्पर्श करूं। तेरे वस्त्र प्रान्त को पकडूं, तेरा आश्रय ग्रहण करूं। राजा का लम्बा दामन पकड़ना उसका आश्रय ग्रहण करने के समान है। जैसे पुत्र पिता का दामन मीठी तुतलाती वाणी बोल के पकड़ लेता है उसमें ही स्नेहवश घुस जाता है, उसी प्रकार प्रजाजन स्नेहवश राजा के दामन में उसके शासन या छत्रच्छाया में रहें अथवा उसका अभिषेक करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जसा पुत्र पित्याची सेवा करतो तशीच वृद्ध विद्वानांची सेवा कर व कधी धर्मापासून पृथक होऊ नको. इतरांना सुखी करून सुखी हो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Maghavan, lord of wealth, power and prosperity, come and stay at peace in comfort, do not go away, feed yourself at pleasure in company with us on the soma joy of excellence. Indra, lord ruler of a noble people as you are, as a child clings to the hem of the father’s cloak for love and security, so do I, with sweet words and prayer, seek shelter and support in you for security and peace.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O opulent Indra (king) ! enjoy happiness by drinking copiously effused Soma (juice of invigorating herbs) by making proper use of wealth. As a son clings to the garment of a father, likewise, O powerful king! lord of noble subjects! I lay hold of the skirts of your robe with the sweetest speech. Please be united with us and do not abandon us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! as a son serves his father, same way serve the old enlightened men. Never go astray from Dharma (righteousness). Enjoy happiness after making others happy.
Foot Notes
(कम् ) सुखम् । कम् इति सुखनाम (N.G. 3,6) Happiness. (यक्षि ) सङ्गच्छस्व । United. (शचीवः) प्रशस्ताः शची: प्रज्ञा विद्यन्ते यस्य तत्संबुद्धौ। = One who has good subjects. Though in most of the present editions the text appears to be शचीति प्रज्ञानाम NKT. 3,9, but Rishi Dayananda has given he meaning of प्रजा It requires further research regarding the matter. Commentator.
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