ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 16
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - वाक्
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
स॒स॒र्प॒रीर॑भर॒त्तूय॑मे॒भ्योऽधि॒ श्रवः॒ पाञ्च॑जन्यासु कृ॒ष्टिषु॑। सा प॒क्ष्या॒३॒॑ नव्य॒मायु॒र्दधा॑ना॒ यां मे॑ पलस्तिजमद॒ग्नयो॑ द॒दुः॥
स्वर सहित पद पाठस॒स॒र्प॒रीः । अ॒भ॒र॒त् । तूय॑म् । ए॒भ्यः॒ । अधि॑ । श्रवः॑ । पाञ्च॑ऽजन्यासु । कृ॒ष्टिषु॑ । सा । प॒क्ष्या॑ । नव्य॑म् । आयुः॑ । दधा॑ना । याम् । मे॒ । प॒ल॒स्तिऽज॒म॒द॒ग्नयः॑ । द॒दुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ससर्परीरभरत्तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु। सा पक्ष्या३ नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः॥
स्वर रहित पद पाठससर्परीः। अभरत्। तूयम्। एभ्यः। अधि। श्रवः। पाञ्चऽजन्यासु। कृष्टिषु। सा। पक्ष्या। नव्यम्। आयुः। दधाना। याम्। मे। पलस्तिऽजमदग्नयः। ददुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 16
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या पलस्तिजमदग्नयो मे यां ददुः सा पक्ष्या पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु नव्यमायुर्दधाना एभ्य श्रवोऽधि तूयं ददुः ससर्परीरभरत् ॥१६॥
पदार्थः
(ससर्परीः) सुखस्य प्रापिका (अभरत्) (तूयम्) शीघ्रम् (एभ्यः) जिज्ञासुभ्यः (अधि) उपरिभावे (श्रवः) अन्नम् (पाञ्चजन्यासु) पञ्चसु दिनेषु प्राणेषु भवासु (कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु (सा) (पक्ष्या) पक्षेषु साध्वी (नव्यम्) नवीनमेव (आयुः) अन्नं जीवनं वा। आयुरित्यन्नना०। निघं०२। ७। (दधाना) (याम्) (मे) मम (पलस्तिजमदग्नयः) प्रजमिता विदिता अग्नयः पलस्तयो वयोज्ञानवृद्धाश्च जमदग्नयो यैस्ते (ददुः) दद्युः ॥१६॥
भावार्थः
हे मनुष्या या कार्यसिद्ध्यैश्वर्योत्पादिका आयुर्वर्धिका सत्यादिलक्षणोज्ज्वला वाणी नवीनं विज्ञानं जीवनं च दधाति तां नित्यं विभृत ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (पलस्तिजमदग्नयः) जाना है प्राजापत्य आदि अग्नियों को जिन्होंने वे और अवस्था और ज्ञान में वृद्ध पुरुष (याम्) जिसको (ददुः) देवें (सा) वह (पक्ष्या) पक्षों में साध्वी (पाञ्चजन्यासु) पाँच दिनों तथा प्राणों में उत्पन्न (कृष्टिषु) मनुष्य आदि प्रजाओं में (नव्यम्) नवीन ही (आयुः) अन्न वा जीवन को (दधाना) धारण करती हुई (एभ्यः) इन जानने की इच्छा करनेवालों के लिये (श्रवः) अन्न को (अधि) उपरि भाग में (तूयम्) शीघ्र (ददुः) देवें (ससर्परीः) सुख की बढ़ानेवाली (अभरत्) प्राप्त कराइये ॥१६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो कार्य की सिद्धि और ऐश्वर्य की उत्पन्न करने और अवस्था की बढ़ानेवाली सत्य लक्षणों से स्पष्ट वाली नवीन-नवीन विज्ञान और जीवन धारण करती है, उसको नित्य धारण करो ॥१६॥
विषय
पलस्ति व जमदग्नि
पदार्थ
[१] गतमन्त्र में वर्णित (ससर्परी:) = यह आचार्य से विद्यार्थी की ओर सर्पणशील वाणी (एभ्यः) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (श्रवः) = ज्ञान को (तूयम्) = शीघ्र (आधि अभरत्) = आधिक्येन भरनेवाली होती है। [२] वह वेदवाणी (पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु) = पाँचों पृथिवी आदि भूतों, पाँचों प्राणों, पाँचों कर्मेन्द्रियों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय' इन पाँचों का विकास करनेवाले मनुष्यों में (पक्ष्या) = [पक्ष परिग्रहे] परिग्रह के योग्य होती है। वस्तुत: इसके ग्रहण से ही वे पाँचजन्य बन पाते हैं। ये उनमें (नव्यं आयुः) = स्तुत्य जीवन को (दधाना) = धारण करती है। [३] यह वेदवाणी वह है, (याम्) = जिसे (मे) = मेरे लिए (पलस्ति जमदग्नयः) = [पलस्ति= पलित:- दीर्घायुः] दीर्घायुवाले स्वस्थ जीवनवाले व्यक्ति (ददुः) = देते हैं। वस्तुतः उनका दीर्घस्वस्थ जीवन ही उस ज्ञानवाणी का क्रियात्मक उपदेश दे रहा होता है। उनसे ज्ञान को प्राप्त करनेवाले अनुभव करते हैं कि हम भी इस ज्ञानवाणी को अपनाते हुए इनकी तरह ही पलस्ति व जमदग्नि बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान का उपदेश दीर्घायु के स्वस्थ व्यक्तियों से दिया गया प्रभावशाली होता है। इस ज्ञान से हम पञ्चजन बन पाते हैं ।
विषय
वृद्धों की वाणी, और भूमि।
भावार्थ
(यां) जिस वाणी को (मे) मुझे (पलस्तिजमदग्नयः) वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध, आत्माग्नि को प्रज्वलित करने वाले तेजस्वी पुरुष (ददुः) प्रदान करते हैं (सा) वह (पक्ष्या) पक्षों अर्थात् ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों का हित करने वाली, (ससर्परीः) सुख और ज्ञान को प्राप्त कराने वाली, सर्वत्र व्यापक या शिष्य परम्परा से एक से दूसरे को प्राप्त होने वाली, (पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु) पांचों जनों में उत्पन्न मनुष्यादि प्रजाओं में (नव्यम्) नया (आयुः) जीवन (दधाना) धारण कराती हुई, (एभ्यः) इनको (तूयम्) शीघ्र ही (श्रवः) श्रवण योग्य ज्ञान (अधि-अभरत्) धारण कराती है। (२) इसी प्रकार भूमि पांचों प्रकार की प्रजाओं को (श्रवः) अन्न देती और नया जीवन धारण कराती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जी कार्याची सिद्धी व ऐश्वर्य उत्पन्न करणारी आणि आयुष्य वाढविणारी सत्यलक्षणयुक्त स्पष्ट वाणी नवीन विज्ञान व जीवन देते तिला नित्य धारण करा. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That stream of language and knowledge, flowing ever anew from the lord of light, bearing new life and age with fresh energy is the same which the grey-haired veteran scholars of cosmic vitality earlier gave to me, and the stream bears superior kind of food and nourishment for body, mind and soul for the seekers among all the five classes of dynamic people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of enlightened are further stressed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the noble speech that has been given to me by the mature and experienced knowers of the science of energy, is good on all accounts. It gives new life to all human and other beings having five Pranas, bestows happiness me May those old and experienced persons soon endow with good food and fame to these seekers after truth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should always cultivate that noble speech which accomplishes all acts and leads to prosperity. It is a part of life and shines with truth and other virtues, giving new knowledge and life.
Foot Notes
(ससर्परी:) सुखस्य प्रापिका । = Bestowing happiness. (तूयम्) शीघ्रम् । तूयम् इति क्षिप्रनाम (NG 2, 15 ) = Soon, quickly. (श्रवः) अन्नम् । श्रवा इति मनुष्य नाम (NG 2, 7 ) = Food. (कृष्टिषु ) मनुष्यादिप्रजासु । कृष्टय इति मनुष्य नाम (NG 2, 3 ) = Possessing five Pranas (vital airs). (पांचजन्यासु) पञ्चसु दिनेषु प्राणेषु भवासु । = Among the human (and other) beings. (पलस्तिजमद्ग्न्यः) प्रजामिता विदिता अग्नयः पलस्तयो वयोज्ञानवृद्धाश्च जमदग्नयो येस्ते = Old and experienced knowers of the science of fire.
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