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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 21
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॒तिभि॑र्बहु॒लाभि॑र्नो अ॒द्य या॑च्छ्रे॒ष्ठाभि॑र्मघवञ्छूर जिन्व। यो नो॒ द्वेष्ट्यध॑रः॒ सस्प॑दीष्ट॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ प्रा॒णो ज॑हातु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । ब॒हु॒लाभिः॑ । नः॒ । अ॒द्य । या॒त्ऽश्रे॒ष्ठाभिः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । शू॒र॒ । जि॒न्व॒ । यः । नः॒ । द्वेष्टि॑ । अध॑रः । सः । प॒दी॒ष्ट॒ । यम् । ऊँ॒ इति॑ । द्वि॒ष्मः । तम् । ऊँ॒ इति॑ । प्रा॒णः । ज॒हा॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य याच्छ्रेष्ठाभिर्मघवञ्छूर जिन्व। यो नो द्वेष्ट्यधरः सस्पदीष्ट यमु द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। ऊतिऽभिः। बहुलाभिः। नः। अद्य। यात्ऽश्रेष्ठाभिः। मघऽवन्। शूर। जिन्व। यः। नः। द्वेष्टि। अधरः। सः। पदीष्ट। यम्। ऊँ इति। द्विष्मः। तम्। ऊँ इति। प्राणः। जहातु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 21
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! योऽधरो नो द्वेष्टि स दुःखं पदीष्ट यमु वयं द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु। हे मघवन्त्सूर भवान् बहुलाभिः याच्छ्रेष्ठाभिर्नोऽस्मान् अद्य जिन्व ॥२१॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (बहुलाभिः) (नः) अस्मान् (अद्य) (याच्छ्रेष्ठाभिः) शत्रुवधकर्म्मण्युत्तमाभिः (मघवन्) बहुपूजितधनयुक्त (शूर) दुष्टानां हिंसक (जिन्व) प्रसादय (यः) (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरयति (अधरः) नीचः (सः) (पदीष्ट) प्राप्नुयात् (यम्) (उ) (द्विष्म) (तम्) (उ) (प्राणः) (जहातु) त्यजतु ॥२१॥

    भावार्थः

    विदुषां दुष्टकर्मैव द्वेष्यो धर्मात्मा सत्कर्त्तव्यो भवति यावन्ति प्रजारक्षायां दुष्टनिवारणे च साधनान्यपेक्षितानि स्युस्तावन्त्यादाय श्रेष्ठपालनं दुष्टनिवारणं राजादयः सततं कुर्युः ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! (यः) जो (अधरः) नीच (नः) हम लोगों से द्वेष्टि वैर करता है (सः) वह दुःख को (पदीष्ट) प्राप्त होवे (यम्) जिसको (उ) और हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसका (उ) भी (प्राणः) हृदयस्थ वायु (जहातु) त्याग करे। और हे (मघवन्) बहुत श्रेष्ठ धन से युक्त (शूर) दुष्टों के नाशकर्त्ता आप (बहुलाभिः) बहुत (श्रेष्ठाभिः) उत्तम (ऊतिभिः) रक्षा आदिकों से (नः) हम लोगों को (यात्) प्राप्त होवे (अप, जिन्व) प्रसन्न कीजिये ॥२१॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोगों को दुष्ट कर्म करनेवाला पुरुष द्वेष करने योग्य और धर्मात्मा सत्कार करने योग्य है। जितने प्रजा की रक्षा करने और दुष्ट पुरुषों के निवारण करने में साधन अपेक्षित होवें, उनको ग्रहण करके श्रेष्ठ पुरुषों का पालन और दुष्टों का निवारण राजा आदि निरन्तर करें ॥२१॥

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    विषय

    प्रभुरक्षण-प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमें (अद्य) = आज यात् श्रेष्ठाभिः = (यातयति हिनस्ति) शत्रुहिंसन में श्रेष्ठ बहुलाभिः - बहुत ऊतिभिः = रक्षणों से जिन्व = प्रीणित करिए। आपके इन शत्रुनाशक रक्षणों को प्राप्त करके हम प्रसन्नता का अनुभव करें। (२) हे मघवन्- ऐश्वर्यशालिन् ! शूर= शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! यः = जो नः- हमें द्वेष्टि-द्वेष का विषय बनाता है सः वह अधरः पदीष्ट अवनति की ओर जानेवाला हो । उ - और यं द्विष्मः = सारे समाज का अहित करनेवाला होने के कारण जिसको हम प्रीति से नहीं देख पाते, तम् = उसको उ= निश्चय से प्राणः जहातु - प्राण छोड़ जाए। हमारे उन्नति-पथ में वह विघ्न करनेवाला न हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के रक्षणों को प्राप्त करके आगे और आगे बढ़ते जाएँ। हमारे मार्ग में विघ्नभूत लोगों को प्रभु दूर करें ।

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    विषय

    उबलती हांडी के दृष्टान्त से सेना के कर्त्तव्य का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! तू (यात् श्रेष्ठाभिः) शत्रु-हिंसा के कार्य में सबसे उत्तम (बहुलाभिः) बहुतसी (ऊतिभिः) रक्षक सेनाओं से (नः) हमें (जिन्व) विजय कर और प्रसन्न कर। हे (मघवन्) धनैश्वर्यवन् ! हे (शूर) शूरवीर ! (नः) हम से (यः अधरः) जो नीचे रहकर (द्वेष्टि) द्वेष करता है (सः पदीष्ट) वह अच्छी प्रकार नीचे गिरे। और (यम् उ) जिससे हम (द्विष्मः) द्वेष करें तम् उ) उसको (प्राणः) प्राण (जहातु) व्याग दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी दुष्ट कर्म करणाऱ्या पुरुषाचा द्वेष व धर्मात्मा श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करावा. प्रजेचे रक्षण व दुष्ट पुरुषांचे निवारण करण्यासाठी जी साधने अपेक्षित आहेत त्यांना ग्रहण करून श्रेष्ठ पुरुषांचे पालन व दुष्टांचे निवारण राजा वगैरेनी करावे. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, potent lord of honour and prosperity, come to us today with ample modes of best and highest modes of protection and give us the joy of life. Whosoever hate us may, we pray, fall down, and whatsoever we all hate, that, we pray, may the breath of life forsake.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of State officials are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Possessor of abundant wealth) may the vile wretch who hates us fall before us. May ! the breath of life depart from him whom we (all good men) hate on account of his malevolence. Protect us this day against our foes, with many and excellent defenses. O brave and Opulous King !

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the enlightened person, to hate only a man of wicked nature and to honor a righteous person. The king and other officers of the State should adopt all means which protect good people and remove the wicked.

    Foot Notes

    (याच्छ्रष्टाभिः) शत्रुबधकर्मण्युत्तमाभि: = Efficient destroying the enemies. (अधर:) नीचः = Mean. (पदीष्ट ) प्राप्नुयात् = Obtain.

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