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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ त्व१॒॑द्य स॑ब॒र्दुघां॑ हु॒वे गा॑य॒त्रवे॑पसम् । इन्द्रं॑ धे॒नुं सु॒दुघा॒मन्या॒मिष॑मु॒रुधा॑रामरं॒कृत॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तु । अ॒द्य । स॒बः॒ऽदुघा॑म् । हु॒वे । गा॒य॒त्रऽवे॑पसम् । इन्द्र॑म् । धे॒नुम् । सु॒ऽदुघा॑म् । अन्या॑म् । इष॑म् । उ॒रुऽधा॑राम् । अ॒र॒म्ऽकृत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्व१द्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् । इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तु । अद्य । सबःऽदुघाम् । हुवे । गायत्रऽवेपसम् । इन्द्रम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । अन्याम् । इषम् । उरुऽधाराम् । अरम्ऽकृतम् ॥ ८.१.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मा धेनुरूपेण वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अद्य) इदानीं (सबर्दुघां) इष्टफलपूरयित्रीं (गायत्रवेपसं) प्रशस्यकर्माणं (सुदुघां) सुष्ठुफलदां (इषं) एष्टव्यां (उरुधारां) बहुविधपदार्थधरां (अरंकृतं) अलंकर्त्रीं (अन्यां, धेनुं) अस्याः धेनोः भिन्नां धेनुं=“धेनुमिव” (इन्द्रं) परमात्मानं (तु) क्षिप्रं (आहुवे) आह्वयामि ॥१०॥

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    विषयः

    इन्द्ररूपां धेनुं वृष्टिञ्चानया ऋचा स्तौति ।

    पदार्थः

    अहमुपासकः । अद्य=अस्मिन्काले । तु । इन्द्रं=परमात्मरूपाम् । धेनुं=गाम् । अन्तःकरणेन आहुवे=आह्वयामि । कीदृशीं धेनुम् । सबर्दुघाम्=सबरः दुग्धस्य दोग्र्धीं=मधुरद्रव्यप्रदात्रीम् । सबरिति पयसो नामेति सम्प्रदायविदः । सबः पयो दोग्धीति सबर्दुघा । पुनः गायत्रवेपसं=गायत्रं गानीयं वेपो वेगो यस्यास्ताम् । भक्तानां गानं श्रुत्वा यो ह्याशुतरं तानुपगच्छति । पुनः सुदुघां=सुखेन दोग्धुं शक्यां सुप्रसादनीयामित्यर्थः । तथा च अन्यामितरामुक्तविलक्षणाम् । उरुधारां=बहुधाराम् । इषं=वाञ्छनीयां वृष्टिं परमात्मरूपां वृष्टिम् । अरंकृतम्=अलङ्कृतं सुभूषितं पर्याप्तकारिणं च । इन्द्रम् आह्वये ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा को धेनुरूप वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (अद्य) इस समय (सबर्दुघां) इष्टफल को पूर्ण करनेवाली (गायत्रवेपसं) प्रशंसनीय क्रियावाली (सुदुघां) शोभनफल देनेवाली (इषं) वाञ्छनीय (उरुधारां) अनेक पदार्थों को धारण करनेवाली (अरंकृतं) अलंकृत करनेवाली (अन्यां, धेनुं) लौकिक धेनु से विलक्षण धेनु (इन्द्रं) परमात्मा को (तु) शीघ्र (आहुवे) आह्वान करता हूँ ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को “धेनु” कथन किया है, जिसके अर्थ गौ तथा वाणी आदि हैं पर वे गौण हैं। “धेनु” शब्द का मुख्यार्थ ईश्वर में ही घटता है, क्योंकि “धीयते इति धेनुः”=जो पिया जाय, उसका नाम “धेनु” है और उसका साक्षात्कार करना ही पिया जाना है, इसलिये यहाँ प्रकरण से ईश्वर को कामधेनुरूप से वर्णन किया गया है, क्योंकि कामनाओं का पूर्ण करनेवाला परमात्मा ही है। वह कामधेनुरूप परमात्मा हमको प्राप्त होकर हमारे इष्टफल को पूर्ण करे ॥१०॥

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    विषय

    इन्द्ररूपा धेनु और वृष्टि की स्तुति इस ऋचा से करते हैं ।

    पदार्थ

    इस लोक में धेनुओं और वृष्टियों से प्रजाओं को बहुत लाभ पहुँचते रहते हैं, इसलिये इनकी आकाङ्क्षा भी लोग सदा किया करते हैं । किन्तु ईश्वर इन गौवों और वृष्टियों से अधिक लाभकारी, मधुर वस्तुप्रदाता और विविध कन्द फूल मूलादिकों का वर्षाकारी है, तब उसकी सेवा क्यों न करते, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं । यथा−मैं उपासक (अद्य+तु) आज (इन्द्रम्) इन्द्रस्वरूपा (धेनुम्) धेनु को अन्तःकरण से (आ+ह्वये) बुलाता हूँ । वह धेनु कैसी है (सबर्दुघाम्) सुमधुर दुग्ध देनेवाली पुनः (गायत्रवेपसम्) प्रशंसनीय वेगवाली (सुदुघाम्) सुखपूर्वक दुहानेवाली । ऐसी इन्द्ररूपा धेनु की मैं जैसे सेवा करता हूँ, वैसे ही सब किया करें । पुनः इन्द्ररूपा (अन्याम्) धेनु से अन्य (उरुधाराम्) बहुधारायुक्त (इषम्) वाञ्छनीय वृष्टि की भी स्तुति करता हूँ । पुनः जो इन्द्र (अरंकृतम्) बहुत-२ कार्य करनेवाला है ॥१० ॥

    भावार्थ

    ईश्वर सर्वश्रेष्ठा और सर्वशान्तिप्रदाता धेनु और वृष्टि है । हे मनुष्यो ! उसको सेवो । देखो, इस पृथिवी पर कितने सुमधुर फूल, मूल, कन्द और ओषधि उसने बनाए हैं, जो कभी न्यून नहीं होते । जिस भक्ति से दोग्ध्री गौ की सेवा करते हो, उसी प्रेम से परमात्मा का भी भजन करो । वह धेनुवत् दूधों से और मेघवत् आनन्दवृष्टि से तुमको सदा पोसेगा, यह उपदेश इससे देते हैं ॥१० ॥

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    विषय

    प्रभु की दुधार गौ से तुलना।

    भावार्थ

    ( सु-दुधां धेनुम् ) सुख से दोहन करने योग्य गौ जिस प्रकार ( उरु-धारां ) बहुत दूध की धारा वाली, ( सबर्दुघाम् ) उत्तम गोरस देने वाली होती है उसी प्रकार मैं (इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु को भी ( धेनुम् ) गौ के समान (सु-दुधाम् ) सुख आनन्द रस को देने वाली, ( अन्याम् ) अन्य, इन लौकिक गौओं से सर्वथा भिन्न, ( इषम् ) सदैव इच्छा करने योग्य, उत्तम मार्ग में प्रेरणा करने वाली, ( उरु-धाराम् ) बहुत से लोकों को धारण करने में समर्थ, बहुत सी वेदवाणियों को देने वाली, नाना सुखधारा को मेघवत् वर्षाने वाली, ( अरंकृतम् ) प्रचुर अन्न सुखादि उत्पन्न करने वाली, ( गायत्र-वेपसम् ) गान करने वालों का आवेश और प्रेमोद्रेकों से कंपा देने, गद् गद कर देने वाली और ( सबर्दुघाम् ) मधुर दुग्धवत् परमानन्द एवं 'स्वः' परम सुख दोहन करने वाली, ( आ हुवे ) जानकर (अद्य आ) तुझे स्वीकार करता हूं और उसी रूप से तुझ से प्रार्थना करता हूं। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेद-धेनु की प्रभु से याचना

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली (त्वा) = तेरे से (अद्य) = आज (धेनुम्) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेद-धेनु को (आहुवे) = पुकारता हूँ, वेद-धेनु के लिये याचना करता हूँ। आप मुझे इस वेद-धेनु को प्राप्त कराइये, जो (सबर्दुघाम्) = ज्ञानदुग्ध का हमारे में पूरण करनेवाली है। (गायत्रवेपसम्) = स्तुति को हमारे अन्दर प्रक्षिप्त करनेवाली है, अर्थात् स्तुति को हमारे में प्रेरित करनेवाली है इस वेदवाणी के स्वाध्याय से हम स्तुति की वृत्तिवाले बनेंगे। [२] उस वेद-धेनु को हमें प्राप्त कराइये, जो (सुदुघाम्) = सुख संदोह्य है, अध्यमन के द्वारा आराम से समझने योग्य है 'वेदेन वेदः ज्ञातव्यः । (अन्याम्) = विलक्षण है, अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों जैसी नहीं है। (इषम्) = उत्तम कर्मों की प्रेरणा देनेवाली है और (उरु धाराम्) = विशाल ज्ञानदुग्ध की धाराओंवाली है। (अरंकृतम्) = जीवन को अलंकृत करनेवाली है, अथवा (अरम्) = पर्याप्त भोगों को (कृताम्) = करनेवाली है 'आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्' आदि सातों रत्नों को देनेवाली है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हम वेद-धेनु को प्राप्त करें, उसके ज्ञानदुग्ध से अपना उचित पोषण करनेवाले हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Today I invoke Indra, I invoke the motherly spirit of the universe, giver of total fulfilment of the heart’s desire, pleased and stirred by the chant of Gayatri songs of adoration, omnipotent and omnificent, generous as Mother Nature, giver of ample gifts beyond the earth and the earthly cow, harbinger of showers of the cherished nectar milk of life, all blissful and gracious.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराला ‘धेनु’ म्हटलेले आहे. ज्याचा अर्थ गाय अथवा वाणी इत्यादी आहे; परंतु ते गौण आहेत. ‘धेनु’ शब्दाचा मुख्यार्थ ईश्वर आहे. कारण ‘धीयते इति धेनु’ जे प्यायले जाते त्याचे नाव ‘धेनु’ आहे व त्याचा साक्षात्कारच पिणे होय. त्यासाठी येथे प्रकरणानुसार ईश्वराला कामधेनु म्हटलेले आहे. कारण कामना पूर्ण करणारा परमात्माच आहे. तो कामधेनुरूप परमात्मा आम्हाला प्राप्त होऊन आम्ही आपले इष्टफळ प्राप्त करावे. ॥१०॥

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