ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीबृहती
स्वरः - मध्यमः
ये ते॒ सन्ति॑ दश॒ग्विन॑: श॒तिनो॒ ये स॑ह॒स्रिण॑: । अश्वा॑सो॒ ये ते॒ वृष॑णो रघु॒द्रुव॒स्तेभि॑र्न॒स्तूय॒मा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । सन्ति॑ । द॒श॒ऽग्विनः॑ । श॒तिनः॑ । ये । स॒ह॒स्रिणः॑ । अश्वा॑सः । ये । ते॒ । वृष॑णः । र॒घु॒ऽद्रुवः॑ । तेभिः॑ । नः॒ । तूय॑म् । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते सन्ति दशग्विन: शतिनो ये सहस्रिण: । अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठये । ते । सन्ति । दशऽग्विनः । शतिनः । ये । सहस्रिणः । अश्वासः । ये । ते । वृषणः । रघुऽद्रुवः । तेभिः । नः । तूयम् । आ । गहि ॥ ८.१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मनोऽनन्तशक्तिमत्वं कथ्यते।
पदार्थः
(ये, ते) ये तव (दशग्विनः) दशसु दिशासु गन्तुं शक्ताः (शतिनः) शतसंख्याकाः अथ च (सहस्रिणः) सहस्रसंख्याकाः (ये, ते) ये च तव (वृषणः) कामानां वर्षयितारः (रघुद्रुवः) क्षिप्रगतयः (अश्वासः) व्यापकशक्तयः (सन्ति) विद्यन्ते (तेभिः) ताभिः (नः) अस्मानभि (तूयं) तूर्यं (आगहि) आगच्छ ॥९॥
विषयः
भगवतो महदैश्वर्य्यमुपस्तोतुमुपक्रमते ।
पदार्थः
अश्न्वते=बहुदेशं व्याप्नुवन्ति ये ते अश्वाः पृथिव्यादिलोकाः । यः कश्चिल्लोको दशगुणिताभिर्गतिभिर्युक्त्तोऽस्ति स दशग्वी=दशभिर्लोकैः सह गच्छतीति दशग्वी । यः शतगुणितगतिभिर्युक्त्तः स शती । यः सहस्रगतिभिर्युक्तः स सहस्री=यं पारतो लघीयांसो विविधा उपग्रहा घूर्णन्ति । यो वर्षति सिञ्चति स वृषा लोकः । यो रघुद्रूः=लघु शीघ्रं द्रवति गच्छति स रघुद्रूः । अथ ऋगर्थः−हे इन्द्राभिधेय परमात्मन् ! ये ते=तव । अश्वाः=व्यापनशीला लोका दृशग्विनः सन्ति । ये शतिनः सन्ति । ये सहस्रिणः सन्ति । ये वृषणः=सेचनसमर्था लोकाः सन्ति । ये रघुद्रुवः=शीघ्रगामिनश्च सन्ति । तेभिः=तैर्महद्भिरैश्वर्य्योपेतैर्लोकैर्युक्तस्त्वं वर्तसे । ईदृशस्त्वम् । अतः नोऽस्मान् । तूयं=शीघ्रम् । आगहि=आगच्छ रक्षार्थम् ॥९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा को अनन्तशक्तिशाली कथन करते हैं।
पदार्थ
(ये, ते) जो आपकी (दशग्विनः) दशों दिशाओं में व्यापक (शतिनः) सैकड़ों (सहस्रिणः) सहस्रों (ते) आपकी (ये) जो (वृषणः) सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली (रघुद्रुवः) क्षिप्रगतिवाली (अश्वासः) व्यापकशक्तियें (सन्ति) हैं (तेभिः) उन शक्तियों द्वारा (तूयं) शीघ्र (नः) हमको (आगहि) प्राप्त हों ॥९॥
भावार्थ
उस सर्वव्यापक परमात्मा की इतनी विस्तृत शक्तियाँ हैं कि उनको पूर्णतया जानना मनुष्यशक्ति से सर्वथा बाहर है, इसी अभिप्राय से मन्त्र में “सहस्रिणः” पद से उनको अनन्त कथन किया है, क्योंकि “सहस्र” शब्द यहाँ असंख्यात के अर्थ में है, इसी प्रकार अन्यत्र पुरुषसूक्त में भी “सहस्रशीर्षा पुरुषः” इत्यादि मन्त्रों में उसका महत्त्व वर्णन किया गया है, वह महत्त्वशाली परमात्मा अपनी कृपा से हमारे समीपस्थ हों, ताकि हम उनके गुणगान करते हुए पूर्ण श्रद्धावाले हों ॥९॥
विषय
भगवान् के महान् ऐश्वर्य्य की स्तुति दिखलाने के हेतु यह अग्रिम आरम्भ है ।
पदार्थ
(ये) जो (ते) वे तेरे अतिदूरस्थ (दशग्विनः) दशगुणित गतियों से युक्त (अश्वाः१) लोक (सन्ति) हैं (शतिनः) शतगुणित गतियों से युक्त लोक हैं (ये सहस्रिणः) जो वे सहस्रगुणित गतियों से युक्त लोक हैं (ये+ते+वृषणः) जो जलयुक्त लोक हैं और जो (रघुद्रुवः) अतिशीघ्रगामी लोक हैं (तेभिः) उन सब प्रकार के लोकों से हे इन्द्र ! तू युक्त है । अतः (नः) हम लोगों के निकट (तूयम्) शीघ्र (आगहि) रक्षा के लिये आजा ॥९ ॥
भावार्थ
ईश्वर की विभूतियाँ सर्वदा अध्येतव्य हैं । किस आधार पर सूर्य्य स्थित है । पृथिवी का आधार क्या है । रात्रि में जो असंख्य नक्षत्र भासित होते हैं, उनकी क्या अवस्था है । इस प्रकार की ईश्वरीय वस्तु सदा जिज्ञासितव्य है और तत्त्ववित् पुरुषों के द्वारा वेदितव्य है ॥९ ॥
टिप्पणी
१−अश्वासः=अश्व−लोक में पशुवाचक अश्व (घोड़ा) शब्द प्रसिद्ध है, परन्तु वेदों में यह अनेकार्थ है । यहाँ पृथिव्यादि लोकवाची है । जो बहुत देशव्यापी हो, उसे अश्व कहते हैं । क्योंकि अश धातु का अर्थ व्याप्ति है, जिससे यह शब्द बना है । यहाँ वर्णन इस बात का है कि इस लोक में पृथिवी के छोटे-२ टुकड़ों के अधिकारी भी राजा महाराज कहलाते हैं और उनसे प्रीति रखनेवाले भी सुखी देख पड़ते हैं । परन्तु परमात्मा अनन्त संसारों का अधीश्वर है, अतः यदि उससे प्रीति की जाय तो सेवक सदा सुखी रहेगा । अतः कहा जाता है कि इन्द्र सर्व लोक-लोकान्तरों से युक्त है, अतः उसी से हम प्रेम करें । इसी विषय को वक्ष्यमाण पदों से दिखलाते हैं । दशग्वी−मुख्य और गौण भेद से तीन प्रकार के पृथिव्यादि लोक हैं । जैसे सूर्य्य एक मुख्य लोक है । वह अनेक उपग्रहों और ग्रहों से युक्त है । पृथिवी बृहस्पति आदि उसके अनेक उपग्रह हैं । पृथिवी का भी उपग्रह चन्द्र है और कोई अकेला ही आकाश में भ्रमण कर रहा है । इस प्रकार अनन्त-२ सृष्टियाँ हैं, जिनका वर्णन सर्वथा शब्दद्वारा असंभव है, तथापि मानवजाति के ज्ञानविवृद्ध्यर्थ संक्षेप से वर्णन करते हैं । दशग्वी=कोई भुवन दशग्रहों उपग्रहों से युक्त है, उसे दशग्वी कहते हैं । किन्हीं में दशगुणित अधिक गति है । कोई दशगुण कार्य कर रहे हैं, वे दशग्वी । इसी प्रकार शतिनः=शतग्रह उपग्रह से युक्त । शतगुणित कार्य्य करनेवाले । सहस्रिणः=सहस्रगुण कार्य करनेवाले, यथा सहस्रों ग्रहों से युक्त । वृषणः=वर्षा करनेवाले । अथवा वर्षायुक्त लोक । बहुत से लोक ऐसे हैं, जिन में कभी वर्षा नहीं होती । वहाँ जीव भी प्रायः नहीं हैं और बहुत से पृथिवी आदि लोक जलयुक्त हैं । रघुद्रुवः=शीघ्रगामी । बहुत से लोक मन्दगामी और स्थिर प्रतीत होते हैं ॥९ ॥
विषय
वीर सेनापति से तुलना।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! सेनापते ! ( ते ) तेरे ( ये ) जो ( दशग्विनः ) दश गतियों से जाने वाले, या दश गौओं या, भूमियों या भटों के स्वामी, ( शतिनः ) सौ ग्रामों, या सौ भटों पर के नायक ( सहस्रिणः ) हजार भूमियों, या भटों के स्वामी, अथवा ( शतिनः ) सौ संख्या वेतन और ( सहस्रिणः ) सहस्र संख्या वेतन वाले ( अश्वासः ) अश्वारोही वीर पुरुष हैं और ( ये ) जो ( ते ) तेरे ( वृषण: ) बलवान् ( रघुवः ) अति वेग से जाने वाले हैं ( तेभिः ) उन सब के साथ ( नः ) हमें ( तूयम् ) शीघ्र ( आ गहि ) प्राप्त हो । ( २ ) परमेश्वर के पक्ष में—दशों इन्द्रियों के स्वामी, 'दशग्वी' शतवर्षजीवी 'शती' और सहस्रों के पति 'सहस्त्री' विद्वान् बलवान् के द्वारा उन के उपदेशों से तू हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
कौन से इन्द्रयाश्व ?
पदार्थ
[१] (ये) = जो (ते) = तेरे (अश्वासः) = इन्द्रियाश्व (दशग्विनः सन्ति) = दश लक्षणक धर्म में चलनेवाले हैं [धृतिः क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्] । (शतिनः) = सौ वर्ष तक स्थिर रहनेवाले हैं। ये (सहस्त्रिणः) = जो [स+हस्] आनन्दमय प्रभु की और हमें ले जानेवाले हैं (तेभिः) = उन इन्द्रियाश्वों के साथ नः = हमें (तूयम्) = शीघ्र ही (अगहि) = [आगच्छ ] प्राप्त होइये। [२] उन इन्द्रियाश्वों के साथ हमें प्राप्त होइये, (ये) = जो (ते) = आपके इन्द्रियाश्व (वृषणः) = शक्तिशाली है और (रघुद्रुवः) = तीव्र गतिवाले हैं, शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करायें जो दश लक्षणधर्म में प्रवृत्त हों, सौ वर्ष तक चलें, ब्रह्म को प्राप्त करायें, शक्तिशाली हों व शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, breaker of the citadels of darkness and ignorance to light, come post haste to us with all those lightning powers and forces of yours which are vigorous and generous, radiating into all the ten directions in a hundred and a thousand ways.
मराठी (1)
भावार्थ
त्या सर्वव्यापक परमेश्वराच्या इतक्या विस्तृत शक्ती आहेत, की त्या पूर्णपणे जाणणे मनुष्याद्वारे सर्वस्वी अशक्य आहे. याच उद्देशाने मंत्रात ‘सहस्रिण:’ पदाने अनन्त असे कथन केलेले आहे. कारण ‘सहस’ शब्द येथे असंख्य या अर्थाने आलेला आहे. याच प्रकारे इतरत्र पुरुषसूक्तात ही ‘सहस्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादी मंत्रात त्याचे महत्त्व सांगितलेले आहे. त्या महान परमेश्वराने आमच्यावर कृपा करावी व आमच्या जवळ असावे, त्यामुळे आम्ही त्याचे गुणगान करून पूर्ण श्रद्धायुक्त बनावे. ॥९॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal