Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीबृहती स्वरः - मध्यमः

    य ऋ॒ते चि॑दभि॒श्रिष॑: पु॒रा ज॒त्रुभ्य॑ आ॒तृद॑: । संधा॑ता सं॒धिं म॒घवा॑ पुरू॒वसु॒रिष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ऋ॒ते । चि॒त् । अ॒भि॒ऽश्रिषः॑ । पु॒रा । ज॒त्रुऽभ्यः॑ । आ॒ऽतृदः॑ । सम्ऽधा॑ता । स॒न्धि॑म् । म॒घऽवा॑ । पु॒रु॒ऽवसुः॑ । इष्क॑र्ता । विऽह्रु॑तम् । पुन॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ऋते चिदभिश्रिष: पुरा जत्रुभ्य आतृद: । संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ऋते । चित् । अभिऽश्रिषः । पुरा । जत्रुऽभ्यः । आऽतृदः । सम्ऽधाता । सन्धिम् । मघऽवा । पुरुऽवसुः । इष्कर्ता । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥ ८.१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मैव सर्वदुःखानां निवर्तक इति कथ्यते।

    पदार्थः

    (यः) यः परमात्मा (अभिश्रिषः) अभिश्लेषणात् सेनयोः (ऋते, चित्) विनैव (जत्रुभ्यः) स्कन्धसन्धिभ्यः सकाशात् “उपलक्षणमेतत् शरीरावयवानां सर्वेषां” (आतृदः) पीडोत्पादनात् (पुरा) पूर्वमेव (सन्धिं) सन्धानं (सन्धाता) कर्ताऽस्ति स एव (मघवा) ऐश्वर्य्यवान् (पुरुवसुः) बहुविधधनवान् परमात्मा (पुनः) पुनरपि (विह्रुतं) कथंचित् विच्छिन्नशरीरं (इष्कर्ता) संस्कर्तास्ति, ताच्छील्ये तृन् ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    सर्वावस्थासु परमात्मा रक्षकोऽस्तीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    य इन्द्रः । विह्रुतं=पूर्वसम्बन्धिभिर्वियुक्तं तमात्मानम् । तस्यात्मनः । पुनः पुनरपि इष्कर्त्ता=संस्कर्ता भवति । स कथंभूतः । सन्धिं संधाता=सन्धेः संधाता सम्यग् विधाता । पुनः मघवा=धनवान् । पुनः पुरूवसुः=बहुधनः । कदा संस्कर्त्ता भवतीत्यपेक्षायाम् । जत्रुभ्यः=ग्रीवाभ्यः=आग्रीवाभ्यः । आतृदः=हिंसितात् । पुरा=पूर्वमेव । जत्रुशब्द उपलक्षकः । शरीरस्य क्लेशे पतनात् पूर्वमेव स तं रक्षतीत्यर्थः । तेनोपकारेण किं परमात्मा किमपि अपेक्षते नवेति शङ्कायामाह=अभिश्रिषश्चिद् ऋते । पारितोषिकं च विना । अभिश्लिष्यत इत्यभिश्लिट् पारितोषिकम् । वेदे रलयोः समानसंज्ञा । क्वचिद् रस्य लः । क्वचिद् लस्य रः । यद्वा अभिश्रिषोऽभिश्लिषोऽभिश्लेषणात् सन्धानद्रव्याद्विना । औषधैर्विनाऽपि रुग्णस्य विच्छिन्नमवयवं संदधातीत्यर्थः ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा को ही सब दुःखों की निवृत्ति करनेवाला कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (अभिश्रिषः) दोनों सेनाओं के अभिश्लेष (ऋते, चित्) विना ही (जत्रुभ्यः) स्कन्धसन्धि से (आतृदः) पीड़ा उत्पन्न होने के (पुरा) पूर्व ही (सन्धिं) सन्धि को (सन्धाता) करता है और जो (मघवा) ऐश्वर्य्यशाली तथा (पुरुवसुः) अनेकविध धनवाला परमात्मा (पुनः) फिर भी (विह्रुतं) किसी प्रकार से विच्छिन्न हुए शरीर को (इष्कर्त्ता) संस्कृत=नीरोग करता है ॥१२॥

    भावार्थ

    मन्त्र में “जत्रु” शब्द सब शरीरावयव का उपलक्षण है अर्थात् शरीर में रोग तथा अन्य विपत्तिरूप आघातों के आने से प्रथम ही परमात्मा उनका संधाता और वही आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीनों प्रकार के दुःखों की निवृत्ति करनेवाला है, इसलिये सबको उचित है कि उसी की आज्ञापालन तथा उसी की उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्व अवस्था में परमात्मा रक्षक है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (यः) जो इन्द्र (मघवा) प्रशस्त धनवान् और (पुरुवसुः) बहुधनवान् है । पुनः जो (सन्धिम्) संमेलन को (संधाता) अच्छे प्रकार करनेवाला है । वह (विह्रुतम्) पूर्व सम्बन्धियों से वियुक्त आत्मा को (पुनः) फिर भी (इष्कर्त्ता) मिलानेवाला अथवा संस्कारक होता है । क्या वह किसी फल की आकाङ्क्षा करता है । इस पर कहते हैं−(अभिश्रिषः) पारितोषिक (चित्) के (ऋते) विना ही वह आत्मा का उपकार करता है । कब करता है इसकी अपेक्षा में कहते हैं (जत्रुभ्यः) ग्रीवा पर्यन्त (आतृदः) हिंसित होने से (पुरा) पूर्व ही अर्थात् शरीर के दुःख में पतित होने के पूर्व ही वह रक्षा करता है, ऐसा वह महादयालु परमात्मा है । इसी की उपासना करो । यद्वा (अभिश्रिषः+चित्+ऋते) भौतिक औषध आदि द्रव्यों के विना ही वह रोगी के टूटे अवयव को जोड़नेवाला है । इसको भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा नहीं ॥१२ ॥

    भावार्थ

    निष्प्रयोजन ही वह ईश्वर सदा जीव का कल्याण करता है । हे मनुष्यो ! ईदृश करुणालय को छोड़कर कहाँ घूम रहे हो । धन की आकाङ्क्षा से भी वही सेवनीय है, क्योंकि वह सर्व धनों का राजा है । वही सर्व भुवनों का अधिपति है ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अद्भुत कारीगर प्रभु ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो (पुरा ) पहले भी ( अभिश्रिषः ऋते ) विना सरेस या जोड़ने वाले कील आदि पदार्थों के विना ( चित् ) भी ( जत्रुभ्यः ) हंसलियों तक के ( आतृदः ) पृथक् २ मोहरों को ( संधाता ) अच्छी प्रकार जोड़ता है, और जो ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् प्रभु वा आत्मा ( पुरुवसुः ) बहुत से लोकों और जनों में बसा, ( विह्रुतं सन्धिं ) विपरीत रूप से मुड़े या विच्छिन्न सन्धि को भी ( पुन: इष्कर्त्ता ) फिर ठीक लगा देने वाला है वही ईश्वर, इन्द्र वा जीवात्मा है । शरीर की पृथक २ हड्डियों को विना चेप या कील के जोड़े रखता और टूटी या मोच खाई हुई सन्धियों को फिर चंगा कर देता है यही ईश्वरीय कारीगरी जीव के अद्भुत कौशल का नमूना है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्राकृतिक चमत्कार

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (अभिश्रिषः) = सन्धान द्रव्य के (ऋते चित्) = बिना ही, (जत्रुभ्यः आतृदः पुरा) = ग्रीवास्थिवाले स्थान से कट जाने से पूर्व (सन्धिं सन्धाता) = जोड़ को फिर से मिला देनेवाले हैं, वे प्रभु (मघवा) = सचमुच परमैश्वर्यवाले हैं। प्रभु ने शरीर की व्यवस्था ही इस प्रकार से की है कि सब घाव फिर से भर जाते हैं, गर्दन ही कट जाये तो बात और है अन्यथा सब कटाव फिर से जुड़ जाते हैं। [२] (पुरूवसुः) = वे पालक व पूरक वसुओंवाले प्रभु (विह्रुतम्) = कटे हुए को (पुनः) = फिर से इष्कर्ता ठीक कर देते हैं। सब कटावों को प्रभु फिर से भर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- शरीर की इस रचना में क्या ही प्रभु का चमत्कार है कि बड़े से बड़ा घाव भी फिर से भर जाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra is that vibrant immanent lord of unbounded natural health and assertive life energy who, without piercing and without ligatures, provides for the original jointure of the series of separate vertebrae and collar bones and then, later, heals and sets the same back into healthy order if they get dislocated or fractured.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    मंत्रात ‘जत्रु’ शब्द सर्व शरीरावयवाचे उपलक्षण आहे. अर्थात् शरीरात रोग व इतर विपत्तीरूपी आघात झाल्यास परमात्मा त्यांचा संधाता आहे व तोच आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तिन्ही प्रकारच्या दु:खांची निवृत्ती करणारा आहे. त्यासाठी सर्वांनी त्याचेच आज्ञापालन करावे व त्याच्याच उपासनेत प्रवृत्त व्हावे, हे योग्य आहे. ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top