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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीबृहती स्वरः - मध्यमः

    मा त्वा॒ सोम॑स्य॒ गल्द॑या॒ सदा॒ याच॑न्न॒हं गि॒रा । भूर्णिं॑ मृ॒गं न सव॑नेषु चुक्रुधं॒ क ईशा॑नं॒ न या॑चिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । सोम॑स्य । गल्द॑या । सदा॑ । याच॑न् । अ॒हम् । गि॒रा । भूर्णि॑म् । मृ॒गम् । न । सव॑नेषु । चु॒क्रु॒ध॒म् । कः । ईशा॑नम् । न । या॒चि॒ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा । भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । सोमस्य । गल्दया । सदा । याचन् । अहम् । गिरा । भूर्णिम् । मृगम् । न । सवनेषु । चुक्रुधम् । कः । ईशानम् । न । याचिषत् ॥ ८.१.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ उपदेशकाः परमात्मानं प्रेम्णा उपदिशेयुरिति कथ्यते।

    पदार्थः

    उपदेशक उपासकं प्रत्याह−(गिरा) वाचा (सदा) शश्वत् (याचन्) सोमं प्रार्थयन् (अहं) अहम् (सोमस्य, गल्दया) परमात्मसम्बन्धिवाण्या त्वया पृच्छ्यमानया (त्वा) त्वा प्रति (सवनेषु) यज्ञेषु (मा)(चुक्रुधं) क्रुद्धो भवेयं यतः (भूर्णिं) भर्त्तारं (मृगं, न) सिंहमिव (ईशानं) ईशितारं परमात्मानं (कः) को जनः (न, याचिषत्) न याचेत सर्व एव याचेतेत्यर्थः ॥२०॥

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    विषयः

    भक्तेन भूयो भूयो याच्यमानोऽपि परमात्मा न कदापि कुप्यतीत्यनया प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! सवनेषु=सर्वेषु शुभेषु कर्मसु । सोमस्य=शुभकर्मणः । गल्दया=बलेन । तथा गिरा=स्तुतिलक्षणया वाण्या च द्वारया । अहम् । सदा=सर्वदा । त्वा=त्वाम् । याचन्=अभीष्टं मनोरथं प्रार्थयमानः सन् । मा चुक्रुधं=मा क्रोधयानि=मा कोपयानि । बहुशो याच्यमानस्त्वं मा क्रुद्धो भूः । कीदृशं त्वाम् । भूर्णिं=सर्वेषां भर्तारम् । पुनः । मृगन्न=मृगो मार्गणीयः अन्वेषणीयः । अन्वेषणीयञ्च । चार्थो नकारः । यतस्त्वमेव सर्वेषां भक्तानां भर्त्ता तथा अन्वेषणीयश्च वर्त्तसे । अतस्वमेव भूयोभूयः प्रार्थ्यसे । अत्र लौकिकं न्यायं प्रदर्शयति । कः=कः पुरुषः । ईशानम्=ईश्वरं=स्वामिनम् । न । याचिषत्=याचते । सर्वो हि स्वामिनं याचत इत्यर्थः ॥२० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उपदेशकों को परमात्मा का प्रेमसहित उपदेश करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (गिरा) स्तुतियुक्त वाणी द्वारा (सदा) सदैव (याचन्) परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना करते हुए (सवनेषु) यज्ञों में (सोमस्य, गल्दया) परमात्मसम्बन्धी वाणी पूछने पर (त्वा) तुम पर (चुक्रुधं, मा) क्रोध मत करें, क्योंकि (भूर्णिं) सबका भरण-पोषण करनेवाले (मृगं, न) सिंहसमान (ईशानं) ईशन करनेवाले परमात्मा की (कः) कौन मनुष्य (न, याचिषत्) याचना न करेगा अर्थात् सभी पुरुष उसकी याचना करते हैं ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपदेशक उपासकों के प्रति यह उपदेश करता है कि हे उपासको ! तुम लोग सदैव यज्ञादिकर्मों में प्रवृत्त रहो और परमात्मा की वेदरूप वाणी, जो मनुष्यमात्र के लिये कल्याणकारक है, उसमें सन्देह होने पर क्रोध न करते हुए प्रतिपक्षी को यथार्थ उत्तर दो और सबका पालन-पोषण तथा रक्षण करनेवाले परमपिता परमात्मा से ही सब कामनाओं की याचना करो। वही सबके लिये इष्टफलों का प्रदाता है। यद्यपि परमात्मा सम्पूर्ण कर्मों का फलप्रदाता है और विना कर्म किये हुए कोई भी इष्टसिद्धि को प्राप्त नहीं होता, तथापि मनुष्य अपनी न्यूनता पूर्ण करने के लिये अपने से उच्च की अभिलाषा स्वाभाविक रखता है और सर्वोपरि उच्च एकमात्र परमात्मा है, इसलिये अपनी न्यूनता पूर्ण करने के लिये उसी सर्वोपरि देव से सबको याचना करनी चाहिये ॥२०॥

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    विषय

    भक्तजन से वारंवार याच्यमान होने पर परमात्मा कदापि क्रुद्ध नहीं होता, यह इस ऋचा द्वारा दिखलाया जाता है ।

    पदार्थ

    (सवनेषु) सकल शुभकर्मों में (सोमस्य) मानसिक प्रिय कर्म के (गल्दया) बल से तथा (गिरा) स्तुतिरूप वाणी से (सदा) सदा (याचन्) याचना करता हुआ (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (मा+चुक्रुधम्) क्रुद्ध न करूँ । क्योंकि वारंवार याचना करने से लोक क्रुद्ध हो जाते हैं । परन्तु हे इन्द्र ! तू वैसा मत हो । क्योंकि तू (भूर्णिम्) सबका भरण-पोषण करनेवाला स्वामी है (न) और (मृगम्) तू ही मार्गणीय=जिज्ञास्य है । यहाँ लौकिक न्याय दिखलाते हैं । (कः) कौन पुरुष (ईशानम्) ईश्वर से (न+याचिषत्) नहीं माँगता है ॥२० ॥

    भावार्थ

    सुकर्मों और स्तोत्रों से परमात्मा ही केवल याचनीय है, अन्य राजप्रभृति नहीं । क्योंकि अन्य याचना मनुष्य को नीचे गिरा देती है ॥२० ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    ( सोमस्य ) ऐश्वर्य के निमित्त (गल्दया) स्तुति तथा (गिरा) सामान्य वाणी से भी ( सदा ) सदा ( अहं याचन् ) मैं याचना करता हुआ ( भूर्णिं ) प्रजापालक ( सवनेषु ) शासन के कार्यों में ( मृगं न ) सिंह के समान ( त्वा ) तुझ पराक्रमी को ( मा चुक्रुधं ) कभी क्रोधित न करूं । ( ईशानं ) स्वामी से भला ( कः न याचिषत् ) कौन याचना नहीं किया करता । इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    कः ईशानं न याचिषत्

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (सोमस्य गल्दया) = [गालनेन आस्रावणेन] शरीर में सोम के आस्रावण के हेतु से (अहम्) = मैं (त्वा) = आप से (गिरा) = इन ज्ञान वाणियों के द्वारा (सदा याचन्) = सदा याचना करता हुआ होऊँ । अर्थात् मेरी एक ही आराधना हो कि प्रभु कृपा से मैं सोम का शरीर में रक्षण कर पाऊँ। [२] इस प्रकार (सवनेषु) = यज्ञों में याचना करता हुआ मैं (भूर्णिम्) = पालन करनेवाले (मृगं न) = अन्वेषणीय के समान उन आपको [मृग अन्वेषणे] (मा चुक्रुधम्) = क्रुद्ध न कर बैठूं। यह सोमरक्षण की निरन्तर रट बारम्बार प्रार्थना आप के क्रोध का कारण न बन जाये। (ईशानम्) = ईशान स्वामी से (कः न याचिषत्) = कौन याचना नहीं करता ! और किससे मैंने याचना करनी ! आप से ही तो माँगना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं सदा प्रभु से यही याचना करूँ कि मैं यज्ञों में लगा रहूँ और सोम को शरीर में सुरक्षित कर पाऊँ ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord, always beseeching you for one thing or another with my words of prayer as with each drop of soma offered to you, I pray, I may not provoke you to anger in yajna, you who are infinite giver and sole ruler of the universe like a lion of the forest. Listen, O lord, who doesn’t ask of the ruler and the munificent?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपदेशक उपासकांना हा उपदेश करतो, की हे उपासकांनो! तुम्ही सदैव यज्ञ इत्यादी कर्मात प्रवृत्त राहा व परमेश्वराची वेदवाणी माणसांसाठी कल्याणकारक आहे हे लक्षात घ्या. त्याबाबत संशय आल्यास क्रोध न करता प्रतिपक्षाला यथार्थ उत्तर द्या व सर्वांचे पालनपोषण व रक्षण करणाऱ्या परमपिता परमेश्वराकडेच या सर्व इच्छांची याचना करा, तोच इष्ट फळ प्रदाता आहे.

    टिप्पणी

    जरी परमात्मा संपूर्ण कर्मांचा फलप्रदाता आहे व कर्महीन असणाऱ्याला कोणतीही इष्ट सिद्धी होत नाही. तरीही माणूस आपली न्यूनता भरून काढण्यासाठी स्वाभाविकपणे आपल्यापेक्षा उच्च असलेल्याची अभिलाषा ठेवतो व संपूर्णपणे उच्च एकमेव परमेश्वर आहे. त्यासाठी आपली न्यूनता भरून काढण्यासाठी त्याच सर्वात उच्च देवाची याचना केली पाहिजे. ॥२०॥

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