ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यदि॒ स्तोमं॒ मम॒ श्रव॑द॒स्माक॒मिन्द्र॒मिन्द॑वः । ति॒रः प॒वित्रं॑ ससृ॒वांस॑ आ॒शवो॒ मन्द॑न्तु तुग्र्या॒वृध॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । स्तोम॑म् । मम॑ । श्रव॑त् । अ॒स्माक॑म् । इन्द्र॑म् । इन्द॑वः । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । स॒सृ॒ऽवांसः॑ । आ॒शवः॑ । मन्द॑न्तु । तु॒ग्र्य॒ऽवृधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः । तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृध: ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । स्तोमम् । मम । श्रवत् । अस्माकम् । इन्द्रम् । इन्दवः । तिरः । पवित्रम् । ससृऽवांसः । आशवः । मन्दन्तु । तुग्र्यऽवृधः ॥ ८.१.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मोपासकानां कार्याणि सिध्यन्तीति वर्ण्यते।
पदार्थः
अयं परमात्मा (यदि) यदा (मम) मदीयं (स्तोमं) स्तोत्रं (श्रवत्) शृणोतु तदा किं भवेत् इत्याह (अस्माकं, इन्दवः) अस्माकं यज्ञाः ये (तुग्र्यावृधः) जलादिद्रव्येण सम्पादिताः (आशवः) आशुसाधिताः (तिरः) तिरश्चीनं “दुष्प्रापमित्यर्थः” (पवित्रं) शुद्धं (इन्द्रं) परमात्मानं (ससृवांसः) प्राप्नुवन्तः (मन्दन्तु) अस्मान् सुखयन्तु ॥१५॥
विषयः
इन्द्रोऽस्माकं स्तुतिं शृणुयादिति प्रार्थ्यते ।
पदार्थः
इन्द्रो मम कृतं । स्तोमं=स्तोत्रम् । यदि । श्रवत्=शृणुयात् । तदाऽस्माकम् । इन्दवः मनसा सह सर्वे प्राणा इन्द्रं । मन्दन्तु=हर्षयन्तु । ये चेन्दवः । तिरः=अन्तर्हितेन समाहितेन चेतसा । पवित्रं=पवित्रताम् । ससृवांसः=सृतवन्तः प्राप्नुवन्तः । पुनः । आशवः=स्वस्वविषये शीघ्रगामिनः आशुबोद्धार इत्यर्थः । पुनः । तुग्र्यावृधः=तुग्र्यस्य जीवात्मनो । वृधो=वर्धयितारः ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मोपासकों के कार्यों की सिद्धि कथन करते हैं।
पदार्थ
(यदि) यदि वह परमात्मा (मम) मेरे (स्तोमं) स्तोत्र को (श्रवत्) सुने तो (अस्माकं, इन्दवः) मेरे यज्ञ जो (तुग्र्यावृधः) जलादि पदार्थों द्वारा सम्पादित करके (आशवः) शीघ्र ही सिद्ध किये हैं, वे (तिरः) तिरश्चीन=दुष्प्राप्य (पवित्रं) शुद्ध (इन्द्रं) परमात्मा को (ससृवांसः) प्राप्त होकर (मन्दन्तु) हमको हर्षित करें ॥१५॥
भावार्थ
हे परमात्मन् ! आप मेरी स्तुति को सुनें, मैंने जो यज्ञादि शुभकर्म सम्पादित किये हैं वा करता हूँ, वे आपके अर्पण हों, मेरे लिये नहीं, कृपा करके आप इन्हें स्वीकार करें, ताकि मुझे आनन्द प्राप्त हो। इसी का नाम निष्काम कर्मभाव है। जो पुरुष निस्स्वार्थ शुभकर्म करता है, उस पर परमात्मा प्रसन्न होते और उसको आह्लाद प्राप्त होता है ॥१५॥
विषय
इन्द्र हमारी स्तुति को सुने, यह इससे प्रार्थना होती है ।
पदार्थ
(यदि) यदि (मम स्तोमम्) मेरे स्तोत्र को वह इन्द्र (श्रवत्) सुने तो अवश्य (अस्माकम्) हमारे (इन्दवः) मनःसहित सकल प्राण (इन्द्रम्) इन्द्र को (मन्दन्तु) प्रसन्न करें, जो हमारे प्राण (तिरः) आन्तरिक ध्यान से (पवित्रम्) पवित्रता को (ससृवांसः) प्राप्त हैं अर्थात् परम पवित्र हैं । पुनः (आशवः) स्व स्व विषय में शीघ्रगामी अर्थात् शीघ्र बोधकर्त्ता हैं । तथा (तुग्र्यावृधः) आत्मा के सदा हर्ष देनेवाले हैं ॥१५ ॥
भावार्थ
संस्कृत, पवित्रीकृत, बहुसुश्रुत और साधनसम्पन्न आत्मा परमात्मतत्त्व का निश्चय करता है, इस हेतु ईश्वर की उपासना के लिये प्रथम आत्मा को योग द्वारा शुद्ध और पवित्र बनावे । तभी वह हम लोगों की स्तुति सुनेगा ॥१५ ॥
विषय
प्रभु से उत्तम २ प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे राजन् ! स्वामिन् ! ( यदि ) यदि तू ( मम स्तोमं ) मेरे स्तुतियुक्त वचन को ( श्रवत् ) श्रवण करे तो ( अस्माकम् ) हम प्रजाजनों के बीच ( इन्दवः ) ऐश्वर्यवान् जन और ( तिरः ससृवांसः ) तिरछे या दूर तक जाने वाले ( आशवः ) वेग से जाने वाले ( तुग्र्यावृधः ) शत्रुओं के नाशक सैन्य बलों के हितों को बढ़ाने वाले या सैन्यों से बढ़ने वाले वीर पुरुष भी ( पवित्रं ) पवित्राचार वाले, ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् तुझ प्रभुको ( मन्दन्तु ) प्रसन्न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
उपासना व सोमरक्षण -मध्यमःङ्क
पदार्थ
[१] (यदि) = यदि (मम स्तोमम्) = मेरे से किये गये स्तुति समूह को (श्रवत्) = वे प्रभु सुनते हैं तो (इन्दवः अस्माकम्) = ये सोमकण हमारे होते हैं। और ये सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (मन्दन्तु) = आनन्दित करनेवाले हों। प्रभु की उपासना से वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और सोमकण सुरक्षित रहते हैं । [२] ये सोमकण (तिरः) = तिरोहित रूप में रुधिर के अन्दर व्याप्त हुए-हुए (पवित्रं ससृवांसः) = पवित्र हृदयवाले पुरुष की ओर गतिवाले होते हैं। (आशवः) = ये शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले होते हैं। और (तुग्र्यावृधः) = जलों से वर्धन को प्राप्त होते हैं । 'आपः रेतो भूत्वा ०' = जल ही तो शरीर में रेतःकणों के रूप में होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना से शरीर में सोमकणों का रक्षण होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
And if the lord omnipotent, Indra, listen to my song of divine celebration, then may the offers of homage and oblations of soma, quick and fast, augmented by holy waters, reaching the pure and immaculate lord, please and exalt him and delight us with success.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमात्मा! तू माझी स्तुती ऐक. मी यज्ञ इत्यादी शुभ कर्म केलेले आहे किंवा करतो ते तुला अर्पण करतो. ते माझ्यासाठी नाही. कृपा करून तू याचा स्वीकार कर. त्यामुळे मी आनंदित होईन. जो पुरुष नि:स्वार्थ शुभ कर्म करतो त्याचेच नाव निष्काम कर्मभाव आहे. त्या पुरुषावर परमात्मा प्रसन्न होतो व त्याला आनंद प्राप्त होतो. ॥१५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal