ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 26
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीबृहती
स्वरः - मध्यमः
पिबा॒ त्व१॒॑स्य गि॑र्वणः सु॒तस्य॑ पूर्व॒पा इ॑व । परि॑ष्कृतस्य र॒सिन॑ इ॒यमा॑सु॒तिश्चारु॒र्मदा॑य पत्यते ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑ । तु । अ॒स्य । गि॒र्व॒णः॒ । सु॒तस्य॑ । पू॒र्व॒पाःऽइ॑व । परि॑ऽकृतस्य । र॒सिनः॑ । इ॒यम् । आ॒ऽसु॒तिः । चारुः॑ । मदा॑य । प॒त्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबा त्व१स्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव । परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥
स्वर रहित पद पाठपिब । तु । अस्य । गिर्वणः । सुतस्य । पूर्वपाःऽइव । परिऽकृतस्य । रसिनः । इयम् । आऽसुतिः । चारुः । मदाय । पत्यते ॥ ८.१.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 26
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ उपदेशकाय परमात्मनः साक्षात्करणमुपदिश्यते।
पदार्थः
(गिर्वणः) हे गीर्भिः सेव्य विद्वन् ! (सुतस्य) विद्वद्भिः साक्षात्कृतं (परिष्कृतस्य) वेदवाग्भिः शोधितं (रसिनः) आनन्दमयं (अस्य) इमं परमात्मानं (पूर्वपा, इव) प्रथमं पानकर्तेव (तु) क्षिप्रं (पिब) स्वज्ञानविषयी कुरुतां (चारुः) शोभना (इयं, आसुतिः) इयं साक्षात्कृतिः (मदाय) हर्षाय (पत्यते) सम्पद्यते ॥२६॥
विषयः
प्रार्थनया स प्रसीदत्यनया दर्शयति ।
पदार्थः
हे गिर्वणः=गिरां स्तुतीनां प्रियतम् ! यद्वा गीर्भिर्वचनैः स्तुतिभिर्वा । वननीय=संभजनीय इन्द्र ! “गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति” ॥ नि० ६ । १४ ॥ इति यास्कः । गॄ शब्दे, वन षण संभक्तौ, संभक्तिः=सेवा । गृणन्तीति गिरः स्तुतयः । गीर्य्यते स्तूयते याभिरिति गिरो वा गीर्भिर्वन्यते सेव्यत इति गिर्वणाः । गिर्वणस् इति शब्दोऽस्ति । त्वम् । हृदयेऽनुष्ठीयमानस्य । अस्य सुतस्य=शोधितस्य पवित्रस्यास्य यज्ञस्य । भागं । तु=शीघ्रम् । पिब=उत्कण्ठयाऽनुगृहाण । क इव । पूर्वपाः इव=पित्राचार्य्यादिः पूर्वपाः । पूर्वं प्रथमं पाति रक्षतीति पूर्वपाः । स यथा प्रीत्या सन्तानशिष्यादीन् अनुगृह्णाति तद्वत् । कीदृशस्य सुतस्य । परिष्कृतस्य=ध्यानादिभिः संस्कृतस्य । नह्यत्राशुद्धिलेशोऽस्ति । पुनः रसिनः=रसयुक्तस्य स्वादिष्ठस्य मधुरस्य । रसयुक्ते हि पदार्थे झटिति प्रवृत्तिर्भवतीत्यर्थः । हे इन्द्र ! इयमासुतिरनुष्ठीयमाना ध्यानक्रिया सर्वथा चारुः=प्रियतमास्ति । पुनः । मदाय=आनन्दाय । पत्यते=ईष्टे । आनन्दोत्पादने शक्त इत्यर्थः । अतस्त्वं मानसिकं यज्ञं प्राप्य मम हृदि निषीद ॥२६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उपदेशक के लिये परमात्मसाक्षात्कार का उपदेश कथन करते हैं।
पदार्थ
(गिर्वणः) हे प्रशस्तवाणियों के सेवन करनेवाले विद्वन् ! (सुतस्य) विद्वानों द्वारा साक्षात्कार किये गये (परिष्कृतस्य) वेदादि प्रमाणों से सिद्ध (रसिनः) आनन्दमय (अस्य) इस परमात्मा को (पूर्वपा, इव) अत्यन्त पिपासु के समान (तु) शीघ्र (पिब) स्वज्ञान का विषय करो (इमं) यह (चारुः) कल्याणमयी (आसुतिः) परमात्मसम्बन्धी साक्षात् क्रिया (मदाय) सब जीवों के हर्ष के निमित्त (पत्यते) प्रचारित हो रही है ॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह उपदेश किया गया है कि हे वेद के ज्ञाता उपदेशको ! तुम परमात्मा को भले प्रकार जानकर उसकी पवित्र वाणी का प्रचार करो और सब जिज्ञासु पुरुषों को परमात्मसम्बन्धी ज्ञान का फल दर्शाकर उनको कल्याण का मार्ग बतलाओ, जिससे वह मनुष्यजन्म का फल उपलब्ध कर सकें ॥२६॥
विषय
प्रार्थना से वह प्रसन्न होता है यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(गिर्वणः१) हे स्तुतियों के परमप्रेमिन् ! हे वेदों से स्तवनीय इन्द्र ! तू (अस्य+सुतस्य) हृदय में अनुष्ठीयमान इस मानसिक यज्ञ के ऊपर (तु) शीघ्र (पिब) कृपा कर । हे इन्द्र ! (पूर्वपाः२+इव) जैसे आचार्य्यादि जन सम्मानित होकर शिष्यादिकों पर अनुग्रह करते हैं । तद्वत् । जो यज्ञ (परिष्कृतस्य) ध्यान से संस्कृत और शोधित है । जिसमें अशुद्धि का लेश नहीं है, पुनः (रसिनः) रसयुक्त, मधुरमय और आनन्दप्रद है, क्योंकि रस में अधिक प्रवृत्ति होती है । हे इन्द्र ! पुनः (इयम्+आसुतिः) यह सन्तोषजनक यज्ञ (चारुः) अत्यन्त प्रिय है और (मदाय) आनन्द के लिये (पत्य३ते) पूर्ण है ॥२६ ॥
भावार्थ
जब हमारे सर्व कर्म शुद्ध, रसमय और प्रमोदप्रद होंगे, तब वह क्यों नहीं उन पर अनुग्रह करेगा । क्योंकि वह स्तोत्र और यज्ञों का प्रियतम और यज्वाओं का सुहृद् है ॥२६ ॥
टिप्पणी
१−गिर्वणस्−गिर्=वाणी, वनस्=प्रियतम, संभजनीय=सेवनीय=अच्छे प्रकार भजने योग्य । शब्दार्थक गॄ धातु से गिर् और संभक्त्यर्थक वन धातु से वनस् बनता है । संभक्ति नाम सेवा का । जिससे स्तुति करें, वह गिर् । वाणी के द्वारा परमदेव ही स्तुत्य है, अन्य नहीं । अतः यह विशेषण आया है । लौकिक संस्कृत में गीर्वाण प्रयोग होता है । २−पूर्वपा−यह शब्द ऋग्वेद में केवल दो बार आया है । परन्तु ‘पूर्वपाय्य, पूर्वपीति, पूर्वपेय’ ये तीन शब्द भी आते हैं । इनमें भी पा धातु विद्यमान है । जिसके पान और रक्षण दो अर्थ निर्धारित हैं । पानार्थ में इसके अधिक प्रयोग दीखते हैं । लौकिक संस्कृत में जिस पाहि का अर्थ पालन के अतिरिक्त नहीं करते, उसका भी भाष्यकारों ने पिब अर्थ किया है । यह आश्चर्य प्रतीत होता है । एवमस्तु, इसका एक प्रयोग इस प्रकार है, यथा−अग्रं पिबा मधूनां सुतं वायो दिविष्टिषु । त्वं हि पूर्वपा असि ॥ ऋ० ४ । ४६ । १ । (वायो) हे वायुसमान प्राणप्रद आचार्य ! आप (दिविष्टिषु) इस उत्सव में (मधूनाम्+सुतम्) मधुर रसों से युक्त परिष्कृत इस सोम रस को (अग्रम्+पिब) प्रथम ही पीवें (त्वम्+हि+पूर्वपाः+असि) क्योंकि तू पूर्वपा है । इस शब्द के ऊपर ऐतरेय ब्राह्मण-२ । २५ में चर्चा आई है ॥ ३−पत्यते−पत्ऌ गृतौ । यद्वा पत्यतिरैश्वर्य्यकर्मा ॥२६ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( गिर्वणः ) वाणियों के देने हारे आचार्य ! हे वाणियों द्वारा स्तुत्य ! राजन् ! तू ( पूर्व-पा-इव ) पूर्व काल के अनुभवी पालक के समान, ( अस्य सुतस्य ) इस अधीन शिष्य वा प्रजाजन का पुत्र वा ऐश्वर्य के समान (पिब) पालन कर । (परिष्कृतस्य) अच्छी प्रकार बनाये (रसिनः) रसयुक्त अन्न का ( आसुतिः ) बना पदार्थ जिस प्रकार हर्षजनक होता है उसी प्रकार ( परिष्कृत्तस्य ) सजे सजाये, विद्यादि गुणों से अलङ्कृत ( रसिनः ) बलवान् पुरुष की (इयम्) यह (आ-सुतिः) अभिषेक क्रिया भी, ( चारुः ) सबको अच्छी प्रकार लगने वाली होकर ( मदाय ) सब के आनन्द के लिये (पत्यते) पालकवत् आचरण करती है । उसको सब का पति, स्वामी बना देती है ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'परिष्कृत रसी'सोम
पदार्थ
[१] हे (गिर्वणः) = ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तुतिवाणियों से सम्भजनीय प्रभो ! (अस्य सुतस्य) = इस उत्पन्न हुए हुए सोम का (पूर्वपाः इव) = सब से प्रथम पान करनेवाले के समान (पिबा तु) = अवश्य पान कर। हम आपके स्तवन के द्वारा इस सोम का रक्षण करनेवाले बनें। [२] (परिष्कृतस्य) = वासनाओं से न मलिन हुए हुए (रसिनः) = जीवन को रसमय बनानेवाले इस सोम की (इयम्) = यह (आसुतिः) = उत्पत्ति (चारु:) = अत्यन्त सुन्दर है और (मदाय पत्यते) = यह उल्लास के लिये होती है [पत्यते संपद्यते सा० ] । परिष्कृत सोम जीवन में सुरक्षित हुआ आनन्द का जनक होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन सोमरक्षण का साधन बने। सुरक्षित सोम उल्लास का जनक हो ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the eternal lord of love fond of the celebrant’s homage, come and accept the devotee’s love and faith distilled from life’s experience. The flow of the ecstatic celebrant’s clairvoyance pure and sweet is full of ananda and radiates from the heart for spiritual bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा उपदेश केलेला आहे, हे वेदाचे ज्ञाते असलेल्या उपदेशकांनो! तुम्ही परमेश्वराला चांगल्या प्रकारे जाणून त्याच्या पवित्र वाणीचा प्रचार करा व सर्व जिज्ञासू पुरुषांना परमेश्वरासंबंधी ज्ञानाचे फळ समजावून त्यांना कल्याणाचा मार्ग दाखवा. ज्यामुळे ते मनुष्यजन्माचे फळ उपलब्ध करू शकतील. ॥२६॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal