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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - पाद्निचृत्पथ्याबृहती स्वरः - मध्यमः

    त्वं पुरं॑ चरि॒ष्ण्वं॑ व॒धैः शुष्ण॑स्य॒ सं पि॑णक् । त्वं भा अनु॑ चरो॒ अध॑ द्वि॒ता यदि॑न्द्र॒ हव्यो॒ भुव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । पुर॑म् । च॒रि॒ष्ण्व॑म् । व॒धैः । शुष्ण॑स्य । सम् । पि॒ण॒क् । त्वम् । भाः । अनु॑ । च॒रः॒ । अध॑ । द्वि॒ता । यत् । इ॒न्द्र॒ । हव्यः॑ । भुवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् । त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । पुरम् । चरिष्ण्वम् । वधैः । शुष्णस्य । सम् । पिणक् । त्वम् । भाः । अनु । चरः । अध । द्विता । यत् । इन्द्र । हव्यः । भुवः ॥ ८.१.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मनोऽनन्तबलं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वं) भवान् (शुष्णस्य) शत्रोः (चरिष्ण्वं) चरणशीलं (पुरं) समुदायं (वधैः) हननशीलशक्तिभिः (सं, पिणक्) संपिनष्टि (त्वं) भवान् (अध) अथ (भाः) दीप्तिं (अनु, चरः) अनुप्रविष्टोऽस्ति (यत्) यस्मात् (द्विता) द्विधा ज्ञानेन कर्मणा च (हव्यः) भजनीयः (भुवः) भवसि ॥२८॥

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    विषयः

    दुष्टपुरं परमात्मा विदारयतीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वं शुष्णस्य=प्रजाशोषकस्य चौरादेः, शरीरपोषकस्य नास्तिकादेर्वा । चरिष्णवं=चरणशीलं मनुष्यादियुक्तम् । पुरं=निवासस्थानम् । वधैः=वधकारिभिरायुधै रोगादिभिश्च । संपिणक्=सम्यक् पिनक्षि=संचूर्णयसि । यतस्त्वम् । भाः=भासमानः प्रकाशस्वरूपोऽसि । तथा । अनुचरः=अनुचरसि=सर्वेषां प्राणिनां कर्माणि पश्यन् सर्वत्र त्वमनुचरसि । अध=तथा । यद्=यस्माद् । द्विता=द्विधा=द्विविधैः स्थावरैर्जङ्गमैश्च । यद्वा । दुष्टैः शिष्टैश्च । हव्यः=ह्वातव्यः । भुवः=भवसि । आहूयसे । अतस्त्वमेव दुष्टानामपि दण्डयितासि ॥२८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा का अनन्तबल कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वं) आप (शुष्णस्य) शत्रु के (चरिष्ण्वं) चरणशील (पुरं) समुदाय को (वधैः) अपनी हननशील शक्तियों से (सं, पिणक्) नष्ट करते हो (अध) और (त्वं) आप (भाः) दीप्ति में (अनुचरः) अनुप्रविष्ट हो (यत्) जिससे (द्विता) ज्ञानकर्म द्वारा (हव्यः) भजनीय (भुवः) हो रहे हो ॥२८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को अनन्त बलशाली कथन किया गया है कि वह परमात्मा अपनी हननशील शक्तियों से शत्रुओं के समूह को नष्ट करता, वह सम्पूर्ण ज्योतियों में प्रविष्ट होकर प्रकाशित कर रहा है और वही सारे ब्रह्माण्डों को रचकर अपनी शक्ति से सबको थांभ रहा है, अधिक क्या परमात्मा ही की शक्ति से सूर्य्य तथा विद्युदादि तेजस्वी पदार्थ अनेक कर्मों के उत्पादन तथा विनाश में समर्थ होते हैं और वह सदाचारी को सुखद तथा दुराचारी को दुःखदरूप से उपस्थित होता है, अतएव पुरुष को उचित है कि सदाचार द्वारा परमात्मपरायण हो ॥२८॥

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    विषय

    दुष्ट नगरी को परमात्मा छिन्न-भिन्न कर देता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वम्) तू (शुष्णस्य१) प्रजाशोषक चोर आदिकों और शरीरपोषक नास्तिकादिकों के (चरिष्णव२म्) चरणशील=गमनशील मनुष्यादिसंयुक्त (पुरम्) नगर को (वधैः) वध करनेवाले आयुधों और रोगादिकों से (सम्+पिणक्) सब प्रकार चूर्ण-२ कर देता है । क्योंकि (त्वम्) तू (भाः) प्रकाशस्वरूप है और (अनु+चरः) तू सबके कर्मों को देखता हुआ सर्वत्र विद्यमान है अतः तू देख-२ कर दण्ड देता है । (अध) और (यत्) जिस कारण (द्विता) दोनों प्रकार के दुष्ट और शिष्ट मनुष्यों से तू ही (हव्यः+भुवः) पुकारा जाता है । अतः तू ही दुष्टों का दण्डदाता है ॥२८ ॥

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! जिस कारण शिष्ट या दुष्ट दोनों प्रकार के मनुष्यों से तू ही बुलाया जाता है और तू प्रकाशस्वरूप और सर्वत्र व्यापक है, अतः तू न्यायदृष्टि से पापियों को दण्ड और धार्मिकों को लाभ पहुँचाता है ॥२८ ॥

    टिप्पणी

    १−शुष्ण−इस शब्द का पाठ इन्द्रसूक्त में अधिक आया है । यह इतना प्रसिद्ध है कि शुष्णहत्य यह शब्द संग्रामवाची सा हो गया है । जिस संग्राम में शुष्ण की हत्या हो, वह शुष्णहत्य । जगत् के कल्याणों का जो अपने आचरणों से शोषण अर्थात् विनाश करता है वह शुष्ण । चोर, डाकू, अन्यायी, व्यभिचारी, अज्ञानी, लम्पट, नास्तिक, धर्मनिन्दक, महाघोरपापी आदिकों का नाम शुष्ण है । मानो, यह दस्यु शब्द का पर्य्याय है (शुष्णः शोषयिता) सूर्यपक्ष में मेघ और अन्धकार आदिकों का और जीवपक्ष में अज्ञान, अविद्या, मूर्खता, चिन्ता आदिकों का वाचक है । उदाहरणार्थ इन मन्त्रों पर ध्यान दीजिये−त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथ अरन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् । महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ॥हे इन्द्र ! तू (शुष्णहत्येषु) महामहा संग्रामों में (कुत्सम्+आविथ) स्तुतिकर्ता धार्मिक पुरुष की रक्षा करता है । हे इन्द्र ! तू (अतिथिग्वाय) अतिथियों की सेवा करनेवाले पुरुषों की भलाई के लिये (शम्बरम्) महाबलिष्ठ महास्त्रधारी अन्यायी को भी (अरन्धयः) दण्ड देता है । और (महान्तम्) बड़े से बड़े (अर्बुदम्) अपरिमित (एक अरब १००००००००० सेनाधारी को अर्बुद कहते हैं) सेनाधारी अन्यायी को (पदा+नि+क्रमीः) पैर से ही मारकर दूर फेंक देता है । हे महान् इन्द्र ! तू (सनात्+एव) सनातन से (दस्युहत्याय) जगत् के शत्रुओं के हनन के लिये ही (जज्ञिषे) परम प्रसिद्ध है । इन मन्त्रों पर अधिक विचार करना चाहिये, क्योंकि परमात्मा कभी दुष्टों को जगत् में नहीं रहने देता । हे मनुष्यो ! इस महादण्डधारी इन्द्र से सदा भय किया करो । इसके व्रतों को पालन करो । वि शुष्णस्य दृंहिता ऐरयत्पुरः ॥ ऋ० १ । ५१ । ११ ॥ हे इन्द्र ! तू (शुष्णस्य) शुष्ण के (दृंहिता) अत्यन्त दृढ़ (पुरः) नगरों को (वि+ऐरयत्) विध्वस्त कर देता है । उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम् । पुरो यदस्य संपिणक् ॥ ऋ० ४ । ३० । १३ ॥ हे इन्द्र ! (यद्) जब तू (अस्य+शुष्णस्य+पुरः) इस शुष्ण के नगरों को (संपिणक्) सम्यक् चूर्ण-२ कर देता है तब (वेदनम्+प्र+मृक्षः) उसके वेदन=वित्त को भी ले लेता है । शुष्णस्य चित्परि माया अगृभ्णाः ॥ ऋ० ५ । ३१ । ७ ॥ हे इन्द्र ! तू शुष्ण की मायाओं को खूब जानता है, इत्यादि बहुशः प्रयोग आप इन्द्रसूक्तों में देखिये और तदनुसार जगत् के शोषक जनों से प्रजाओं की रक्षा कीजिये । २−चरिष्णु−जिस जड़ वस्तु से मनुष्य काम लेता है । वह भी चरिष्णु (चलता) कहलाता है । जैसे कूंआ चल रहा है । मेरा व्यापार चलतू है । अतः जिस नगर में बहुत व्यापार वाणिज्य और उद्यम हो, उसे भी चरिष्णु कहते हैं । इति संक्षेपतः ॥२८ ॥

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    विषय

    सत्पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( शुष्णस्थ ) प्रजा के शोषण करने वाले शत्रु या दुष्ट पुरुष के ( चरिष्ण्वं ) अस्थिर या प्रजा के ऐश्वर्य के भोक्ता ( पुरं ) नगरवत् अड्डे या छावनी को ( वधैः संपिणक् ) दण्डों और शस्त्रों से पीस डाल, चूर्ण २ कर नष्ट कर दे। और (अध यत् ) जब तू ( हव्यः भुवः ) स्तुतियों को प्राप्त करे तो (अध द्विता अनु चरः) अनन्तर दोनों प्रकार की कान्तियों या तेजों को प्राप्त कर अर्थात् शत्रुदमन और प्रजापालन दोनों कार्यों में तुझे कीर्त्तियां प्राप्त हों । तू सूर्यवत् प्रखर, प्रचण्ड और चन्द्रवत् प्रजाजन-मनोरंजक कान्तियों को धारण कर। (२) प्रभु परमेश्वर (वधैः शुष्णस्य) दण्डों से दुःखित जीव इस भोग के साधन जंगम देह को नाश करे । स्तुत्य प्रभु कान्तियों और ज्ञानों को प्रकट करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शुष्णासुर की पुरी का संपेषण

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (त्वम्) = आप (यत्) = जब (हव्यः) = पुकारने योग्य होते हैं, अर्थात् जब उपासकों से आप उपासनीय होते हैं, तो (शुष्णस्य) = सुखा देनेवाले इस कामदेव की [शुष्णासुर के ] (चरिष्ण्वम्) = निरन्तर चरणशील (पुरम्) = नगरी को (वधैः) = आयुधों से, इन्द्रिय, मन व बुद्धि रूप अस्त्रों से (सं पिणक्) = छिन्न-भिन्न कर देते हैं। कामाक्रान्त पुरुष अत्यन्त अशान्त होता है । सो काम की पुरी को 'चरिष्णवं' कहा गया है। [२] इस काम की पुरी के विध्वंस के होने पर (त्वम्) = आप (भाः अनुचरः) = दीसियों के साथ हमें प्राप्त होते हैं। (अध) = अब (द्विता) = हमारे जीवनों में दो का विस्तार होता है [द्वौ तनोति] शरीर में शक्ति का [=क्षत्र का] तथा मस्तिष्क में ज्ञान का [= ब्रह्म का] काम विध्वंस शरीर में शक्ति संचय व मस्तिष्क में ज्ञान संचय का कारण बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की उपासना करते हुए काम का विध्वंस करनेवाले बनें। इस काम विध्वंस से दीप्तियों को प्राप्त करते हुए 'ब्रह्म व क्षत्र' का विकास करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With fatal strokes of arms, you destroy the forces of evil and exploitation on the rampant, you are the light of life and bless the lights of life in action, and thus you are doubly adorable and worshipped in two complementary aspects, as destroyer and as preserver, O lord omnipotent and self-refulgent.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराला अनंत बलवान म्हटलेले आहे. परमेश्वर आपल्या हननशील शक्तीने शत्रूच्या समूहाला नष्ट करतो. तो संपूर्ण ज्योतींमध्ये प्रविष्ट होऊन त्यांना प्रकाशित करत आहे व तोच संपूर्ण ब्रह्मांडाची रचना करून आपल्या शक्तीने सर्वांना सांभाळत आहे. परमेश्वराच्या शक्तीने सूर्य व विद्युत इत्यादी तेजस्वी पदार्थ अनेक कार्याचे उत्पादन व विनाशात समर्थ असतात व ते सदाचारीला सुखद व दुराचारीला दु:खरूपाने मिळतात. त्यासाठी पुरुषाने सदाचाराने परमात्मपरायण व्हावे. ॥२८॥

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