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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यच्चि॒द्धि त्वा॒ जना॑ इ॒मे नाना॒ हव॑न्त ऊ॒तये॑ । अ॒स्माकं॒ ब्रह्मे॒दमि॑न्द्र भूतु॒ तेऽहा॒ विश्वा॑ च॒ वर्ध॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । चि॒त् । हि । त्वा॒ । जनाः॑ । इ॒मे । नाना॑ । हव॑न्ते । ऊ॒तये॑ । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । इ॒दम् । इ॒न्द्र॒ । भू॒तु॒ । ते । अहा॑ । विश्वा॑ । च॒ । वर्ध॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये । अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । चित् । हि । त्वा । जनाः । इमे । नाना । हवन्ते । ऊतये । अस्माकम् । ब्रह्म । इदम् । इन्द्र । भूतु । ते । अहा । विश्वा । च । वर्धनम् ॥ ८.१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ निष्कामकर्मणां विधानम्।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् (इमे, जनाः) इमे सर्वे उपासकाः (यत्, चित्, हि) यद्यपि हि (ऊतये) रक्षणाय (नाना) अनेकविधाभिः (त्वा, हवन्ते) त्वां सेवन्ते तथापि (अस्माकं, इदं ब्रह्म) अस्माकमिदं भवद्दत्तं धनाद्यैश्वर्य्यं (विश्वा, अहा, च) सर्वदा (ते) तव (वर्धनं) यज्ञादिद्वारा यशःप्रकाशकं (भूतु) भवतु ॥३॥

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    विषयः

    सर्वदा ब्रह्मयश एव वर्धनीयमिति तृतीयया ऋचा स्पष्टयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! सर्वपश्यक ! यच्चिद्=यद्यपि । हि=निश्चयेन । इमे=दृश्यमानाः सर्वे जनाः । नाना=विविधैरुपायैः । पृथक् पृथक् भूत्वा वा । ऊतये=रक्षणाय स्वस्वसाहाय्यार्थं वा । त्वा=त्वाम् । हवन्ते=आह्वयन्ति स्तुवन्ति । तथापि अस्माकं=समवेतानां सर्वेषाम् । इदं ब्रह्म=इदं पवित्रं स्तोत्रम् सम्प्रति । ते=तव यशसो वर्धनं=वर्धकम् । भूतु=भवतु । न केवलमिदानीमेव अपितु । विश्वा=विश्वानि सर्वाणि । अहा=अहानि दिनानि च इदमेवास्माकं ब्रह्म तव कीर्तिं वर्धयतु वयं न त्वा माह्वयामो धनार्थं वाऽन्यप्रयोजनार्थं वा किन्तु तवैव यशोगानेनास्माकं दिनानि सर्वदा गच्छन्त्विति प्रार्थयामहे ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब निष्कामकर्मों का कर्तव्य कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मन् ! (इमे, जनाः) ये सब उपासक लोग (यत्) जो (चित्, हि) यद्यपि (ऊतये) स्वरक्षा के लिये (नाना) अनेक प्रकार से (त्वा, हवन्ते) आपका सेवन करते हैं, तथापि (अस्माकं, इदं, ब्रह्म) आपका दिया हुआ यह मेरा धनाद्यैश्वर्य्य (विश्वा, अहा, च) सर्वदा (ते) आपके यश का (वर्धनं) प्रकाशक (भूतु) हो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में निष्कामकर्मों का उपदेश किया गया है अर्थात् सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों के दाता परमात्मा से यह प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो ! आपका दिया हुआ यह धनादि ऐश्वर्य्य मेरे लिये शुभ हो अर्थात् इस धन से सदा यज्ञादि कर्मों द्वारा आपके यश को विस्तृत करूँ, हे ऐश्वर्य्य के दाता परमेश्वर ! आपकी कृपा से हमको नाना प्रकार के ऐश्वर्य्य प्राप्त हों और हम आपकी उपासना में सदा तत्पर रहें। भाव यह है कि परमात्मदत्त धन को सदा उपकारिक कामों में व्यय करना चाहिये, जो पुरुष अपनी सम्पत्ति को सदा वैदिककर्मों में व्यय करते हैं, उनका ऐश्वर्य्य उन्नति को प्राप्त होता है और अवैदिक कर्मों में व्यय करनेवाले का ऐश्वर्य्य शीघ्र ही नाश को प्राप्त होकर वह सब प्रकार के सुखों से वञ्चित रहता है ॥३॥

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    विषय

    ब्रह्म ही स्तुत्य है, इस अर्थ को तृतीया ऋचा से विस्पष्ट करते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा परमात्मा ! (इमे) चारों दिशाओं के ये (जनाः) मनुष्यगण (यद्+चित्) यद्यपि (ऊतये) निज-निज रक्षा और सहायता के लिये (नाना) पृथक् होकर अथवा विविध उपायों से (त्वा+हि) तुझको ही (हवन्ते) बुलाते, स्तुति करते और तेरा ही आवाहन करते हैं । हे इन्द्र ! हम क्या करें, यह हमें नहीं सूझता है । तथापि (अस्माकम्) हमारा (इदम्) यह (ब्रह्म*) पवित्र स्तोत्र ही आज और (विश्वा+च) सम्पूर्ण (अहा) दिन (ते) तेरे (वर्धनम्) यश का वर्धक (भूतु) होवे ॥३ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आत्मरक्षा के लिये अन्य देवों को छोड़ सर्वेश्वर ही प्रार्थनीय है । इन्द्रियसहित यह आत्मा वशीभूत बना परमात्मा में नियोजनीय है और कर्मफल की आकाङ्क्षा न करके आपके सर्व याग और सर्व स्तोत्र उसी के यश के वर्धक होवें ॥३ ॥

    टिप्पणी

    *ब्रह्मन् यह नकारान्त पुंल्लिङ्ग और नपुंसक है । नपुंसक में ब्रह्म और पुंल्लिङ्ग में ब्रह्मा प्रयोग होता है । आधुनिक भाषा में भी यह दोनों प्रकारों से बोला जाता है । हिन्दी में नपुंसकलिङ्ग के अभाव के कारण ब्रह्म और ब्रह्मा दोनों पुंल्लिङ्ग ही हैं । वैदिक प्रयोगानुसार ऋग्वेद में वेद या वेदैकदेश स्तोत्रार्थ या स्तुति में इसके अनेकानेक प्रयोग हैं । यथा−उप ब्रह्माणि वाघतः ॥ ऋ० १ । ३ । ५ ॥ उप ब्रह्माणि हरिवः ॥ ऋ० १ । ३ । ६ ॥ ब्रह्माणीन्द्र तव यानि वर्धना ॥ ऋ० १ । ५२ । ७ ॥ इत्यादि बहुत मन्त्रों में ब्रह्मन् शब्द बहुवचनान्त प्रयुक्त हुआ है । इन मन्त्रों का आशय यह है कि हे इन्द्र ! आप हम उपासकों के स्तोत्रों या वेदों को सुनने के लिये यहाँ कृपा करें, जो आपके आनन्दवर्धक हैं । ईदृश स्थलों में बहुवचनान्त ब्रह्मन् शब्द परमात्मवाची नहीं हो सकता, यह विस्पष्ट है । एकवचन में भी ब्रह्मन् बहुत आए हैं । वहाँ भी अधिकांश स्तोत्रवाची प्रतीत होता है । यथा−ब्रह्म च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय ॥ ऋ० १ । १० । ४ ॥हे (वसो) धनस्वरूप (इन्द्र) इन्द्र ! (नः) हमारे (ब्रह्म+च+यज्ञम्+सचा+च+वर्धय) हमारे ब्रह्म और यज्ञ को साथ-२ बढ़ाइये । पुनः−त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय ॥ ऋ० १० । १४१ । ६ ॥हे अग्ने ! आप (अग्निभिः) अग्निहोत्रादि कर्मों के साथ हमारे ब्रह्म और यज्ञ को बढ़ाइये । पुनः−यन्मे नरः श्रुत्यं ब्रह्म चक्र ॥ ऋ० १ । १६५ । ११ ॥ यहाँ स्वयं इन्द्र कहता है कि हे (नरः) मनुष्यो ! तुम (मे) मेरे (श्रुत्यम्) सुनने योग्य (ब्रह्म) स्तोत्र बनाओ । इत्यादि अनेकशः प्रयोग भी दिखला रहे हैं कि वेद या स्तोत्रवाची ब्रह्मन् शब्द हैं । पुनः−तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः ॥ ऋ० १ । २४ । ११ ॥ हे वरुण ! (ब्रह्मणा) वेद या स्तोत्र से (वन्दमानः) आपकी वन्दना करता हुआ मैं (तत्) उस परमानन्द धन की (यामि) याचना करता हूँ । जिस धन को (यजमानः) याज्ञिक पुरुष (हविर्भिः) नाना द्रव्यों से अग्निहोत्रादि कर्मों को करके पाते हैं (तत्) उसको कृपाकर दीजिये । इत्यादि−ब्रह्मन् वीर ब्रह्मकृतिं जुषाणोऽर्वाचीनो हरिभिर्याहि तूयम् । अस्मिन्नू षु सवने मादयस्वोप ब्रह्माणि शृणव इमा नः ॥ ऋ० ७ । २९ । २ ॥हे ब्रह्मन् हे वीर इन्द्र ! (ब्रह्मकृतिम्) वेद द्वारा क्रियमाण कर्म को (जुषाणः) सार्थक बनाते हुए आप (अर्वाचीनः+तूयम्+याहि) हमारे संमुख शीघ्र आइये । इसी यज्ञ में आकर हमको आनन्दित कीजिये और हमारे इन स्तोत्रों को सुनिये । इस ऋचा के तीन स्थानों में ब्रह्मन् शब्द का पाठ है । अर्थ पर ध्यान दीजिये−ब्रह्मद्विट्=ब्रह्मद्वेषी । जिस कारण ब्रह्म नाम वेद या स्तोत्र का है, अतएव ब्रह्मद्विट् को दण्ड देने के लिये अनेक आज्ञाएँ वेद में हैं । यथा−ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिमस्य ॥ ऋ० ६ । ५२ । ३ ॥हे देव ! ब्रह्मद्वेषी के लिये तापास्त्र फेंकिये । यहाँ सर्वदा ध्यान रखना चाहिये कि वेद का तात्पर्य्य वैदिक आज्ञा से है । जो कोई इस पृथिवी पर वेद के नाम भी नहीं जानते, परन्तु वे शुभकर्मों में सदा प्रवृत्त हैं और ईश्वर से डरते हैं, तो वे वेदानुयायी कहलावेंगे । पुनः−उद्बृह रक्षः सहमूलमिन्द्र.... ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिमस्य ॥ ऋ० ३ । ३० । १७ ॥ हे इन्द्र ! राक्षस को निर्मूल कीजिये । ब्रह्मद्वेषी के ऊपर तापास्त्र फेंकिये । महाक्रूर मनुष्यघाती का नाम राक्षस है, उसी को ब्रह्मद्वेषी भी कहते हैं । इत्यादि स्थलों में भी ब्रह्मन् शब्द वेदवाची या स्तुतिवाचक ही प्रतीत होता है । पुंल्लिङ्ग ब्रह्मन् शब्द । इसके भी प्रयोग भूरि-२ आये हैं । इन्द्रादि देवों के विशेषण में बहुधा पुंल्लिङ्ग ब्रह्मन् शब्द के प्रयोग देखते हैं । इसके अतिरिक्त ब्रह्मा नामा ऋत्विक् अर्थ में इसके प्रयोग हैं । जो ब्रह्म=वेद का पाठ करे, वह ब्रह्मा । यथा−ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वा ॥ ऋ० १० । ७१ । ११ ॥यहाँ वेदवित् पुरुष का नाम ब्रह्मा है । इसी प्रकार ब्रह्मजाया ब्रह्मपुत्र ब्रह्मकिल्विष आदि के भी प्रयोग विद्यमान हैं । ब्रह्मणस्पति शब्द−यह दिखलाता है कि ब्रह्म शब्द का अर्थ ईश्वर नहीं, क्योंकि इसका अक्षरार्थ ब्रह्म का पति होगा । इसके भी प्रयोग ऋग्वेद में बहुत हैं । एक स्थल में इस प्रकार आया है−ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवा धमत् । देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत ॥ ऋ० १० । ७२ । २ ॥ (कर्मारः+इव) जैसे तक्षा, लोहकार आदि भस्त्रा=भाथी को फूँकते हैं, मानो तद्वत् (ब्रह्मणः+पतिः) वेद का पति या जगत्पति भी (देवानाम्+पूर्व्ये+युगे) संसारों की सृष्टि की आदि में (एता) इन अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु वस्तुओं को (सम्+अधमत्) फूँकता है । तब (असतः) अव्यक्त प्रधान से (सत्+अजायत) यह व्यक्त जगत् होता है । यहाँ ब्रह्मणस्पति का अर्थ परमात्मा है, यह संशयरहित प्रतीत होता है । तब ब्रह्मन् शब्द का अर्थ यहाँ परमात्मा नहीं हो सकता । वेद, जगत् आदि इसके अर्थ होंगे । और भी अदितिर्ब्रह्मणस्पतिः ॥ ऋ० १० । ६५ । १ ॥ यहाँ अदिति को ब्रह्मणस्पति कहा है । अदिति नाम ब्रह्म और प्रकृति का है, इसी कारण आदित्य (अदितिपुत्र) सर्वदेव कहलाते हैं । ब्रह्मन् शब्द और यजुर्वेद−सबसे प्रथम हम यजुर्वेद में देखते हैं कि नपुंसक ब्रह्मन् शब्द ब्राह्मण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और ब्रह्म और क्षत्र इन दो शब्दों के साथ-२ पाठ अनेक स्थानों में आए हैं, यथा−इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम् ॥ यजु० ३२ । १६ ॥मेरी श्री को यह ब्राह्मण और क्षत्रियवर्ण भोगें । तपस्वी सत्यवादी ईश्वरीयतत्त्ववित् पुरुष ब्रह्मवर्ण और दीनहीनजनोद्धारक सत्यपरायण महाबलिष्ठ निर्भय आदि का नाम क्षत्रवर्ण है । श्री स्वामीजी का भी यही आशय है । पुनः−स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा । यह पाठ यजु० १८ । ३८ से लेकर ४३ तक है और ४४ वे मन्त्र में−स नो भुवनस्पते प्रजापते यस्य त उपरि गृहा यस्य वेह । अस्मै ब्रह्मणेऽस्मै क्षत्राय महि शर्म यच्छ स्वाहा । हे भुवनपते ! हे प्रजापते ! जिस आपके गृह ऊपर, यहाँ और सर्वत्र हैं, वह आप हमारे ब्रह्मवर्ण और क्षत्रवर्ण को बहुत कल्याण दीजिये । स्वामीजी ने ब्राह्मणकुल और राजकुल अर्थ किया है । ब्रह्मवर्चसी । इस शब्द का भी एक बार पाठ यजुर्वेद में है, ऋग्वेद में नहीं । इसके ब्रह्मतेजस्वी ईश्वरवत्तेजस्वी इत्यादि अर्थ प्रतीत होते हैं और ब्रह्मन् शब्द अन्यत्र ईश्वरवाचक प्रयुक्त दीखता है । यथा−आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् ॥ यजु० २२ । २२ ॥हे ब्रह्मन् ! ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी उत्पन्न होवे । महीधर ने ब्रह्मवर्चसी का अर्थ यज्ञाध्ययनशील किया है । स्वामीजी ने ब्रह्मन् का अर्थ परमेश्वर किया है और ब्रह्मवर्चसी का अर्थ “वेदविद्या से प्रकाश को प्राप्त” किया है । यहाँ आश्चर्य की एक बात यह है कि महीधर या स्वामीजी इस मन्त्र का देवता नहीं बतलाते । केवल “लिङ्गोक्त देवता“ मानना कहते हैं । तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः । तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः ॥ यजु० ३२ ॥यहाँ अग्नि आदित्य आदि शब्दों के साथ ब्रह्मन् शब्द का पाठ है तो सही, किन्तु इसकी मुख्यता नहीं है । इसका देवता आत्मा अर्थात् परमात्मा है, अतः यह ईश्वर का वर्णन है, इसमें सन्देह नहीं । अथर्ववेद और ब्रह्मन् शब्द । यत्र देवा ब्रह्मविदो ब्रह्मज्येष्ठमुपासते ॥ अथ० १० । ७ । २४ ॥जहाँ ब्रह्मविद् देवगण ज्येष्ठ ब्रह्म की उपासना करते हैं । निःसन्देह ब्रह्मविद् विद्वद्गण जिसकी उपासना करते हैं, वह परमदेव ही है । पुनः−“तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” १० । ७ । ३२, ३३, ३४ । जैसे उपनिषदादिकों में ब्रह्मलोक, ब्रह्मवादी आदि शब्दों के प्रयोग विद्यमान हैं, तद्वत् इस वेद में भी । यथा−स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् । मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ॥ अथ० १९ । ७२ । १ ॥ मैंने वरदा वेदमाता की स्तुति की है, जो द्विजों को पवित्र करनेवाली है, वह मुझको आयु, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रव्य और ब्रह्मतेज देकर ब्रह्मलोक को जाय । ब्रह्ममाता परमात्मा ही है । यहाँ ईश्वर में मातृभाव स्थापना कर स्तुति की गई है । ब्रह्मलोक (ब्रह्मैव लोको ब्रह्मलोकः) शब्द का अर्थ ब्रह्मरूप लोक है ॥३ ॥

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    विषय

    उस के अनेक गुण

    भावार्थ

    ( यत् त्वा चित् हि ) जिस तुझ पूज्य परमेश्वर को ही ( इमे नाना जना ) ये नाना जन ( ऊतये ) अपनी रक्षा और ज्ञान की प्राप्ति के लिये ( हवन्ते ) पुकारते, तेरी प्रार्थना करते हैं हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) उस तेरा ( इदं ब्रह्म ) यह वेद-ज्ञान ( विश्वा अहा ) सब दिनों ही ( अस्माकं वर्धनं भूतु ) हमें बढ़ाने वाला होवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    आर्त भक्त नहीं, ज्ञानी भक्त बनें

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जो (चित् हि) = निश्चय से (इमे नाना जनाः) = ये विविध वृत्तियोंवाले लोग हैं, वे सब (ऊतये) = रक्षण के लिये (त्वा हवन्ते) = आपको ही पुकारते हैं। सामान्यतः मनुष्य सांसारिक कामों में उलझा रहता है और ब्रह्म को भूला रहता है । परन्तु जब कभी विघ्न व कष्ट आता है तो रक्षण के लिये प्रभु को पुकारता है। यह प्रभु का आर्त भक्त कहलाता है। यह पीड़ा के दूर होने के साथ प्रभु को फिर भूल जाता है। [२] पर हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्माकं इदं ब्रह्म) = हमारे से किया गया यह स्तवन (ते) = आपके लिये (विश्वा च अहा) = सब दिनों में (वर्धनम्) = आपके यश का वर्धन करनेवाला (भूतु) = हो। अर्थात् हम सदा आपका स्मरण करनेवाले हों। हमारे सब कार्य आपके स्मरण के साथ हों। हम आपके ज्ञानी भक्त बनें। दुःख में, सुख में समवस्था को प्राप्त करके स्थितप्रज्ञ बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के आर्तभक्त ही न बनकर, ज्ञानी भक्त बनें। सदा प्रभु स्मरणपूर्वक ही सब कार्यों को करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Although these many people invoke you and pray for protection and progress for themselves in many different ways, yet, we pray, our adoration and prayers and all this wealth, honour and excellence bestowed upon us by you be dedicated to you and always, day and night, exalt your munificence and glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात निष्काम कर्माचा उपदेश केलेला आहे. अर्थात संपूर्ण ऐश्वर्याचा दाता असलेल्या परमेश्वराला ही प्रार्थना केलेली आहे. हे प्रभो! तू दिलेले हे धन इत्यादी ऐश्वर्य मला शुभ ठरावे. या धनाने आम्ही सदैव यज्ञ इत्यादी कर्मांद्वारे तुझे यश विस्तृत करू. हे ऐश्वर्याच्या दात्या परमेश्वरा ! तुझ्या कृपेने आम्हाला नाना प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे व आम्ही तुझ्या उपासनेत सदैव तत्पर असावे.

    टिप्पणी

    परमेश्वराने दिलेल्या धनाला सदैव उपकारक कामात लावावे. जे पुरुष आपली संपत्ती सदैव वैदिक कर्मात खर्च करतात त्यांच्या ऐश्वर्याची वाढ होते व अवैदिक कार्यात खर्च करणाऱ्याचे ऐश्वर्य तात्काळ नष्ट होते व तो सर्व प्रकारच्या सुखापासून वंचित होतो. ॥३॥

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