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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीस्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    वि त॑र्तूर्यन्ते मघवन्विप॒श्चितो॒ऽर्यो विपो॒ जना॑नाम् । उप॑ क्रमस्व पुरु॒रूप॒मा भ॑र॒ वाजं॒ नेदि॑ष्ठमू॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । त॒र्तू॒र्य॒न्ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । वि॒पः॒ऽचितः॑ । अ॒र्यः । विपः॑ । जना॑नाम् । उप॑ । क्र॒म॒स्व॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । आ । भ॒र॒ । वाज॑म् । नेदि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् । उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तर्तूर्यन्ते । मघऽवन् । विपःऽचितः । अर्यः । विपः । जनानाम् । उप । क्रमस्व । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजम् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥ ८.१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मघवन्) हे धनाद्यैश्वर्य्यवन् परमात्मन् ! ये (विपश्चितः) भवदीयज्ञानवन्तो जनास्ते (अर्यः) स्वशत्रुं प्रत्यरित्वमापन्नाः (जनानां, विपः) स्वविरोधिजनानां वेपयितारः सन्तः (तर्तूर्यन्ते) भृशमापदं तरन्ति (उपक्रमस्व) अतोऽस्मान् प्राप्नुहि (ऊतये) रक्षायै च (पुरुरूपं) सर्वविधं (नेदिष्ठं) अदूरदेशस्थं (वाजं) अन्नाद्यैश्वर्यं (आभर) पूरय ॥४॥

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    विषयः

    इन्द्रः सर्वेषां भद्रं विदधात्वित्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे मघवन्=हे सर्वैश्वर्य्यसम्पन्न ! मघमिति धननाम, निघण्टु । २ । १० । ये जना विपश्चितः सन्ति=ये विशेषेण जनानां क्लेशान् पश्यन्ति दृष्ट्वा च तत्प्रहाणाय प्रतीकारांश्च चिन्वन्ति ते विपश्चितः । यद्वा विशेषेण पश्यन्तीति विपो विशेषज्ञाः । चिन्वन्तीति चितः । विपश्च ते चितो विपश्चितो विद्वांसः । यद्वा ये विशेषेण परमात्मविभूतितत्त्वं पश्यन्ति चिन्वन्ति च ते विपश्चितः । ये च जनानां मध्ये । अर्य्यः=अर्य्य्याः पूज्या गमनीयाः सन्ति । पुनः ये च विपः=विपा विशेषपालकाः सन्ति । ते यदि वितर्त्तूर्य्यन्ते=दुःखे अतिशयेन वितरेयुः क्लेशे निमग्ना भवेयुः । तर्हि तान् हे इन्द्र ! उपक्रमस्व=उपगम्य आनन्दय । तथा ऊतये=रक्षणाय तेषां । पुरुरूपं=बहुरूपम् । वाजम्=अन्नम् तेषां । नेदिष्ठमन्तिकतमम् । आभर=आहर आनय ॥४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मघवन्) हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मन् ! (विपश्चितः) आपकी आज्ञापालन करनेवाले पुरुष (अर्यः) प्रतिपक्षी के प्रति शत्रुभाव को प्राप्त होने पर (जनानां, विपः) शत्रुओं को कम्पित करते हुए (तर्तूर्यन्ते) निश्चय विपत्तियों को तर जाते हैं। (ऊतये, उप, क्रमस्व) आप हमारी रक्षा के लिये हमें प्राप्त हों। (पुरुरूपं) अनेक रूपवाले (नेदिष्ठं) समीपदेश में उत्पन्न (वाजं, आभर) अन्नादि पदार्थों से सदैव हमें भरपूर करें ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि वेदोक्तकर्म करनेवाले विद्वान् पुरुष परमात्मा की कृपा द्वारा नानाविध उपायों से सब संकट तथा विपत्तियों को पार कर जाते हैं। वे कभी भी शत्रुओं से पराजित न होकर उनको कंपानेवाले होते हैं और नाना सुखसाधन योग्य पदार्थों को सहज ही में उत्पन्न कर सकते हैं, इसलिये पुरुषों को वेदविद्या का अध्ययन और परमात्मा की आज्ञा का पालन करना चाहिये, जिससे सुख प्राप्त हो ॥४॥

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    विषय

    इन्द्र सबका कल्याण करे, यह इस से दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे (मघवन्*) निखिलधनोपेत इन्द्र ! जो मनुष्य (विपश्चितः†) विद्वान् हैं । जो (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य (अर्य्यः) श्रेष्ठ या गमनीय हैं । और जो (विपः) विविध प्रकार से पालन करनेवाले हैं । वे यदि (वि) विशेषरूप से (तर्त्तूर्यन्ते) किसी दुःखसागर में तैरते हों अर्थात् नाना क्लेशों में पड़े हुए हों, तो उनको (उपक्रमस्व) समीप जाकर आनन्दित कीजिये और (ऊतये) उनकी रक्षा के लिये (पुरुरूपम्) बहुरूप=विविध प्रकार के (वाजम्) धन (नेदिष्ठम्) उनके अतिशय समीप (आ+भर) ले आइये । हे भगवन् ! यह मेरी प्रार्थना आपके निकट स्वीकृत हो ॥४ ॥

    भावार्थ

    भगवान् उपदेश देते हैं कि स्वग्रामनिवासी, स्वदेशस्थ और दूरस्थित विद्वानों को, प्रजाहितैषियों को और जनरक्षकों को सब कोई उत्साहित करें और उनको विपद् से बचावें ॥४ ॥

    टिप्पणी

    * मघवा−यह नाम इन्द्र का ही है । अग्नि वायु आदि के विशेषण में इस शब्द का पाठ अतिस्वल्प है । इन्द्र, मरुत्वान्, मघवा, बिडौजाः, पाकशासन, वृद्धश्रवा, शुनाशीर, पुरुहूत, पुरन्दर इत्यादि अनेक नाम इन्द्र के कहे गए हैं । मघ नाम धन का है । जिसको धन हो, वह मघवा है । परमेश्वर का नाम ही धनवान् है, क्योंकि इससे बढ़कर कौन धनाढ्य हो सकता है । जिस हेतु वह सर्वधनसम्पन्न है, अतः उससे सम्पत्ति की प्रार्थना होती है ॥ † विपश्चितः−जो विशेषरूप से मनुष्यों के क्लेशों को देखते और देखकर उन क्लेशों के नाश के लिये उपायों को चुनते हैं, वे विपश्चित् । यद्वा जो विशेषरूप से परमात्मा की विभूतियों के तत्त्वों को देखते और उनका संग्रह करते हैं, वे विपश्चित् । निघण्टु ३ । १५ में मेधावी (विद्वान्) के नाम २४ आए हैं । यथा−विप्रः । विग्रः । गृत्सः । धीरः । वेनः । वेधाः । कण्वः । ऋभूः । नवेदाः । कविः । मनीषी । मन्धाता । विधाता । विपः । मनश्चित् । विपश्चित् । विपन्यवः । आकेनिपः । उशिजः । कीस्तासः । अद्धातयः । मतयः । मतुथाः । वाघतः । इति चतुर्विंशतिर्मेधाविनामानि । यहाँ विपश्चित् और विप इन दोनों शब्दों का पाठ है । विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः सन् सुधी कोविदो बुधः । इतने विद्वान् के नाम हैं ॥४ ॥

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    विषय

    उस के अनेक गुण

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( विपश्चितः ) नाना विद्वान् जन ( वि तर्तूर्यन्ते ) विशेष रूप से तेरे ही अनुग्रह से इस संसार से पार हो जाते हैं। ( जनानाम् ) मनुष्यों को ( विपः ) कंपाने वाला और तू ही ( अर्यः ) उन पर अनुग्रह करने वाला स्वामी है। तू ( पुरु-रूपम् ) बहुत प्रकार से ( उप क्रमस्व ) हमें प्राप्त हो, और ( ऊतये ) हमारी रक्षा के लिये ( नेदिष्ठं वाजं भर ) अति समीप प्राप्य आत्मिक ऐश्वर्य और बल, एवं ज्ञान प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पुरुरूप वाज

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (विपश्चितः) = [वि पश् चित् ] सब वस्तुओं को बारीकी से देखकर चिन्तन करनेवाले विद्वान् ! (अर्यः) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले वीर तथा (जनानां विपः) = तत्त्वज्ञान की प्रेरणा से लोगों को कम्पित कर देनेवाले, उन्हें एक बार हिला देने वाले लोग (वितर्तूर्यन्ते) = सब कष्टों को तैर जाते हैं। [२] हे प्रभो ! आप (नेदिष्ठ उप क्रमस्व) = हमें समीपता से प्राप्त होइये । हम आपके अधिक से अधिक समीप हों। आपसे दूर होने पर ही तो हम शत्रुओं का शिकार होते हैं और नाना आपदाओं में फँस जाते हैं। आप हमें (ऊतये) = रक्षण के लिये (पुरुरूपम्) = अनेक रूपोंवाले (वाजम्) = बल को आभर प्राप्त कराइये। 'शरीर, इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के विविध बलों को प्राप्त करके हम अपना रक्षण करने में समर्थ हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानी व वीर बनकर आपत्तियों को तैरनेवाले हों। प्रभु के समीप होते हुए अनेकरूपा शक्ति को प्राप्त करके रक्षण के लिये समर्थ हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of might and majesty, the wise, the noble and the vibrant leaders of the people, by your grace, cross over all obstacles of their struggle for life and success, whenever they face any. Pray, come lord and give us instant energy of versatile form for our protection and victory at the earliest.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा भाव असा की वेदोक्त कार्य करणारे विद्वान पुरुष परमेश्वराच्या कृपेने नानाविध उपायांनी सर्व संकटे व विपत्तीच्या पलीकडे जातात, ते कधीही शत्रूकडून पराजित न होता त्यांना भयभीत करतात व नानाविध सुखसाधन योग्य पदार्थांना सहजच उत्पन्न करू शकतात. त्यासाठी माणसांनी वेदविद्येचे अध्ययन व परमात्माच्या आज्ञेचे पालन केले पाहिजे, ज्यामुळे सुख प्राप्त होईल. ॥४॥

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